COVID-19 से जुड़े कुछ प्रश्नों को समझना जरूरी है..

जब तक कोई पुख़्ता सुरक्षित प्रमाण न मिल जाएँ, रोकथाम ही श्रेयस्कर है। दवाओं की अधूरी-असत्य जानकारियों को बाँटने का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इससे लोगों का ध्यान रोकथाम से हटने लगता है।

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“हमने तो जीवविज्ञान की किसी पुस्तक में पढ़ा है कि कोरोना-विषाणु पुराना है? अगर यह विषाणु पुराना है, तब इससे इतना धिक् ख़तरा मनुष्यों को क्यों बताया जा रहा है?” एक सज्जन का प्रश्न है।

“आपने जीवविज्ञान की पुस्तक में जो पढ़ा है, वह सही किन्तु अधूरा ज्ञान है। जब ज्ञान संक्षिप्त होता है, तब वह अपूर्णता से ग्रस्त रह सकता है। कोरोना विषाणु एक विषाणु नहीं है; यह अनेक विषाणुओं का समूह है। ये विषाणु-समूह स्तनपाइयों और पक्षियों को संक्रमित करता रहा है। साधारण ज़ुकाम से लेकर न्यूमोनिया जैसे लक्षण इन विषाणुओं के कारण हो सकते हैं। कई पशुओं में कोरोना-विषाणुओं से दस्त-इत्यादि जैसे लक्षण भी पाये गये हैं: यह इस बात को सिद्ध करता है कि अलग-अलग जन्तु-स्पीशीज़ में इसके लक्षण अलग-अलग अंगों को प्रभावित कर सकते हैं।”

“कोविड-19 उत्पन्न करने वाला वर्तमान कोरोना विषाणु नया है। यह चमगादड़ों से किसी अन्य पशु में होता हुआ मनुष्यों में आया है, ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं। तदुपरान्त मनुष्यों में आने के बाद भी आनुवंशिक आधार पर दो प्रकारों में बँट गया है: एल स्ट्रेन एवं एस स्ट्रेन। (यह चीनियों का शोध है। कुछ वैज्ञानिक एल स्ट्रेन को एस स्ट्रेन को एल स्ट्रेन से निकला हुआ बता रहे हैं।) एल स्ट्रेन की संक्रामकता अधिक है, ऐसा भी माना जा रहा है।”

“यह तो और भ्रामक और भयानक जान पड़ती स्थिति है!” सज्जन कहते हैं।

“भय-भ्रम की जगह जागरूक और समझदार बने रहना है। विषाणु भी एक होस्ट से दूसरे, दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे और फिर इस तरह से गुज़रते हुए अपनी आनुवंशिक ( जेनेटिक ) सामग्री में बदलाव करता जाता है। यह एक परस्पर चलता संघर्ष है: मनुष्य और विषाणु के बीच। हम उसे रोक रहे हैं, वह फैलना छह रहा है। फैलने के लिए उसे हमारी कोशिकीय सामग्री की ज़रूरत है। हमें अपनी कोशिकाओं को यथासम्भव उसकी वृद्धि और विस्तार के लिए देने से बचना है। सामाजिक दूरी बनाकर, हाथ अच्छी तरह धोकर, हाथों से चेहरे-नाक-आँख-मुँह न छूकर हम यही कर रहे हैं।”

“क्या विषाणु बदल सकता है ? यानी इसकी रोग-तीव्रता बढ़ सकती है?”

“आगे क्या होगा, हम नहीं जानते। वर्तमान में क्या चल रहा है, उसे भी दुनिया-भर के वैज्ञानिक समाज और प्रयोगशालाओं में नित्य समझने में प्रयासरत हैं। ऐसे में भविष्य की अनिश्चितता से डरने की जगह वर्तमान में जितना जानते हैं, उसपर अच्छी तरह सकारात्मक अमल किया जाये। क्या यह सही नहीं होगा?”

“एक अन्तिम प्रश्न। कुछ ख़बरें मलेरिया-नाशक दवा क्लोरोक्वीन और गठिया-रोगों में इस्तेमाल होने वाली दवा हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को इस्तेमाल करने की आ रही हैं। क्या ये दवाएँ इस विषाणु को रोकने में मददगार हैं?”

“अभी ऐसी कोई सटीक दवा निश्चित तौर पर उपलब्ध नहीं, जिसे विषाणु या उसके रोग को नष्ट करने में कारगर कहा जा सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन ऐसी किसी दवा की पुष्टि नहीं करता। शोधों के बाद ही किसी दवा को डॉक्टर की सलाह से लेना चाहिए, अन्यथा उससे हानियाँ भी हो सकती हैं। अपने मन से इन दवाओं को लेना ग़लत और गैरज़रूरी तो है ही, हानिकारक भी हो सकता है। ऐसे में सामाजिक दूरी बनाये रखकर इसकी रोकथाम में योगदान दें। जैसे -जैसे विज्ञान अपने पुष्ट मत रखता जाएगा, वैसे-वैसे कोविड-19 से लड़ने में हम बेहतर सिद्ध होते जाएँगे।

“फ़ैवीपिरावीर जो कि फैपीलावीर/फ़ैवीलावीर के नाम से भी जानी जाती है और एक जापानी कम्पनी द्वारा पूर्वी एशिया में एविगान के नाम से उपलब्ध है, कोविड 19 की रोकथाम में कारगर बतायी जा रही है? क्या यह सत्य है?” एक जिज्ञासु पूछते हैं।

“यह दवा जिसका आपने अभी नाम लिया, अनेक आरएनए-विषाणुओं को रोकने में कुछ हद तक सहायक सिद्ध रही है। वर्तमान कोरोना-विषाणु सार्स-सीओवी 2 भी एक आरएनए विषाणु है। पूर्वी एशिया के देशों में डॉक्टर इन्फ्लुएंजा के उपचार के दौरान इसका इस्तेमाल करते रहे हैं। इबोला महामारी के समय भी इसके प्रयोग के बाद कुछ सकारात्मक नतीजे मिले थे। वर्तमान कोविड-पैंडेमिक के दौरान चीन में भी इस दवा के इस्तेमाल का प्रयोगात्मक इस्तेमाल किया गया था/ है।”

“किसी भी दवा को बिना पर्याप्त शोधों के, जनता को नहीं दिया जा सकता। जब-तक यह सिद्ध न हो जाए कि कोई दवा कोविड-19 की रोकथाम में कारगर है और इसके इस्तेमाल में कोई जोखिम या ख़तरा नहीं है, उसे जन-सामान्य में डॉक्टर नहीं देते। यदि ऐसा न किया गया तो उसके अपने दुष्परिणाम हो सकते हैं। ऐसे में हमें विशेषज्ञों के नतीजों का इंतज़ार करना चाहिए, जो फ़ैवीपिरावीर / फैपीलावीर / फ़ैवीलावीर / एविगान व ऐसी ही अनेक अन्य विषाणुमारक दवाओं पर शोध में दिन-रात लगे हैं। जब तक कोई पुख़्ता सुरक्षित प्रमाण न मिल जाएँ, रोकथाम ही श्रेयस्कर है। दवाओं की अधूरी-असत्य जानकारियों को बाँटने का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इससे लोगों का ध्यान रोकथाम से हटने लगता है। यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपने व्यवहार पर अंकुश नहीं चाहता, किसी भी प्रकार का।”

Dr. Skund Shukla

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