जिन भी लोगों ने थोड़ा बहुत अर्थशास्त्र पढ़ा होगा वे यह जानते होंगे कि करारोपण की व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक न्याय के उद्देश्य से की गई है। इसका सीधा-सा लक्ष्य इफरात वाले लोगों से पैसा लेकर जरूरतमंद लोगों के कल्याण पर खर्च किया जाए। इसके लिए ही सरकार कई तरह की कल्याणकारी काम करती हैं। खासतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय और परिवहन की व्यवस्था।
उदारीकरण का दौर शुरू होने से पहले देश में उच्च शिक्षा संस्थान अधिकतर सरकारी ही हुआ करते थे। स्कूली शिक्षा में निजी स्कूल हुआ करते थे, लेकिन तब भी इनका उतना चलन नहीं था। जब सोवियत संघ का पतन हुआ तो पश्चिम से ही एक नया विचार आया था कि लोककल्याणकारी राज्य का विचार अब पुराना हो चला है।
बाद के सालों में इस विचार का रहस्य भी खुलना शुरू हो गया। लगातार हर क्षेत्र में पूंजीपतियों और मल्टीनेशनल कंपनियों की घुसपैठ शुरू हो गई। फाइव स्टार की सुविधा और चकाचौंध से भरे कॉलेज और विश्विविद्यालय बनाए गए। जिसमें सिर्फ वही पढ़ सकते हैं जिनके पास पैसा है। जिनके पास पैसा नहीं है उनके लिए बदहाल होते सरकारी स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटीज है।
गौर करेंगे तो पाएंगे कि यहीं से असमानता के बीज अंकुरित होने शुरू हो जाते हैं। जो वंचित है वह उस चक्र में घूमता रहता है। जो समर्थ है उसके लिए तरक्की के रास्ते खुलते चले जाते हैं। पिछले कुछ सालों से योग्यता का विचार भी षडयंत्र जैसा ही सुनाई देने लगा है।
इसे इस तरह से समझें कि पिछले कुछ सालों से सवर्णों में भी वैश्यों के बच्चे हर जगह टॉप कर रहे हैं। कई दिनों तक इस पर विचार किया, पाया कि वैश्यों के पास पैसा है, उस पैसे से वे अपने बच्चों को बड़े शहर में बेहतरीन कोचिंग सेंटर्स पर कोचिंग दिलवा सकते हैं। योग्यता नामक चीज का भांडा यहीं आकर फूट जाता है।
क्योंकि यह प्रतिभा का नहीं, अवसर का मामला है। योग्यता और प्रतिभा का सारा कारोबार प्रतिस्पर्धा के कंधों पर टिका है, जो प्रतिस्पर्धा में सफल वह योग्य… सफल वही जिसे सफल होने के गुर आते हैं। चूंकि सफलता के गुर सिखाने का बड़ा कारोबार चल रहा है तो ये गुर उसे ही आते हैं जिसके पास पैसा होता है। तो फिर योग्यता कहाँ तेल लेने गई भाई?
पिछले दिनों अलग-अलग तरह के लोगों ने एक बात कही कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है, ठीक है साहेब, सरकार का काम व्यापार करना नहीं है, सरकार का काम धर्मार्थ कुछ करना भी नहीं है तो फिर सरकार को टैक्स की जरूरत ही क्या है?
शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण का विस्तार हो रहा है। परिवहन से भी सरकारों ने हाथ खींच लिए हैं रेल सुविधा तक निजीकरण पहुँच गया है। एविएशन और रोड ट्रांसपोर्ट में तो है ही। बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं का भी जनता पैसा देती है। यहाँ तक कि सड़कों की सफाई का भी पैसा लिया जाता है तो फिर हम टैक्स क्यों दें?
यदि सरकार को कुछ नहीं करना है तो टैक्स लेना छोड़े। क्या हम टैक्स इसलिए दे रहे हैं कि सरकार चुनाव में, मंदिरों में, मूर्तियों और त्योहारों पर अंधाधुंध पैसा खर्च करें।
जब हमारे प्रदेश में नई आई कांग्रेस सरकार ने किसानों के कर्ज माफ किए थे, तब भी एक तर्क ऊपर से चलकर आया था। हम टैक्स पेयर हैं हमसे पूछे बिना सरकार हमारा पैसा मुफ्तखोरों को कैसे दे सकती है। अखबार के संपादकों से लेकर स्कूल-कॉलेज के बच्चे भी यही बात दोहरा रहे थे।
भई किसी टैक्स पेयर ने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई कि ये जो आप 100 स्मार्ट सिटी बना रहे हैं इसके लिए पैसा कहाँ से आएगा? या ये जो हजारों करोड़ों रुपए लगाकर आप दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बना रहे हैं उसका पैसा आपने हमसे पूछे बिना क्यों लगाया? ये जो आप भव्य राम मंदिर बनाने की बात कर रहे हैं वो कैसे बनेगा? हर स्तर के चुनाव पर ये जो आप पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं उसको खर्च करने से पहले आपने टैक्स पेयर से पूछा था क्या?
नहीं न? आपको अपने पैसे की याद तभी क्यों आती है जब गरीब की शिक्षा, स्वास्थ्य, मदद या सुविधा पर खर्च होता है। माफ कीजिएगा, टैक्स पेयर होने के नाते स्मार्ट सिटी, राम मंदिर, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति, चुनाव प्रचार, विदेश यात्रा और एलिट क्लास के जीवन स्तर में लगने वाले अंधाधुंध पैसे से मेरा विरोध है।
सिर्फ जेएनयू में ही नहीं पूरे देश में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक मुफ्त और सहज उपलब्ध होनी चाहिए। स्वास्थ्य और न्याय की जिम्मेदारी भी सरकार को ही लेनी चाहिए। ट्रांसपोर्ट भी सुलभ, सरल औऱ सस्ता हो… यह सिर्फ गरीबों के लिए ही नहीं, शांतिपूर्ण, बेहतर और सुंदर समाज और उसके भविष्य के लिए जरूरी है।
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