हम कहां ग़लती कर रहे हैं?

‘सी’ कैटेगरी के प्यादों से फ़ौजियों के ख़ून की होली खेलने वाले शातिरों को सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए लेकिन इससे ज़्यादा ज़रूरी इस दिशा में ग़ौर करना है कि आख़िर क्यों कश्मीरी नौजवान हिंसा का रास्ता अपनाते जा रहे हैं?

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पुलवामा हमले के बाद देश में ग़म और ग़ुस्से का माहौल है। ऐसी घटनाएं राष्ट्रीय शोक होती हैं जिन पर राजनीतिक स्तरों से ऊपर उठकर सोचने की ज़रूरत होती है लेकिन हमले के बाद ४९ लाशों पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश की जा रही है, जो अत्यंत निराशाजनक है।
हमले के सम्बन्ध में बहुत सारे सवाल‌ उठ रहे हैं, जिनका सामना सरकार को करना‌ है। सबसे बड़ा सवाल कि कश्मीर जैसे राज्य में जहां हर संदिग्ध व्यक्ति की बाक़ायदा तलाशी होती हो, वहां इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री का आदान-प्रदान कैसे सम्भव हो सकता है? वो भी उस क्षेत्र में जहां फ़ौजी दस्ते मौजूद हों। यह सवाल घरेलू सुरक्षा के लिहाज़ से उठता है लेकिन बदक़िस्मती से इसे राजनितिक परिपेक्ष्य में देखते हुए जवाबदेही से बचने की कोशिश हो रही है। घरेलू सुरक्षा पर उठने वाले सवालों का सामना सरकार को ही करना होता है, चाहे वह बीजेपी की हो या कांग्रेस की या कोई और सरकार हो। अतीत में विपक्ष के नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी भी यही सवाल मनमोहन सिंह सरकार से कई बार कर चुके हैं जिन सवालों के जवाब आज उनसे तलब किए जा रहे हैं। न अतीत में इन सवालों के जवाब मिल सकते थे और न आज मिलने की उम्मीद ही। यहां कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। सिर्फ़ सवाल करने वाले और जिन से सवाल किया जा रहा है, उनके चेहरे बदल गए हैं और सवाल ज्यों के त्यों बाक़ी हैं।
हमले के बाद सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया भी नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती, जहां जम कर सियासी रोटियां सेंकी गईं, गिद्धों की तरह ४९ लाशें नोची जाती रहीं। यह हमले की सबसे निराशाजनक प्रतिक्रिया थी। किसी ने कहा ‘अगर मेरे वोट से पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक होती है तो मेरा वोट बीजेपी को!’ यह हरकत निःसंदेह आईटी सेल की ओर से की गई, जिसे प्रधानमंत्री के उस भाषण से शह प्राप्त है जिसमें उन्होंने कहा कि हमले को राजनीतिक लाभों और लक्ष्यों से ऊपर उठकर देखने की ज़रूरत है।
शुक्रवार के दिन देश भर में हमले के विरोध में प्रदर्शन हुए जिनमें अक्सर जगहों पर मोदी की जय-जयकार के नारे लगे। ४९ परिवारों सहित समूचे देश पर ग़मों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जय-जयकार के विशेष नारे इस ग़म से हटकर हैं जिन्हें देखकर बलिदानियों के लिए दुःखी दिल से ग़म व्यक्त करने पहुंचे लोग स्वयं को ठगा हुआ महसूस करने लगें। वो तो आए थे कि बलिदानियों को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें, उनके परिवार के साथ सहानुभूति प्रकट कर सकें, उनके दुःख में शामिल हो सकें, राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन सकें लेकिन इन सब से परे वे मात्र राजनीतिक जय-जयकार के नारों में इस्तेमाल कर लिए गए। बेशक सियासत के पहलू में दिल नहीं होता, अगर होता तो कितना ही सख़्त क्यों न हो, ४९ लाशों पर ज़रूर पसीज जाता।
टीवी चैनलों का रवैया भी इस सिलसिले में हमेशा की तरह निराशाजनक है। दुःख व्यक्त करना अलग चीज़ है और कुंठा फैलाना अलग चीज़ है। न्यूज़ चैनलों ने हमले के बाद रिपोर्टिंग और दुःख व्यक्त करने के नाम पर दिल खोलकर कुंठा फैलाई और इसी कुंठा के नतीजे में सोशल मीडिया यूज़र्स दिन‌ भर युद्ध की बात करते रहे। युद्ध का अर्थ क्या होता है, शायद उन्हें ज्ञात नहीं। ४९ लाशें उसी युद्ध का नमूना हैं, जिसकी मांग वे कर रहे हैं। वे जिस युद्ध की मांग कर रहे हैं, वह इन‌ लाशों की संख्या में और बढ़ोत्तरी ही करेगा। युद्ध तो स्वयं एक समस्या है, वह क्या किसी समस्या का हल देगा? युद्ध में उनकी संतुष्टि का बस इतना सामान होगा कि वे अपने सैनिकों की लाशों के साथ दुश्मन के सैनिकों की लाशें भी देख सकेंगे। ऐसी संतुष्टि इंसानों की पाशविक वृत्ति की संतुष्टि कहलाती है और ऐसी संतुष्टि हासिल करते हुए हम भी उसी स्तर पर पहुंच जाएंगे जहां से पुलवामा में फ़ौजी दस्तों को निशाना बनाया गया था। जब हम में और उनमें कोई अंतर बाक़ी नहीं रहेगा तो यह हमारी सबसे बड़ी हार होगी, भले ही हम युद्ध जीत ही क्यों न जाएं!‌ सोशल मीडिया पर युद्ध की मांग करने वाली पीढ़ी वही है जो इस सदी की पहली दहाई के आख़िर में वयस्क हुई है और युद्ध के ख़तरनाक परिणामों से अनभिज्ञ है।
पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जो रवैया अपनाया है, ऐसे हालात में उससे दूरी बनाना ही बेहतर होगा और इसका फ़ायदा यह होगा कि दुःखी नागरिक कम से कम कुंठाग्रस्त होने से बचा रहेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लाख असहमतियां, लेकिन हमले के बाद उनकी प्रतिक्रिया वैसी ही है जैसी किसी देश के प्रमुख की ऐसे हालात में होनी चाहिए।
कथित आत्मघाती हमलावर का नाम आदिल अहमद दार है, जो एक कश्मीरी नौजवान है। वह २०१८ में जैश-ए-मोहम्मद में शामिल हुआ था। उसे जैश की ‘सी’ कैटेगरी में रखा गया था। ऐसी घटनाओं में जैश के ऊंचे पदाधिकारी प्यादों का ही इस्तेमाल करते हैं। स्वयं उनके बच्चे उनकी तबाहकारियों से महफ़ूज़ ऊंचे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे होते हैं और वे दूसरों के बच्चों को अपनी दरिंदगी का माध्यम और तथाकथित जिहाद का ईंधन बनाते हैं। अगर कोई कश्मीरी नौजवान जैश-ए-मोहम्मद में शामिल होता है तो इसकी ज़िम्मेदारी बहुत हद तक हम पर भी आती है। हमने किसी मोड़ पर संगीन ग़लतियां ज़रूर की होंगी जिनकी बुनियाद पर आदिल अहमद दार एक शांतिप्रिय नागरिक बनने की बजाए सरहद पार बैठे जैश के पदाधिकारियों के हाथों का खिलौना बन‌ गया।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने चरमपंथियों का अनुगमन करने वाले नौजवानों पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के अनुसार २०१० में ५४ कश्मीरी नौजवान चरमपंथियों के साथ जुड़े थे जो २०१३ तक कम होते हुए १६ तक सीमित रह गए। २०१४ चूंकि चुनावी साल था, अतः इस संख्या में बढ़ोत्तरी हुई और ५३ नौजवान चरमपंथी गुटों में शामिल हुए। इसके बाद यह संख्या तेज़ी से बढ़ी है जिसमें २०१५ में ६६, २०१६ में ८८ नौजवानों ने चरमपंथ का रास्ता अपनाया। फ़िर ‘नोटबंदी’ से चूंकि कश्मीर में ‘आतंकवाद की कमर तोड़ दी गई’ इसीलिए २०१७ में यह संख्या १२६ तक पहुंच गई। साल २०१८ में चरमपंथियों के संपर्क में १९१ कश्मीरी नौजवान आए जिनमें से एक पुलवामा हमले में आत्मघाती हमलावर आदिल अहमद दार भी था। ‘सी’ कैटेगरी के प्यादों से फ़ौजियों के ख़ून की होली खेलने वाले शातिरों को सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए लेकिन इससे ज़्यादा ज़रूरी इस दिशा में ग़ौर करना है कि आख़िर क्यों कश्मीरी नौजवान हिंसा का रास्ता अपनाते जा रहे हैं? हम कहां ग़लती कर रहे हैं जिसका ख़ामियाज़ा हमें भुगतना पड़ रहा है?

लेखक : रेहान खान

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