ऐसी महंगाई मैंने अब तक नहीं झेली थी. काफी समय बाद कल स्वयं किचेन का सामान खरीदने किराना भंडार गया था. लाॅकडाऊन के दौरान ‘बिग-बाॅस्केट’ आदि से ‘होम-डिलीवरी’ ले रहा था. पर उनका ज्यादातर सामान अपने पड़ोस वाली किराने की दुकान जैसा नहीं होता था. दुकान-मालिक मोदी जी के परम भक्त हैं. पर मेरी किसी बात से असहमति नहीं जताते. हां, उनका शिक्षित और सुशील बेटा मेरी बातों पर जिस शिद्दत से सहमति जताता है, उसके पापा जी उस तरह नहीं जताते. हालांकि एक दौर में वह जीएसटी वगैरह को लेकर बड़े क्षुब्ध थे. बेटा हम लोगों की बातचीत में अक्सर मुस्कराते हुए कहता है: ‘सर, सारा चौपट भी हो जाये तो भी पापा मोदी जी की भक्ति नहीं छोड़ेंगे, पूरे भक्त हैं!’
मैंने दुकान पहुंचने से पहले ही जरूरत के सामानों की सूची ह्वाट्सएप कर दी थी, इस हिदायत के साथ कि सारा सामान पैक किए रहना और बिल भी तैयार रखना ताकि आने पर ज्यादा इंतजार न करना पड़े! पहुंचा तो सामान लगभग पैक हो चुका था. गाड़ी की डिक्की में रखवाया और बिल मांगा. बिल देखा तो सचमुच पसीने छूटने लगे. मेरी कल्पना से बाहर था वह बिल!–और थोड़ा-बहुत बाहर नहीं था! कल्पना कीजिए, आप हल्के-फुल्के तैराक हैं और किसी झील/तालाब में नहाने के लिए उतर रहे हैं. आप झील में जिस जगह उतरते हैं, अचानक वहां गहराई आपकी कल्पना से बाहर हो तो क्या होगा? किसी तरह उस गहरे पानी से बाहर आने की कोशिश करेंगे न! बिल देखकर मेरी भी कुछ वैसी ही हालत थी! लगा कहीं बहुत गहरे डूब रहा हूं! नियमित तौर पर कमाई न धमाई, अगर ये सिलसिला लंबा चला तो कैसे चलेगी ये जिंदगी! ये सिर्फ़ अपनी बात नहीं है, समाज और पड़ोस में अनेक मुझसे भी खस्ताहाल हैं, उनका क्या होगा? जिनकी जवानी में ही नौकरियां छूटी हैं, वो क्या करेंगे? संभव है, गलवान घाटी के शौर्य-शहादत के चैनली-किस्से, ‘न्यूज चैनलों के आसमान’ में दहाड़ लगाते जेगुआर-सुखोई-मिराज-तेजस और बाद के चुनावी-चकल्लस कुछ समय तक रोमांचक लगें— पर आगे क्या और कब तक?
कोरोना से होने वाली मौतें अब किसी अंधड़ की तरह बढ़ रही हैं, खासकर कुछ महानगरों में. देश के ज्यादातर हिस्से महामारी की चपेट में हैं. लेकिन वो भयावह परिदृश्य जो हमारी सिविल सोसायटी, सियासतदानों और शहरी अमीरों की आंखों से अब तक ओझल है, वो है भूख और बेहाली से होने वाली मौतें! हर असमय मौत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण होती है. अरबपतियों की मायानगरी की अपनी कशमकश, संत्रास और कुंठा से हुई कोई एक मौत या आत्महत्या पूरे देश की संवेदना को आहत कर देती है. पर गुड़गांव के बेरोजगार हो चुके युवा कर्मियों मुकेश, विनोद कुमार या झा जी जैसे अनेक युवा भारतीयों की आत्महत्या की खबर जिस खामोश ढंग से आती है, उसी तरह चली जाती है. गुजरात से बिहार आने वाली श्रमिक एक्सप्रेस से आ रही कटिहार की 35 वर्षीया अरविना खातून अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही भूख और बीमारी से दम तोड़ देती है. मुजफ्फरपुर रेलवे प्लैटफॉर्म पर पड़ी अरविना की चादर से अधढंकी लाश से चादर हटाता उसका छोटा दुधमुंहा बच्चा अपनी मां को जगाने-उठाने की कोशिश करता दिखता है. पर जगुआरों, मिराजों, तेजसों और सुखोइयों की दहाड़ के बीच ‘महाशक्ति’ बनते इस ‘प्राचीन विश्वगुरु’ के पास भूख और साधारण बीमारी के इलाज का सर्वसुलभ तंत्र ही नहीं है. महामारी में वायरस-संक्रमण की जांच कराने के लिए भी यहां मोटी रकम चुकानी पड़ती है(कृपानिधानों ने हाल ही में इसमें कुछ कमी कराई है!) फिर इस महामारी से हम कैसे निपटते? ‘सच्चाई’ से रूबरू होकर ही ‘आत्म-निर्भरता’ का नया आह्वान किया गया. अपनी जान बचाने या मौत का आलिंगन करने के लिए ‘भारत माता’ के करोड़ों सपूत और सपूतियां आज ‘आत्म-निर्भर’ कर दिए गए हैं! यकीं न हो तो देश के सबसे बड़े महानगरों का हाल देख लें!
वायरस से मौत के समानांतर भूख और बेहाली से हो रही मौतों का सिलसिला भी तेज हो गया है. बस, मीडिया में ऐसी मौतों की कहानियां नहीं आ रही हैं. अभी वह काफी समय गलवान घाटी में व्यस्त रहेगा! वहां से खाली होगा तो बिहार चुनाव में व्यस्त हो जायेगा!
इस बीच, सही इलाज और अस्पतालों में जगह के अभाव के चलते हो रही मौतों, बर्बाद अर्थव्यवस्था, मजदूरों, दलितों-आदिवासियों और गरीबों की आज जो भी बात करेगा, किसी मुद्दे पर जो असहमति या विरोध जतायेगा, उसकी ख़ैर नहीं! नये अस्पताल बनें या न बनें पर नयी जेलें बनती जायेंगी!
जय हिन्द!
जो महामारी में संक्रमण से बचेंगे, उनमें बहुतेरे गरीब महंगाई और बेहाली से मरेंगे!
लेकिन वो भयावह परिदृश्य जो हमारी सिविल सोसायटी, सियासतदानों और शहरी अमीरों की आंखों से अब तक ओझल है, वो है भूख और बेहाली से होने वाली मौतें!