बिहार से हुए पलायन को अवरोधन की बजाय मिला संस्थागत समर्थन, जानें पृष्ठभूमि

1960-70 के दशक के हरित क्रांति के समय भी जब भारत के अनेक राज्यों में अनाजों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन हो रहा था उस समय भी यहाँ के गाँवों से लाखों की संख्या में मात्र पलायन ही हो रहा था- मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश आदि के कृषि फार्म की तरफ।

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पलायन और बिहार का बहुत ही पुराना संबंध है और हाल के कुछ दशकों में इसमें तीव्र वृद्धि भी हुई है। ग्रामीण कृषिगत अर्थव्यवस्था का विघटन, सामाजिक सामंती संरचना की उपस्थिति, एक बड़ी जनसंख्या का सामाजिक और आर्थिक सुविधा से वंचित होना, तथा उनका राजनीतिक अपवर्जन जैसे अनेक कारण रहे हैं जिसने पलायन को निरंतर प्रश्रय दिया। पलायन करने के बाद गंतव्य राज्यों या शहरों की प्रतिकूल सामाजिक और आर्थिक दशा दुखद और चिंतनीय है।

पलायन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

औपनिवेशिक कालों से पूर्व मुगल काल में भी पश्चिमी बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से सैन्य दलों में पदातीयों की नियुक्तियों के लिए इनका पलायन हो रहा था जो औपनिवेशिक काल में भी ब्रिटिश फौज के लिए निर्बाध गति से चलता रहा।

लेकिन 19वीं शताब्दी में इसमें एक बड़ा रूपांतरण हुआ, अब इनका पलायन सैन्य उद्देश्यों से इतर औद्दोगिक हितों के लिए मजदूरों के रूप में होने लगा, जैसे असम के चाय बागानों के लिए, बंगाल के कारखानों के लिए और गिरमिटिया मजदूर बनकर समुद्रपारीय उपनिवेशों में गन्ने की खेती के लिए, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों की सहभागिता होती थी, जिसका अपना एक अलग करुण वृतांत है।

कालांतर में भी पलायन की परंपरा किसी न किसी रूप में चलती ही रही; स्वतंत्रता के उपरांत यह आशा जगी कि अब इस प्रवृति में कमी आएगी, लेकिन विकास की विशाल शहरी और भारी उद्योग केंद्रित नीतियों और नियमन के बाद भी इसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, उतार-चढ़ावों के साथ इसकी निरंतरता बनी ही रही।

1960-70 के दशक के हरित क्रांति के समय भी जब भारत के अनेक राज्यों में अनाजों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन हो रहा था उस समय भी यहाँ के गाँवों से लाखों की संख्या में मात्र पलायन ही हो रहा था- मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश आदि के कृषि फार्म की तरफ।

आर्थिक-सुधार के पश्चात

आर्थिक सुधार ने पलायन को नियंत्रित नहीं किया अपितु और तीव्रता से इसे आगे बढ़ाया, क्योंकि विकास में द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों की घोर उपेक्षा की गई थी। इस दौरान उद्योगों का अत्यधिक असमतलीकृत और अनियोजित विकास हुआ।

कई छोटे-छोटे उद्योग-धंधे बंद हो गए जिससे वैकल्पिक रोजगार के स्रोत भी समाप्त होते चले गए। उदाहरण के लिए वर्ष 2003 में लगभग 54 प्रतिशत उद्योग बंद हुए थे और अनुमानतः 26 प्रतिशत उद्योगों की स्थिति जर्जर हो गई। अपनी ग्रामीण परंपरागत आर्थिक-सामाजिक संरचना को खोने के बाद भी नए विकास मॉडल में उनके लिए समुचित स्थान का अभाव बना रहा।

नगर केंद्रित विकास नीतियाँ ग्रामीण आर्थिक संरचना को अनदेखा कर बनाई जा रही थी। वर्ष 2004-2005 तक बिहार में विपन्नता का दर भयावह स्तर पर पहुँच गया था। लगभग 55.7 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रही थी।

पलायन के दुष्परिणाम

एक अनुमान के अनुसार लगभग 50 लाख बिहार के ग्रामीण देश के भिन्न-भिन्न राज्यों में किसी तरह मजदूरी करके जीवन यापन कर रहे हैं। गंतव्य स्थानों पर उनका जीवन स्तर सामान्यतया बेहद ही दयनीय है जिसे हमने अपने हैदराबाद के विभिन्न उद्योगों मे कार्यरत बिहारी मजदूरों की कार्यदशा पर किए गए एक शोध* के दौरान भी पाया।

इनका पलायन दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, आदि क्षेत्रों में अधिक तेज़ी से हो रहा है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से अत्यंत निर्बल है; लगभग 85 प्रतिशत की मासिक आय 5,000 रुपये से कम है।

साथ ही निम्न शैक्षिक स्तर और तकनीकी जानकारी नहीं होने के कारण ये पलायन करने के बाद भी मजदूरी या ऐसे ही अल्प आय के कार्य दीर्घ समय तक करते रह जाते हैं। ये मुख्यतः शहरों में निर्माण कार्य, उद्योग या फिर कृषि कार्यों में संलग्न हो जाते हैं। वहाँ ये अस्थाई और अत्यंत ही असुरक्षित वातावरण में कार्य कर रहे होते हैं।

यह उल्लेखनीय है कि ग्रामीण बिहार से पलायन करने वाले अधिकतर पुरुष ही होते हैं, महिला सदस्यों को गाँवों में ही छोड़ दिया जाता है; ऐसा करने के पीछे अनेक सामाजिक-आर्थिक कारण हैं, जैसे गंतव्य स्थानों पर खराब कार्य-दशा और जीवन स्तर।

पुरुष सदस्यों की अनुपस्थिति में महिलाएँ अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करती हैं जैसे स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा, सुरक्षा आदि। बाहर से जो पैसे आते हैं वे इतने पर्याप्त नहीं होते कि वे सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें। अतिरिक्त आय के लिए वे आस-पड़ोस के खेतों या घरों में कार्य करते हैं जहाँ बड़े किसानों या भूपतियों द्वारा उनका मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाता है।

अल्प पारिश्रमिक, कठोर श्रम और अभावग्रस्त आवासीय और सामाजिक परिवेश में वे कार्य करने को बाध्य होने के बावजूद भी पलायन की प्रवृति और गति का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार के करीब सात जिलों में हुए एक सर्वेक्षण के आधार पर यह स्पष्ट हुआ कि लगभग 58 प्रतिशत परिवार से कम से कम एक लोग आजीविका के लिए बाहर प्रवास कर रहें हैं और यह स्थिति सिद्ध करती है कि वर्तमान समय में भी पलायन को नियंत्रित करने में वर्तमान सरकार अक्षम है।

पलायन के कारण

बिहार से पलायन के कारणों और प्रभावों को समझने के लिए अनेक अध्ययन हुए हैं। पलायन के कई कारणों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि इसमें बेरोजगारी सबसे महत्त्वपूर्ण है जो ग्रामीण जनसंख्या को पलायन के लिए बाध्य करती है। यह भी उल्लेखनीय है कि पलायन सभी वर्गों से हो रहा है, हाँ इनके उद्देश्यों में अंतर है; जहाँ संपन्न वर्ग बेहतर विकल्पों के लिए बाहर जा रहें हैं वहीं विपन्न वर्ग मात्र अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पलायन कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त अगर विशेषतौर पर उत्तर बिहार के संदर्भ में बात करें तो हम देखते हैं कि वहाँ बाढ़ प्रत्येक वर्ष आनेवाली प्रघटना है जिससे लाखों लोग विस्थापित हो रहें हैं, अभी हाल में वर्ष 2008 की बाढ़ हो या वर्ष 2019 की बाढ़ इसमें भयंकर नुकसान हुआ है।

विस्थापित हुए लोग अलग-अलग राज्यों में पलायन कर रहें हैं लेकिन हमें ये बात भी समझनी चाहिए कि बाढ़ जैसी  प्राकृतिक प्रघटनाओं को भयंकर आपदा बनाने मे राजकीय नीतियाँ ही जिम्मेदार होती हैं, न कि प्रकृति, जैसा कि अनगिनत शोधों से भी यह सिद्ध हो चुका है।

एक अर्थ में देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न काल-खंडों में विभिन्न स्वरूपों में राज्य ने इस पलायन का उत्साहवर्धन ही किया। यह कत्तई स्वैच्छिक पलायन नहीं है, अपितु संस्थागत पलायन है जिसे राज्य ने संस्थागत तरीके से प्रोत्साहित किया।

संस्थागत-पलायन से तात्पर्य ऐसे पलायन से है जिसमें राजसत्ता या अन्य किसी प्रकार की व्यवस्था की अधिकतर नीतियाँ मात्र पलायन के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में लगी होती है या इसे विभिन्न रूपों मे प्रोत्साहित करती है, और ऐसा सामान्यतया वे उन स्थितियों मे करते हैं जब उनके पास राज्य के भीतर ही उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने का सामर्थ्य या नीयत नहीं होती है।

पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि क्षेत्रों के लिए विशेष मजदूर ट्रेनें चलवाकर, मजदूर सुरक्षा कोषों और दुर्घटना बीमा योजना जैसे पलायन किए हुए लोगों का पंजीकरण और डाटाबेस तैयार करवाकर, कल्याणकारी कोषों का गठन, भर्ती एजेंसी को लाइसेंस प्रदान करना, पलायन किए हुए लोगों के लिए छूट प्रदान करना, सरकारी-निजी बैंकिंग तंत्र का गठन आदि जैसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

इसके अतिरिक्त ऐसे भी अनेक अवसर आए जब बिहारी मजदूरों के साथ अन्य राज्यों में हिंसा और मार-पीट की जा रही थी, उस समय भी पलायन को नियंत्रित और राज्य में ही रोजगार सृजन से संबंधित नीतियों का निर्माण करने के बदले राजनीतिक स्तर पर प्रतिक्रियावादी गैर-जिम्मेदार बयान ही दिए जा रहे थे।

वस्तुतः यह राज्य की नीतिगत अक्षमता थी जिसने इन्हें अपने क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध करवाने या उनके परंपरागत व्यवसायों को नई दिशा और दशा देने के बदले पलायन को राज्याश्रय दिया और पलायन किए गए लोगों के प्रेषित धनों से विभिन्न प्रकार के करों के रूप मे केवल लाभ उठाती रही।

पलायन को रोकने के लिए कभी कोई गंभीर पहल नहीं की गई; विकास नीतियों और कार्यक्रम से पलायन की गति में कभी विशेष कमी नहीं हुई। यहाँ की बड़ी जनसंख्या की आर्थिक निर्भरता कृषि और इससे संबंधित कार्य ही रहे हैं, लेकिन सरकारी नीतियाँ ही अक्सर इस संरचना के टूटते रहने का कारण बनी और जिससे पलायन को बल मिलता रहा।

वर्तमान सरकार आज कोविड-19 के महाविनाश काल में लौट आए लोगों के लिए किस प्रकार की नीतियाँ बनाती है यह देखना होगा लेकिन इस आपदा ने सरकार के सभी अंगों की नियत और अक्षमताओं को खोलकर सड़क पर वस्त्र-विहीन करके रख दिया है, लेकिन लज्जा का शायद राजसत्ता से कोई संबंध नहीं होता। सरकार को सचेत और जनता को जागरूक होने की आवश्यकता है।

* केयूर पाठक का हैदराबाद में शोध कार्य। चित्तरंजन सुबुद्धि केंद्रीय विश्वविद्यालय तमिलनाडु में सहायक प्राध्यापक हैं।

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