‘बेटी बचाओ’ के नारे का पोल खोलती है एनसीआरबी की रिपोर्ट
उम्मे वरक़ा
“किसी भी समाज की तरक़्क़ी का मापदंड उस समाज की महिलाओं के विकास से मापा जा सकता है।”
“कोई भी समाज या देश तब तक तरक़्क़ी के शिखर पर नहीं पहुंच सकता जब तक उसमें महिलाओं का सम्मान नहीं होता।”
उक्त विचार हम समय-समय पर अपने राजनेताओं के भाषणों में सुनते आए हैं। देश की तरक़्क़ी का यह पैमाना तब सवालों के कटघरे में आ खड़ा होता है जब नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट मंज़र-ए-आम पर आती है और पता चलता है कि 2019-21 के बीच देश-भर से 13.13 लाख लड़कियां एवं महिलाएं लापता दर्ज की गईं हैं। गृह मंत्रालय की इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लापता होने वाली महिलाओं में 10,61,648 महिलाओं की आयु 18 वर्ष से अधिक व 2,51,430 महिलाओं की आयु 18 वर्ष से कम है। मध्य प्रदेश में सबसे ज़्यादा लगभग 2 लाख के क़रीब महिलाएं गुमशुदा पाई गईं। इसी क्रम में महिलाओं की गुमशुदगी दर्ज करने वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल और केंद्र प्रशासित राज्यों में दिल्ली और जम्मू-कश्मीर शामिल हैं। किसी भी देश में इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं का लापता होना उस देश में महिला विकास एवं सुरक्षा पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है।
फिर महिला सुरक्षा का सवाल यहीं तक सीमित नहीं है। 2011 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध की 2,28,650 से अधिक घटनाएं दर्ज की गईं थीं, जबकि 2021 में 87% की बढ़ोतरी को साथ 4,28,278 घटनाएं दर्ज की गईं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2021 में 6,589 दहेज हत्याएं दर्ज की गईं। ध्यान रहे कि यहां पर ‘दर्ज’ हुए मामलों की बात की गई है। इसके अलावा अनेक मामले ऐसे भी होंगे जो दर्ज नहीं हुए होंगे। एनसीआरबी की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2019-20 के बीच में महिला हिंसा के मामलों में 15% की वृद्धि हुई है। इन सभी मामलों के बाद हम इस बात का अंदाज़ा भली-भांति लगा सकते हैं कि सरकार द्वारा महिला विकास हेतु चलाई गई ढेरों योजनाएं जैसे, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘उज्ज्वला योजना’, ‘स्वाधार गृह योजना’, ‘मिशन शक्ति’ आदि किस हद तक कामयाब रही हैं।
ऐसे में ‘बेटी बचाओ’ का नारा देने वाले नेताओं को चाहिए था कि इन मामलों को गंभीरता से लेते और उचित कार्रवाई करते, लेकिन ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। राजनेता तो छोड़िए, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाली मीडिया ने भी इस मुद्दे को कवर करने में कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई। इससे एक विकासशील देश में महिलाओं की स्थिति ख़ूब निखरकर सामने आती है। वहीं दूसरी तरफ़ मणिपुर पर नज़र डालें तो स्थिति और भयावह होती चली जा रही है, हाल ही में एक दिल दहला देने वाला वीडियो सामने आया जिसमें एक महिला को निर्वस्त्र करके सड़क पर घुमाया गया और उसके साथ सामूहिक बालात्कार किया गया। इतना अपमान और इतना तिरस्कार, स्त्री को देवी समझने वाले देश में हो रहा है।
एक तरफ़ तो ये हिंसा चल रही थी और दूसरी तरफ़ संविधान के परखच्चे उड़ रहे थे। अपराधिक क़ानून संशोधन अधिनियम 2018, एमरजेंसी रिस्पांस सपोर्ट सिस्टम – 112 कोई काम न आया और एक बार फिर युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच द्रौपदी का चीरहरण हुआ। और यह सिर्फ़ एक महिला नहीं है जिसे मणिपुर में सांप्रदायिक नफ़रत का निशाना बनाया गया हो, वहां से ढेरों बालात्कार के मामले सामने आए हैं।
महिलाओं को समानता का अधिकार देने की बात करने वाला देश आज उनके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा तक कर पाने में असमर्थ है। एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें चाहिए कि हम इस नैतिक कमी को समझें। भारत में, महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सबसे पहले समाज में उनके अधिकारों और मूल्यों का हनन करने वाली सोच को ख़त्म करना ज़रुरी है जो दहेज प्रथा, अशिक्षा, यौन हिंसा, असमानता, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार, वैश्यावृति, मानव तस्करी और ऐसे ही अन्य सोचों को बढ़ावा देता है। पितृसत्तात्मक मानसिकता को ख़त्म करके महिलाओं के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। महिलाओं को भी शिक्षा के महत्व को समझाएं, क्योंकि एक शिक्षित महिला से ही एक शिक्षित समाज का निर्माण होता है।