भारतीय मुस्लिम राजनीति पर एक नई किताब

किताब में शोध की गुणवत्ता बहुत अच्छी है और अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद, यह किताब, चिंतन और विमर्श के लिए आमंत्रित करती है।

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पुस्तक: Another India: The Making of the World’s Largest Muslim Minority, 1947–77

(एक और भारत: दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम अल्पसंख्यक का निर्माण, 1947 से 1977 तक)

लेखक: प्रतिनव अनिल

प्रकाशक: C Hurst & Co. Publishers Ltd.

भाषा: अंग्रेज़ी

पृष्ठ: 432

समीक्षक: प्रोफ़ेसर मुहम्मद सज्जाद

अनुवाद (समीक्षा): नूरउज़्ज़मा अरशद

देश के बंटवारे के साथ हासिल हुई आज़ादी के तीन दशकों बाद यानि वर्ष 1977 तक, मुसलमानों की राजनीति पर एक नई किताब आई है। युवा इतिहासकार प्रतिनव अनिल की इस नई किताब का शीर्षक है – ‘एक और भारत: दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम अल्पसंख्यक का निर्माण, 1947 से 1977 तक’। इस मोटी-सी किताब में शोध की गुणवत्ता बहुत अच्छी है, लेकिन गद्य न केवल कठिन है, बल्कि शैली भी अलंकारिक (Rhetorical) और उत्तेजक (Provocative) है। अपरिचित अंग्रेज़ी शब्दों और मुहावरों और फ़्रेंच शब्दावली के इस्तेमाल ने इस पुस्तक को पाठकों के लिए और अधिक कठिन बना दिया है।

इस किताब में, अनिल ने नेहरू की नीतियों और कार्यक्रमों की कड़ी आलोचना की है। उत्तर प्रदेश के मुसलमानों से संबंधित ऐश्वर्या पंडित की किताब (2018) और अनिल की यह किताब एक साथ पढ़ने से ऐसा मालूम होता है कि इतिहास लेखन की कैंब्रिज विचारधारा ने, नेहरू पर निशाना, किसी गुप्त और नकारात्मक मक़सद के तहत साध रखा है। भगवा सियासत भी नेहरू को अपना निशाना बना रही है। साथ ही, मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियां भी नेहरू को निशाना बनाती रहती हैं।

इस किताब में, अनिल ने नेहरू युग को, इस्लामोफ़ोबिक युग कहना पसंद किया है। हालांकि, अनिल ने ख़ास तौर पर इस पुस्तक को, प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन (1949-2018) की पुस्तक ‘Legacy of a Divided Nation: India’s Muslims since Independence’ (1997) के प्रतिउत्तर के रूप में लिखा है। इस किताब के बारे में अनिल का मानना है कि मुस्लिम अभिजात वर्ग की, नेहरू के प्रति, अपना हित साधने और अपना उल्लू सीधा करने की कहानी है और उस सियासी ड्रामे में आम मुसलमान केवल दर्शक मात्र थे। रफ़ीक़ ज़करिया, मोइन शाकिर, उमर ख़ालिदी जैसे विद्वानों के बारे में भी, अनिल, लगभग ऐसा ही विचार रखते हैं।

अनिल के शब्दों में, उनकी पुस्तक का मुख्य उद्देश्य, मुस्लिम एजेंसी को पुनः प्राप्त करना है और भारतीय राजनीति में अंतर्निहित, बहुसंख्यकवाद को उजागर करना है। इस प्रकार, कांग्रेस के सबसे बड़े मुस्लिम नेताओं के बारे में भी अनिल की राय बहुत सख़्त है। मौलाना आज़ाद, ज़ाकिर हुसैन, रफ़ी क़िदवई, हुमायूं कबीर, सैयद महमूद, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद आदि को भी अनिल ने नहीं बख़्शा है।

हालांकि, इस संबंध में, ज्ञान प्रकाश की पुस्तक ‘Emergency Chronicles’ में उचित व्याख्या दी गई है –

“भारत के संविधान ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों को जो समानता का अधिकार दिया है, वह अल्पसंख्यकों के अपने अधिकार की लड़ाई के नतीजे में हासिल नहीं हुआ है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान, मुसलमान, अल्पसंख्यकों के अधिकार की लड़ाई लड़ने के बजाए एक नया मुल्क बनवाने की लड़ाई की तरफ़ अग्रसर हो गए, या कर दिए गए। सच तो यह है कि मुसलमानों ने अपने नागरिक अधिकारों के लिए निरंतर प्रयास किया ही नहीं। अतः अब, जबकि भगवा ताक़तें छा चुकी हैं तो मुसलमानों के पास अपने नागरिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने के अपने इतिहास या परंपरा की कमी है। और इस तरह से मुसलमान बेचारे एक इलेक्शन से दूसरे इलेक्शन के बीच एक पेंडुलम की तरह लटक कर रह गए हैं।”

पॉल आर. ब्रास और थियोडोर पी. राइट जूनियर जैसे राजनीतिक वैज्ञानिकों का भी मानना है कि मुसलमानों की सांप्रदायिक राजनीति, उनके लिए एक समस्या उत्पन्न करती रही है, जबकी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति से भी उनको कोई फ़ायदा नहीं हो पाता है। तो क्या यह स्थिति इसलिए बनी हुई है कि देश के विभाजन का पूरा दोष मुसलमानों ही पर थोप दिया गया? ऐसा लगता है कि अनिल का जवाब शायद इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों में निहित है। और मौलाना आज़ाद के अक्टूबर 1947 में जामा मस्जिद में दिए गए भाषण और फ़रवरी 1949 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में दिए गए भाषण में भी, कुछ वाक्य लगभग एक ही प्रकृति के मालूम होते हैं।

अनिल ने धर्मनिरपेक्ष मुस्लिम राजनीति के ख़िलाफ़ अपने तर्कों के लिए बड़ी मेहनत से कुछ सबूत जुटाए हैं। उदाहरण के लिए, लॉर्ड वेवेल ने सर शफ़ात अहमद ख़ान को ‘मक्खन बाज़’ कहा था, 4 जनवरी, 1949 को संविधान सभा की बहस में हसरत मोहानी ने राष्ट्रवादी मुसलमानों को ‘कांग्रेस का ग़ुलाम’ कहा, सैयद महमूद को ‘नेहरू का कुत्ता’ कहा गया था, यहां तक कि प्रमुख दक्षिण भारतीय नेता मुहम्मद इस्माइल (1896-1972) को भी ‘बिना ज़हर वाला सांप’ कहा गया था।

आधुनिक भारत के इतिहास का छात्र होने के नाते, ख़ुद मेरे मन में भी कई प्रश्न उठते रहे हैं। उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में बनने वाले शरिया क़ानून में, मौलाना आज़ाद की दृष्टि और भूमिका क्या थी? संविधान सभा के भाषणों में मौलाना आज़ाद की भूमिका बहुत कम क्यों थी? प्रोफ़ेसर रिज़वान क़ैसर (1960-2021) की 2011 में प्रकाशित पुस्तक में यह साफ़ कहा गया है कि 1940 से 1946 के बीच मौलाना आज़ाद एक असहाय कांग्रेस अध्यक्ष थे। यानि कांग्रेस की ज़िला स्तर की ईकाइयां भी आज़ाद के ख़िलाफ़, दूसरे बड़े कांग्रेसी नेताओं से शिकायतें कर रही थीं और उन पर इल्ज़ाम लगा रही थीं।

इतिहास लेखन की कैम्ब्रिज विचारधारा के अनुसार, अनिल ने देश विभाजन की ज़िम्मेदारी, ब्रिटिश सरकार पर डालने से परहेज़ किया है। इस प्रकार, जिन्ना के प्रति उनका नरम रुख़ भी स्पष्ट हो जाता है और इसके लिए वह, नेहरू को अधिक ज़िम्मेदार मानते हैं। दूसरे शब्दों में, अनिल ने मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति का लगभग समर्थन ही किया है। उनका मानना है कि लीग ने तो मुसलमानों को आर्थिक और राजनीतिक संरक्षण देने की ही कोशिश की, जबकि राष्ट्रवादी मुस्लिम राजनीति ने तो उन्हें केवल शरिया के संरक्षण की राजनीति तक सीमित कर दिया था। मुझे अनिल की यह बात बहुत अजीब लगी। क्योंकि शरिया एक्ट 1937 में तो जिन्ना का हाथ था, जबकि आज़ाद लगभग ख़ामोश थे। यह अलग बात है कि आज़ाद ने 1920 में तुर्की में ख़िलाफ़त को बचाने के लिए, भारत के मुसलमानों को उकसाया था और शरिया संरक्षण की राजनीति के तहत ख़ुद को ‘अमीर–ए–हिंद’ बनाने का असफल प्रयास किया था। हालांकि अनिल इतना ज़रूर मानते हैं कि धर्मनिरपेक्ष राजनीति तो कांग्रेस का ही आदर्श था।

इस संबंध में, यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि प्रोफ़ेसर मुशीरूल हक़ (1933-1990) की पुस्तक में आज़ाद की इस शरिया संरक्षण राजनीति के निहितार्थ और परिणामों को बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है। इस किताब का शीर्षक है ‘Muslim Politics In Modern India’ यानि आधुनिक भारत (1857 से 1947) में मुस्लिम सियासत, लेकिन मूल रूप से इस किताब का ज़्यादातर हिस्सा मौलाना आज़ाद की राजनीतिक जीवनी ही है। यह भी एक अजीब बात है कि मौलाना आज़ाद के मशहूर जीवनी लेखक (अंग्रेज़ी भाषा में) ने मुशीरुल हक़ की उपरोक्त पुस्तक से फ़ायदा तो उठाया है लेकिन आलोचनात्मक अवलोकन बहुत अधिक नहीं कर सके हैं।

अनिल की समीक्षाधीन पुस्तक में, मौलाना आज़ाद के ख़िलाफ़ दिखाई गई आक्रामकता एक विचारणीय और विवादास्पद मुद्दा है। हालांकि अनिल ने अपनी यह पुस्तक प्राथमिक स्रोतों और साक्ष्यों के आधार पर लिखी है। आज़ाद, वर्ष 1955 में, पूरे साल, सदन में ख़ामोश ही रहे। उन्होंने शिक्षा मंत्री के रूप में, संसद में पूछे गए किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया। इसकी वजह अनिल के अनुसार, आज़ाद के अहंकार के बजाय उनके शराब पीने और एकांतप्रियता के कारण था। यहां तक कि सितंबर 1948 में, हैदराबाद में हुए तथाकथित ‘पुलिस ऐक्शन’ में 40,000 मुसलमानों के नरसंहार के सवाल पर भी आज़ाद ने मुसलमानों को ही चुप रहने के लिए प्रोत्साहित किया, और यहां तक कि उसका उत्तरदायित्व भी, मुसलमानों के ग़लत राजनीतिक रास्ता चुनने (यानि अलगाववाद की राजनीति का समर्थन) पर डाल दिया। अनिल के अनुसार, आज़ाद ने मुसलमानों को, राजनीतिक अधिकारों की मांग के बजाए सांस्कृतिक संरक्षण को प्राथमिकता देने के लिए प्रोत्साहित किया। और इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद की मुस्लिम राजनीति को भी उसी रास्ते पर ढकेल दिया। टाइम्स ऑफ़ इंडिया (30 सितंबर 1952) में आज़ाद के संबंध में एक ऐसा ही बयान प्रकाशित किया गया था। यहां तक कि संविधान सभा की बहसों में भी, राष्ट्रवादी मुसलमानों ने ख़ुद को राजनीतिक अधिकारों के बजाय सांस्कृतिक संरक्षण तक ही सीमित रखा। इसको पीटर हार्डी ने अपनी पुस्तक ‘The Muslims of British India’ (1972) में कहा था कि मुसलमानों ने अपने लिए ‘Juridical Ghetto’ को चुना।

1947 की गर्मियों में, Separate Electorate से अलग हो गए और मई 1949 में, सरकारी नौकरियों में आरक्षण को भी छोड़ दिया गया था। जुलाई 1947 में, आज़ाद ने संसद में मुसलमानों के लिए आरक्षण का समर्थन किया था। अगस्त में देश के विभाजन के बाद, ऐसे आरक्षण की वकालत करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो गया था।

के. एम. मुंशी पेपर्स का ज़िक्र करते हुए, अनिल ने ख़ुलासा किया कि सरदार पटेल ने बेगम क़ुदसिया ऐज़ाज़ रसूल (1909-2001) और तजम्मुल हुसैन का इस्तेमाल किया था। इन दोनों ने मुसलमानों को मिलने वाले इस तरह के आरक्षण का विरोध किया, और इस प्रकार आज़ाद, अब, इस बातचीत में कमज़ोर पड़ गए। यहां तक कि क़ानूनी प्रक्रिया के बिना की गई गिरफ़्तारियों के सवाल पर भी जब चर्चा शुरू हुई तो कहा जाता है कि आज़ाद ख़ामोश ही बैठे रहे। असम के सादुल्लाह ने ज़ोरदार बहस की थी। बी. एन. राव ने भी सादुल्लाह का समर्थन करते हुए ऐसे क्रूर क़ानून को अलोकतांत्रिक क़ानून बताया था, क्योंकि ऐसे क़ानून का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ही ज़्यादा किया जा रहा था, और यह अब भी जारी है। हाल ही में हुमैरा चौधरी के एक शोध लेख (2021) में भी बेगम ऐज़ाज़ रसूल की भूमिका को उजागर किया गया है।

आज़ाद को, संविधान सभा की भाषा समिति से भी इस्तीफ़ा देना पड़ा था। अपने इस्तीफ़े के साथ उन्होंने आंखों में आंसू भरकर कहा था कि उर्दू को उसका स्थान और अधिकार देने से क़यामत नही आ जायेगी। वैसे, आज़ाद की एकांतप्रियता की व्याख्या मुहम्मद मुजीब ने अपनी किताब ‘The Indian Muslims’ (1966) में भी की है। हुमायूं कबीर ने भी इसकी व्याख्या की है।

अनिल की किताब में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम अभिजात के प्रति काफ़ी कड़वाहट है, जिन्हें वह मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार मानते हैं। अनिल के मुताबिक़ मुसलमानों के पिछड़ेपन का दूसरा बड़ा कारण शरिया क़ानून की राजनीति है। इस्लामिक देशों में जो शब्दावली प्रचलित है उन शब्दावलियों के विरोध को, मुस्लिम राजनीति का एक बड़ा दोष मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि एक तरफ़ भगवा राजनीति ने मुसलमानों को पिछड़ेपन के दलदल में धकेल दिया है, तो वहीं दूसरी तरफ़, शाह बानो और अयोध्या की राजनीति ने, मुसलमानों को काफ़ी नुक़्सान पहुंचाया है। वे यह भी कहते हैं कि बहुसंख्यकवाद के प्रभुत्व ने मुसलमानों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया है, और इसके बजाय, मुस्लिम पुरुषों ने महिलाओं को अपने अधीनस्थ रखने की राजनीति की और मनोवैज्ञानिक तौर पर, महिलाओं को अपने अधीनस्थ करने की ख़ुशी से ख़ुद को संतुष्ट किया है। उन्होंने सैयद शहाबुद्दीन (1935-2017) की राजनीति के ख़िलाफ़ भी जमकर लिखा है।

मुस्लिम यूनिवर्सिटी कोर्ट और मुस्लिम अभिजात वर्ग की राजनीति पर उनकी आलोचना बहुत आक्रामक है। उनका मानना है कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी कोर्ट की मीटिंग में बैठकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम अभिजात वर्ग, मनोवैज्ञानिक रूप से, ख़ुद को मुग़ल सामंत होने का भ्रम महसूस करते हैं। उनका मानना है कि उनमें से ज़्यादातर लीडर, डीलर यानि दलाल हैं। जायदाद और पेंशन भोगियों के संबंध में भी अनिल की क़लम तेज़ाब उगलती है। यह अभिजात वर्ग अपने वर्ग हितों को, पूरी क़ौम के सामूहिक हित के रूप में प्रस्तुत करने की राजनीति करते रहे हैं और अब भी कर रहे हैं। अर्थात् एक छोटे से विशिष्ट समूह के हित को, अल्पसंख्यक अधिकारों की लड़ाई का नाम दे देते हैं। साथ ही वह मुसलमानों के उत्पीड़न की राजनीति (विक्टिम-हुड) को भी उजागर करते दिखते हैं।

तो क्या अनिल उस राजनीति का समर्थन कर रहे हैं जिसे करीम छागला और हमीद दिलवई जैसे लोग बढ़ावा दे रहे थे? भारत के दक्षिणपंथी मोर्चे के इस्लामी शासन के हामियों के प्रति अनिल की क्या राय है?

इन विषयों पर पर, मुशीरुल हक़, (1933-1990), कुंवर मुहम्मद अशरफ़ (1903–1962) मुहम्मद शफ़ी अगवानी (मृत्यु–2018), आदि ने काफ़ी कुछ लिखा है। लेकिन अनिल की इस किताब में उपरोक्त बुद्धिजीवियों की रचनाओं से भरपूर फ़ायदा और आलोचनात्मक अवलोकन नहीं दिखता है।

अनिल ने जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के वैचारिक और व्यवहारिक उतार-चढ़ाव का आलोचनात्मक विश्लेषण अपनी किताब के एक अध्याय में किया है और उन्हें ‘लगभग उदारवादी’ (Almost Liberal) बताया है। इस अध्याय का शीर्षक भी उन्होंने यही रखा है। उनकी राजनीति को Anti-Politics और Theo-Democracy का नाम दिया है। और इसके लिए भी अनिल नेहरू को दोषी मानते हैं। कहते हैं कि नेहरू ने ही उन्हें लगभग उदारवादी बना डाला।

मुसलमानों की अन्य वैचारिक राजनीति के संबंध में, वे यह भी शिकायत करते हैं कि नेताओं ने अपने हित को प्राथमिकता दी है, और मुसलमानों ने सरकार की नीतियों पर परिलक्षित होने वाली राजनीति से बचने की कोशिश की है और संगठनात्मक और सदस्यात्मक प्रक्रिया को नज़र-अंदाज़ किया है।

कुल मिलाकर, प्रतिनव अनिल की यह ताज़ा मोटी किताब अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद, चिंतन और विमर्श के लिए आमंत्रित करती है, और इस प्रकार, इस विशेष विषय पर यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। अनिल ने अपनी इस किताब का अंत एक उम्मीद भरे नोट पर किया है। उनकी उम्मीद मुसलमानों की इसी संवैधानिक राजनीति से जुड़ी है, जिसका प्रदर्शन उन्होंने, नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़, अपने संघर्ष (2019-2020) में किया था।

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