न्यूरो डाईवर्जेंट छात्रों की शैक्षणिक दशा को सुधारने के लिए नीति में आवश्यक बदलाव की ज़रूरत

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क्या आप औसत दर्जे के छात्र हैं? क्या आपने टॉपर छात्र के प्रदर्शन के अनुकरण का दबाव झेला है? क्या अभिभावक एवं शिक्षकों के द्वारा किसी औसत दर्जे के छात्र की तुलना किसी मेधावी छात्र से करना सही है? क्या हमारी स्कूल व्यवस्था में अंकों या ग्रेडों से बच्चों का सर्वांगीण आंकलन उचित है? क्या आपने अपने अथक प्रयास के बावजूद कम अंक लाने पर उत्पीड़न झेला है?

जैसा कि समाज में छात्र, परीक्षा, आंकलन, अकादमिक प्रगति आदि के संदर्भ में एक विशेष अवधारणा चली आ रही है। इस अवधारणा ने छात्रों में सीखने के तरीक़ों को प्रभावित किया है। ऐसी अवधारणा हमे सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते बल्कि सीखने के लिए ग्रसित या अन्य मानसिक विलक्षण से कुप्रभावित कर रहे हैं। इसे वैज्ञानिक शब्दकोश में न्यूरो डाईवर्जेंस कहा जाता है। इस अधिगम संबधी अक्षमता के कारण लाखों छात्र समाज के हाशिये पर है।

न्यूरो डाईवर्जेंस हर मनुष्य में विभिन्न स्तर पर पाए जाते हैं। कुछ लोग जल्द सीखते हैं तो कुछ विलंब से, कुछ सुखद अनुभव से सीखते हैं, तो कुछ का अनुभव दुःखद होता है। बाल विकास मनोवैज्ञानिक का मानना है कि दुःखद अनुभव से बच्चों में डर, क्रोध जैसी विकृति जन्म लेती है, जो सीखने की प्रक्रिया या अन्वेषण की प्रक्रिया में रुकावट उत्पन्न करते है। परिणामस्वरूप सीखने की प्रवृत्ति और क्षमता दोनों प्रभावित होते हैं, इसे ही न्यूरो डाईवर्जेंस कहा जाता है।
न्यूरो डाईवर्जेंस से ग्रसित बच्चों में अधिगम संबधी विशिष्ट अक्षमता पाई जाती है, जिसे लर्निंग डिसऑर्डर कहा जाता है। ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम (स्वलीनता), डिस्लेक्सिया, डिसकैल्कुलिया, डीसग्राफिया आदि लर्निंग डिसॉर्डर हैं। इन विकृतियों से ग्रस्त बच्चे दिखने में तो आम बच्चों की तरह ही होते हैं। इन विकृतियों की पहचान आसान नहीं है। उम्र के प्रारंभिक पड़ाव में जब बच्चा स्कूल जाने लगता है, तभी इन विकृतियों की पहचान हो पाती है। छात्रों में पाई जाने वाली अधिगम क्षमताओं के संबंध में किये गए अध्ययन से पता चलता है कि भारत में 10-15 प्रतिशत छात्र अधिगम अक्षमताओं से ग्रसित हैं। ऐसे बच्चों में तनाव की स्थिति स्वाभाविक है।

कारण
हमारी शिक्षा व्यवस्था ने ऐसे छात्रों की चिंताएं बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, आज भी बच्चों को पढ़ाने के लिए पुराने शिक्षा शास्त्र की ही सहायता ली जाती है। हमारे विद्यालय में दक्ष शिक्षकों की कमी ने भी शैक्षणिक ढांचे को कमजोर किया है। आज छात्र और शिक्षक के बीच जो संबंध है, वह इससे अधिक कुछ नहीं कि शिक्षक कक्षा कक्ष में उबाऊ लेक्चर देकर अपनी जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। उन्हें पर्याप्त संसाधन भी नहीं मिल पा रहे ताकि छात्र शिक्षक के बीच बढ़ती दूरी को कम कर सकें।
जैसा कि समाज में शिक्षा के संदर्भ में प्रचलित अवधारणा है, कि जो बच्चे स्कूल में अकादमिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करते हैं, उन्हें मेधावी छात्र माना जाता है, जबकि अंको के लिए संघर्षरत छात्र को औसत या निम्न दर्जे का छात्र समझा जाता है। उच्च अंक लाने वाले छात्र को मेघावी तेजतर्रार छात्र की संज्ञा दी जाती है, जबकि कम अंक लाने लाने वाले छात्रों को मंद-बुद्धि व आलसी छात्र जैसे उपनाम दिए जाते हैं। बच्चों के शारीरिक व मानसिक क्षमता को नजरअंदाज करते हुए उनके शैक्षणिक क्रियाकलापों का आकलन बेमानी है।

शैक्षणिक ढांचे के अलावा बच्चों का सामाजिक व आर्थिक स्थिति ने भी इस समस्या को बढ़ाया है। मेघावी छात्रों को पढ़ाने के लिए ना तो विभिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं की कमी है और ना ही टॉप क्लास शैक्षणिक संस्थान की कमी है, परंतु लर्निंग डिसऑर्डर से ग्रस्त बच्चे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बाट जोह रहे हैं। ऐसे बच्चे जब अपने अंकपत्र व अधिकारियों के साथ उच्च शिक्षण संस्थान पहुंचते हैं, तो बेहतर प्रदर्शन का दबाव और अधिक बढ़ जाता है। सामाजिक थानों की तलवार सदैव उनके गर्दन पर लटकी रहती है, इस तनाव का अंत छात्र के आत्महत्या पर आकर खत्म होती है।
दुर्भाग्य बस हमारा देश न सिर्फ अकादमिक ड्रॉप आउट रेट बल्कि छात्रों के आत्महत्या के भी मामलों में निरंतर आगे बढ़ रहा है, नई शिक्षा नीति भी शिक्षा व्यवस्था के इन दोषों को दुरुस्त करने में असमर्थ प्रतीत हो रहा है। नई शिक्षानीति में ना तो न्यूरो डायवर्जन बच्चों की जरूरत का ख्याल रखा गया है और ना ही परीक्षा और अंकों के दबाव संबंधी गंभीर समस्याओं का निराकरण किया गया है। शिक्षाविदों ने भी नई शिक्षा नीति के कुछ पहलुओं की बड़ी आलोचना की है।

शिक्षा का वैकल्पिक माध्यम:
इवान इलिच अपनी पुस्तक “Deschooling Society” में लिखते हैं कि ” स्कूली शिक्षा के माध्यम से सर्व भौमिक शिक्षा संभव नहीं है” यदि वर्तमान विद्यालयों की शैली पर निर्मित वैकल्पिक संस्थानों के माध्यम से इसका प्रयास किया जाता तो यह और अधिक संभव नहीं होता शिक्षकों का ना तो अपने छात्रों के प्रति कोई नया दृष्टिकोण है ना ही शैक्षिक तकनीकों के प्रसार हेतु कोई रूपरेखा और ना ही अध्ययन अध्यापन की जिम्मेदारी को तब तक विस्तारित करने का प्रयास जब तक की शिक्षा उनके जीवनकाल में ना समा जाए। नए शैक्षिक परिदृश्य की वर्तमान खोज को उनके संस्थागत व्युत्क्रम की खोज में उलट दिया जाना चाहिए शैक्षणिक भाषाओं को इस प्रकार विकसित किया जाना चाहिए जो सीखने साधा करने और देखभाल करने के अवसर को बढ़ाते हैं।

इस विचार का उद्देश्य शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली विकसित करना है जो किसी व्यक्ति की शारीरिक मानसिक व भावनात्मक क्षमताओं के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण कर सकें। यह विचार काफी कलम किताब से इतर शिक्षार्थी केंद्रित गतिविधियों के व्यापक प्रयोग पर जोर देता है, इस तरह की गतिविधियां ना सिर्फ न्यूरो डायवर्जेंट छात्र बल्कि विशेष आवश्यकता वाले बच्चे वह दिव्यांग बच्चों के लिए भी अनुकूल है।ऐसी प्रणाली बच्चों और युवाओं के समग्र मानसिक विकास के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

फिनलैंड समग्र शिक्षा प्रणाली का सबसे उद्धृत उदाहरण है जहां बच्चों को शिक्षा बिना भारी बस्ते के बोझ के दी जाती है यहां की शिक्षा प्रणाली अकादमी के दबाव से मुक्त सीखने के माहौल पर जोर देती है फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की इस अवधारणा ने किस देश को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी देशों की कतार में प्रथम स्थान पर ला खड़ा किया है, जबकि ठीक इसके विपरीत हमारे देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली जीवन के भौतिक पहलुओं पर अत्यधिक केंद्रित है उच्च अंक लाना प्रतिष्ठित संस्थानों में अध्ययन उच्च आय वाली नौकरियों को हासिल करना हमारी प्राथमिकता होती है, जबकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य तो अपने सृजनकर्ता की पहचान करना अपने पालनहार की बातों का अनुसरण करना है।

हमारे बच्चे एक बेहतर भविष्य के हकदार हैं और यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके भविष्य के सबसे महत्वपूर्ण घटक उनकी शिक्षा को बेहतर बनाएं।

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