चुनौती सिर्फ बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण नही है!

दिन के उजाले में डंके की चोट पर,सरकार प्रशासन पक्ष विपक्ष सब असहाय नज़र आ रहे थे और बाबरी मस्जिद को शहीद कर दिया गया।

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1968

6 दिसम्बर 1992, मुल्क भारत के इतिहास की एक बड़ी आतंकी घटना, जब भारतीय लोकतंत्र का सरेआम चीरहरण किया गया, घटना की कहानी बयां करती है की सरकार की इच्छा पर निर्भर था गर चाहती तो हालात काबू में किए जा सकते थे लेकिन सब बहुत आसानी से होता चला गया।

मैं इस घटना को 26/11 के आतंकी हमले से ज़्यादा खतरनाक महसूस करता हूँ क्योंकि दोनों का फर्क ये है की एक रात के अंधेरे में छिप कर किया जा रहा था और दूसरा दिन के उजाले में डंके की चोट पर,सरकार प्रशासन पक्ष विपक्ष सब असहाय नज़र आ रहे थे और बाबरी मस्जिद को शहीद कर दिया गया।

शहादत की कहानी से ज़्यादा गम्भीर 1992 के बाद से बाबरी मस्जीद के प्रति जनता ओर सरकार का धीरे धीरे बदलता रहा रवय्या जिस तेज़ी से परिवर्तित होकर आज एक रूप ले चुका है वो बहुत अफसोसनाक है।

घटना के बाद बनावटी खेद व्यक्त किए जा रहे थे,मुसलमानों से सरकार माफी मांग रही थी वादे किए जा रहे थे। कहते हैं नरसिम्हा राव ने तो मस्जिद फिरसे बनाकर देने का वादा तक किया था।

लेकिन आज स्थिति क्या है ? मुसलमान आज बाबरी मस्जिद का शहादत दिवस मनाने तक से डर महसूस क्यूं कर रहा है? भाजपा प्रवक्ता टीवी डिबेट्स के दौरान बाबरी मस्जिद को मस्जिद नहीं सुनना चाहते ? शौर्य दिवस की उपज चन्द लोगों से शुरू होकर त्योहार सरी रूप ले चुका है। मन्दिर वहीं बनाएंगे के जुमलों के ज़रिए धमकाया डराया जाने लगा है। इंसाफ की डोर इस हद तक कमज़ोर हो गयी है की अब तो बाबरी मस्जिद की शहादत पर 26 साल तक रोना रोने वाले खुद मुसलमानों के तथाकथित रहनुमा जिन्होंने मुद्दे को सिर्फ जज़्बाती चोला पहनाने के अलावा कुछ नही किया वो लोग भी मस्जिद की जगह पर होस्पिटल ओर स्कूल कॉलेज खोलने की बात करते हैं।

याद रखिए हमारे लिए चुनोती सिर्फ बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण नही है बल्कि लोकतंत्र की हत्या का जश्न ओर मस्जिद को मस्जिद ना कहकर ढांचे में परिवर्तित की गई सोच और स्कूल हॉस्पिटल पर सहमती के दबाव से लड़ाई भी हमारे लिए चुनोती है।

बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण की सदा कहीं पीछे छूट गयी और आज चर्चा का विषय राम मंदिर के निर्माण की तारीख ओर आगे बढ़कर किस सरकार में ये काम होगा इस पर की जा रही है। मुसलमान भगवान राम और हिंदुओं की आस्था की कदर करता है ओर ये सच्चाई है की हकीकत पसन्द समझदार हिन्दू भाई भी मुसलमान की आस्था से हमदर्दी रखता है। आखिर में बस आप सब पढ़ने वालों से एक सवाल किए जा रहा हूँ “1992 के बाद से इस मुद्दे ने किसे फायदा पहुंचाया ?” एक बार सोचकर देखिए। लगाइए दिमाग की तबसे आज तक किस राजनीतिक दल का ग्राफ राजनीति में चढ़ता रहा है?

ये हिन्दू मुसलमान की लड़ाई है ही नही,ये लड़ाई लोकतंत्र बनाम हिन्दू राष्ट्र का सपना संजोने वाली विचारधारा की है। बस हम तबसे आजतक यूज़ किए गए हैं। कबतक होना है हमारे हाथ में है। मिल जुल कर रहिए,खुशहाली का पौगाम बांटिए।

– अहमद कासिम

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