कुर्दों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, तुर्की और मध्य पूर्व का भविष्य !

अर्दगान की तुर्की की सरकार पर इस वक़्त सीरिया के शरणार्थियों का दबाव बहुत है और वह इसे संभाल नहीं पा रहे हैं जिससे उनके राजनीतिक का समीकरण लगातार बिगड़ता जा रहा है.

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(डॉ० उमैर अनस ने जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) से वेस्ट एशियन स्टडीज़ में रिसर्च किया है और मध्य पूर्व मामले की जानकार हैं. वर्तमान में तुर्की की Ankara Yildirim Beyazit University, Turkey में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)

डॉ० उमैर अनस

(प्रोफ़ेसर, अंकारा यिलिदिरिम युनिवर्सिटी, तुर्की)

 

तुर्की आबादी का इतिहास

पश्चिमी एशिया में कुर्द आबादी की समस्या बहुत पुरानी और बहुत बड़ी है. लेकिन इस समस्या का समाधान किसी के पास नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि 1920 के आसपास जब उस्मानी ख़िलाफत को खत्म किया गया उस ज़माने में अमेरिका और यूरोपीय ताकतें जिन्होंने उस्मानी खिलाफत पर कब्ज़ा कर रखा था, उस्मानी ख़िलाफत को तकरीबन 30 अलग-अलग मुल्कों में बांटा तो उस वक्त उन्होंने कुर्द आबादी की समस्या को नज़रअंदाज़ कर दिया. उस वक्त भी कुर्द आबादी की तरफ से एक अलग स्टेट बनाए जाने की मांग उठी थीलेकिन उसको पूरा नहीं किया गया.

 उस वक्त इराक़ एक अलग देश बनाया गयासीरिया एक अलग देश बनाया गयाफलस्तीन अलग देश बना और इस्राइल भी वजूद में आया.  इस तरह से कुर्दों की आबादी तकरीबन 4 देशों में बट गई. सबसे ज़्यादा आबादी आज करीब 15 मिलियन यानी डेढ़ करोड़ की आबादी तुर्की के अंदर हैतकरीबन 60 लाख की आबादी ईरान के अंदर है. इसी तरह इराक के अंदर भी बहुत बड़ी आबादी है और सीरिया के अंदर लगभग 20 लाख की आबादी है.

 प्रश्न. 1 – तुर्की, सीरिया, ईरान और ईराक़ में कुर्दिस्तान के लिए जंग की क्या स्थिति है?

उत्तर- जैसा कि मैंने बताया कि कुर्द एक बड़ा समाज है जो चार अलग-अलग देशों में बंटा हुआ है और वह कोई एक खास इलाके में रहने की बजाय पूरे इलाके में फैला हुआ है. तुर्की के अंदर भी कुर्द आबादी सिर्फ उसके दक्षिण के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सबसे ज्यादा इस्तांबुल में है जो तकरीबन 20 लाख है. इस तरह से उनकी आबादी पूरे देश में फैली हुई है.  तुर्की में कुर्द आबादी की समस्या वैसी नहीं है जैसी कि इराकईरान और सीरिया में रही है क्योंकि इराकईरान और सीरिया में ऐसी हुकूमतें रही हैं जिन्होंने कुर्द आबादी को उनके मौलिक अधिकार कभी नहीं दिए. खास तौर पर सद्दाम हुसैन के ज़माने में इराक की कुर्द आबादी पर बहुत अत्याचार किए गए और इसी तरह ईरान में भी कुर्द आबादी पर अत्याचार किए गए. लेकिन तुर्की में एक धर्मनिरपेक्ष सरकार होने की वजह से यहां के कुर्दों को ज़्यादा अधिकार मिले थे और ज़्यादा अच्छी तरह से उनके मौलिक अधिकार तुर्की के नागरिक होने के नाते उनको दिए जाते रहे हैं. लेकिन तुर्की राष्ट्रवाद के तहत कुर्द आबादी को कुर्दिश भाषा में टीवी चलाने की या उसके अनुसार स्कूल चलाने की इजाज़त नहीं थी.

 बाद में रजब तय्यब आर्दगान की पार्टी ए.के.पी ने वादा किया कि अगर वह सत्ता में आए तो वे कुर्दिश भाषा का एक सरकारी चैनल भी खोलेंगे और इस भाषा में स्कूल चलाने कि इजाज़त भी देंगे. 2002 में जब अर्दगान ने चुनाव जीता थाउस समय सबसे ज़्यादा वोट उन्हें कुर्दिश इलाकों से मिले थे और फिर उन्होंने वहां बहुत से नए प्रयास किए. इस प्रकार तुर्की में कुर्दों की समस्या अब सामाजिक या आर्थिक ना होकर केवल एक राजनीतिक समस्या के तौर पर रह गई है कि उनको मुख्य धारा में कैसे लाया जाए.

 2013 के आसपास रजब तय्यब अर्दगान ने अपनी पार्टी और कुर्दों की तरफ से खुफिया तौर पर समस्या के समाधान के लिए बातचीत शुरू की जिसका ज्यादा बड़ा हिस्सा यूरोप में हुआ और उसके तहत बहुत सारे समस्याओं को हल करने की कोशिश की गई. 1974 में जब कुर्दों का एक संगठन पीकेके नाम से अब्दुल्ला ने बनाया था तो उस वक्त तुर्की के अंदर यह समस्या एक आतंकी संगठन का रूप लेने लगी. उस वक़्त अब्दुल्ला ओजगान के संगठन ने पूरे तुर्की में बहुत से आतंकवादी हमले किए. इसकी वजह से करीब 40000 लोग मारे गए और जिसके बाद अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने पीकेके को एक आतंकवादी संगठन के तौर पर मान लिया जिसके बाद पीकेके का यह संगठन और अब्दुल्लाह ओजगान भाग कर सीरिया चले गए और वहां उन्हें बशरुल असद के पिता ने पनाह दी. वहां रह कर के उन्होंने बहुत से संगठन बनाए. आज सीरिया में जो कुर्दों का संगठन बना हुआ है वो वही है जिसका प्रशिक्षण पूरी तरह से पीकेके और उनके नेता अब्दुल्ला ओजगान ने अपने ज़माने में की थी.

 प्रश्न. 2 – कुर्द ISIS के ख़िलाफ़ क्यों लड़ रहे हैं और  वो अमेरिका को जीत में कैसे मदद पहुंचा रहे हैं?

उत्तर – सीरिया के अंदर जितने भी कुर्द संगठन हैंउनके बड़े नेता पूर्वी पश्चिम में सत्ता चला रहे हैं उनमें से बहुत से वह हैं जो पीकेके, जो कि एक आतंकी संगठन है वहां से प्रशिक्षित हो कर गए हैं. वह अपने सभी प्रोग्रामों में, सभी जलसों में, सभी सभाओं में, अब्दुल्लाह ओजगान के और पीकेके के झंडे बड़ी शान से फहराते हैं.  इस बात को लेकर तुर्की की तरफ से अमेरिका को हमेशा शिकायत की गई थी कि आप जिन लोगों का साथ ले कर के वहां पर आईएसआईएस को हराना चाहते हैं वह आतंकी संगठन से जुड़े हुए लोग हैं. उस वक़्त ओबामा की सरकार थीजिससे रजब तय्यब अर्दगान की तुर्की की सरकार ने ये मांग की कि आप आईएसआईएस के खिलाफ जो संघर्ष करना चाहते हैं उसमें पीकेके समर्थित संगठनों के बजाए तुर्की फौज को अपने साथ शामिल करें.

 उस समय ओबामा ने तुर्की की फौज को अपने साथ शामिल करने से मना कर दिया और सिर्फ एक ही छोटे क्षेत्र में तुर्की फौज को ऑपरेशन करने की इजाज़त दीजिसको खोबानी कहा जाता है. उसके अलावा और किसी इलाके में उन्होंने इसकी इजाजत नहीं दी. ओबामा सरकार की यह मंशा थी कि वह कुर्दों की 20 लाख की जो आबादी है और उनका संगठन है उसको बड़ी मात्रा में हथियार वगैरह देकर इतना ताकतवर बना दें कि वह अपने आप में एक बड़े राज्य के तौर पर स्थापित हो जाए और उसे ना तो बशरुल असद की ज़रूरत पड़े और ना ही तुर्की कीताकि वह एक अलग देश के रूप में अपने आप को स्थापित कर ले.

 यह वही मॉडल था जो अमेरिका ने इराक में सद्दाम हुसैन को हटाने के बाद एक अलग कुर्दिस्तान बना करके एक स्वशासित इलाके के तौर पर विकसित किया था. 2 साल पहले जब इराक के  इस कुर्दिस्तान वाले हिस्से ने जब अपना एक अलग राज्य अलग देश बनाने के लिए रेफरेंडम किया था और रेफरेंडम को बड़ी मात्रा में वहां के लोगों ने वोट देकर समर्थन किया था तो उस वक्त तुर्कीईरानइराक और सीरिया सभी देश इस बात पर समर्थित हो गए थे कि इस तरह से किसी एक नए देश को बनाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. क्योंकि अगर वह इस तरह की इजाज़त देते हैं तो फिर वह कुर्द जो ईरानतुर्कीऔर  सीरिया में रहते हैंइन सभी को ले कर एक अलग देश बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगेगी और ये चारों देशों का स्थायित्व कमज़ोर हो जाएगा. इस वजह से चारों देशों में एक ये समझ बन गई कि वो ऐसा कुछ नहीं होने देंगे.

 इसके बाद इराक की फ़ौज ने कुर्दिस्तान के इलाके को घेर लिया और उन्होंने रेफरेंडम करने के बाद भी वहां पर फौजी कार्रवाई की और किरकुक नाम का जो उनका एक बड़ा राज्य है उसको अपने कब्जे में ले लिया और उसके बाद से फिर बातचीत के ज़रिए बहुत सारी समस्याएं हल की जा रही हैं. बाद में सबने कहा कि कुर्दिस्तान की तरफ से इस तरह का रेफरेंडम कराना बहुत जल्दबाज़ी थी और एक बड़ी गलती थी. पीकेकेजिसे खुद अमेरिका ने आतंकवादी संगठन घोषित किया था उसी के साथ मिल कर ओबामा एडमिनिस्ट्रेशन का आईएसआईएस के खिलाफ संघर्ष और इसमें तुर्की फौज को शामिल न करने की वजह से तुर्की और अमेरिका के बीच में एक अविश्वास की भावना लगातार गहरी होती चली गई और वह इतनी गहरी होती चली गई कि आखिरकार तुर्की ने इस बात की मांग शुरू कर दी थी कि अब वह जो उनके दक्षिण में जिस इलाके को एक कुर्दिश क्षेत्र के तौर पर विकसित किया जा रहा हैअगर वहां से तुर्की के ऊपर हमले होते हैं तो फिर तुर्की वहां पर उनके खिलाफ कार्रवाई करेगा.

 2016-17 के बीच बहुत सारी आतंकी घटनाएं हुईं जिसमें सैंकड़ों लोग मारे गए और इसमें से बहुत सारे आतंकी हमलों का आरोप पीवाईडी यानी पीकेके से जुड़े हुए सीरिया में बैठे आतंकी संगठनों के ऊपर लगाया गया. इस तरह से तुर्की ने ये मन बना लिया कि वहां पर एक फौजी कार्रवाई करके पीवाईडी और पीकेके समर्थित संगठनों को खत्म करेंगे. उन्होंने ओबामा सरकार से इस बात की मांग की कि वहां के संगठन को बदल करवहां के अरब आबादी के लोगों को शामिल करें. साथ ही पीकेके से जुड़े लोगों  को हटाकर ऐसे लोगो को शामिल करें जो इससे जुड़े नहीं है.

 लेकिन सिवाय नाम बदलने के और कुछ वहां पर नहीं किया गया जिसकी वजह से तुर्की और अमेरिका के दरमियान अविश्वास  का माहौल पूरी तरह से बना रहा. पिछले 2 सालों से रजब तय्यब अर्दगान ने इस बात को कह रखा था कि वह उस इलाके में इस तरह का एक अलग देश बनने नहीं देंगें, इससे पहले कि वो इलाका अपने आप को देश घोषित करने की कोशिश करे. उन्होंने आस्ताना प्रोसेस में इस बात को दोहराया कि पूरा सीरिया एक राज्य के तौर पर ही खड़ा होना चाहिए और उसमें किसी भी तरह के किसी भी इलाके को एक अलग देश के तौर पर पनपने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए. खास तौर पर उनका इशारा इस तरफ था कि दक्षिण में जो कुर्दिश राज्य की स्थापना हो रही है वह किसी भी तरह से एक अलग देश के तौर पर अपने आप को स्थापित ना करने पाए. हालांकि अमेरिका ने उनको बहुत  आश्वासन दिया कि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं हैलेकिन पीकेके से जुड़े संगठन हमेशा इस बात को इस तरह से कहते रहते थे जिससे यह शक हमेशा मज़बूत होता रहता था.

 तुर्की ने इस बात का ऐलान कर दिया कि अगर अमेरिका उनका साथ नहीं देगा तब भी वे वहां पर कार्रवाई ज़रूर करेंगे. इस बीच अमेरिका और तुर्की के बीच में बहुत सारे दौर की जो बातचीत हुई है उसमें यह तय पाया कि अमेरिका तुर्की के साथ ज्वाइंट पेट्रोल करेगा. वहां तुर्की की फौज को ले जाएगा और उनको दिखाएगा कि वहां के जो कुर्दिश संगठन के लोग हैं वो तुर्की के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेंगे और तुर्की को ये आश्वासन दिया जाएगा कि वहां के संगठन के द्वारा तुर्की की सुरक्षा को निशाना बनाने वाला कोई काम वहां से नहीं किया जाएगा.

 फिर इसके बाद यह भी दोनों देशों के बीच में तय हुआ कि एक सेफ ज़ोन कॉरिडोर बनेगा ( तुर्की के बॉर्डर के नीचे एक 30 किलोमीटर और पूरे तकरीबन 150 किलोमीटर की लंबाई और 30 किलोमीटर की गहराई में एक सफे ज़ोन) जिसमें से पीकेके से जुड़े हुए जितने भी लड़ाके हैं उनको हटा दिया जाएगा. उसमें सिर्फ अमेरिकी और तुर्किश फौजियों को ही रखा जाएगा या फिर सीरिया के अरब आबादी के फौजियों को रखा जाएगा लेकिन पीकेके से संबंधित लड़ाकों को वहां रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

 यह समझौता भी अमेरिका और तुर्की के बीच में हो गया लेकिन एक साल होने के बाद भी इस समझौते को अमल में नहीं लाया गया. पिछले साल अप्रैल (2018) में ट्रंप ने इस बात का ऐलान किया कि वह इस तरह का सेफ ज़ोन बनाने जा रहे हैं और वहां से अमेरिका की फौज को हटा भी लेंगे लेकिन इसके बावजूद भी उस पर अमल नहीं किया गया.

 इसमें जो सबसे खराब बात है वह यह कि अमेरिका और अमेरिका के अंदर एडमिनिस्ट्रेशन पूरी तरह से संगठित था और एक राय थी कि किसी भी तरह से तुर्की की मदद नहीं की जाएगी लेकिन ट्रंप सरकार  में बहुत ज़्यादा मतभेद थे. इसकी वजह से ट्रंप और अर्दगान के बीच में जो समझौता हुआ वह कभी भी लागू नहीं किया जा सका. इसकी वजह से अर्दगान का गुस्सा बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ था और वह लगातार इस बात की धमकी देते रहे कि जो समझौता दोनों देशों के बीच में हुआ है उसको कब पूरा किया जाएगाइसके बाद तुर्की ने अभी हाल के दिनों में यह फैसला लिया कि अगर अमेरिका उनका साथ देगा तब भी ठीक है और अगर नहीं देगा तो तुर्की और अमेरिका के बीच हुवे समझौते को तुर्की कि फौज अकेले ही जा के लागू कर लेगी.

 तुर्की ने यह भी कहा कि जो तुर्की के अंदर 40 लाख के करीब सीरिया की आबादी रह रही है उसमें से बहुत सारे लोगों को जो वहां जाना चाहते हैं उनको वहां बसाया जाएगाउनके लिए घरकॉलोनियां और स्कूल बनाए जाएंगे और उनके रहने की आसानी की जाएगी.

अर्दगान की तुर्की की सरकार पर इस वक़्त सीरिया के शरणार्थियों का दबाव बहुत है और वह इसे संभाल नहीं पा रहे हैं जिससे उनके राजनीतिक का समीकरण लगातार बिगड़ता जा रहा है. पिछले दिनों वो इस्तांबुलअंकाराइज्मीर का महानगरपालिका के चुनाव बुरी तरह से हार गए हैं. इसका मुख्य कारण माना जाता है कि जो सीरिया के शरणार्थी बहुत बड़ी तादाद में बड़े-बड़े शहरों में रह रहे हैं उनकी वजह से लोकल लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा है. जिससे वहां की अर्थव्यवस्था पर भी दबाव पड़ रहा है. वो कोशिश कर रही है कि वह जल्द से जल्द सीरिया की समस्या का समाधान भी करें और जो रिफ्यूजी तुर्की  के अंदर रह रहे हैं उनको वापस उनके देश में भेजने के लिए माहौल बनाया जाए. इसलिए तुर्की के ऊपर यह बहुत दबाव है कि वह सेफ ज़ोन बना कर वहां शरणार्थियों को बसाए. इसके लिए लोगों को उनके घरों के नक्शे बना कर के मीडिया में उसे दिखाए थे.

प्रश्न. 3 – अमेरिका के सीरिया से वापस जाने के बाद वहां की क्या स्थिति होगी?

उत्तर – कुर्दिश संगठनों और अमेरिका के बीच में जिस तरह का समझौता हुआ है वह खुद अपने आप में बहुत अजीब है. यह सबको पता है कि पीकेके का जो आतंकी संगठन है जिसको अमेरिका और यूरोप आतंकी संगठन मानता है वह एक मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वाला संगठन है और अमेरिका एक ऐसा देश है जो हमेशा मार्क्सवाद के खिलाफ लड़ाई करता रहा है. लेकिन इस खास मामले में एक मार्क्सवादी संगठन और अमेरिका के बीच में गठजोड़ हुआ है और वह एक दूसरे का साथ दे रहे हैं. यह बात सही है कि उनको जिस तरह के हथियारप्रशिक्षण और पैसा दिया गया उसकी वजह से उन्होंने आईएसआईएस के खिलाफ अच्छी भागीदारी निभाई और मज़बूती के साथ लड़ कर आईएसआईएस को हराया.

 लेकिन इसका दूसरा असर यह भी हुआ है कि पीकेके से जुड़े संगठनों ने सीरिया में बशारुल असद के खिलाफ जब आन्दोलन खड़ा किया तो उस पूरे आंदोलन में अरब और कुर्दिश लोगों का साथ टूट गया और उन्होंने इस आंदोलन में ध्यान ना देकर अपना एक अलग देश स्थापित करने की तरफ ज्यादा ध्यान दे दिया. कुर्दिश लोगों का बाशारूल असद के खिलाफ चल रहे आंदोलन का साथ छोड़ देने की वजह से बाशरूल असद के खिलाफ पूरा माहौल खत्म हो गया. उसका दूसरा नुकसान यह भी हुआ कि जो जिहादी संगठन थे और अलकायदा से जुड़े हुए लोग थे जिनको सऊदी अरबकतर और दूसरे खाड़ी के देशों से बहुत ही सहायता मिल रही थीवो बहुत आगे बढ़ गए और उनके संगठनों ने बशारुल असद के खिलाफ चल रहे पूरे आंदोलन के नेतृत्व को अपने कब्जे में ले लिया. ये आन्दोलन लोकतांत्रिक अधिकारों वाला आंदोलन से हट कर के एक जिहादी और आतंकी ग्रुपों के द्वारा चलने वाले एक आंदोलन के रूप में बदलता चला गया जिसका नुकसान वहां के लोगों को भी हुआ और पूरे आंदोलन को भी हुआ. बशरूल असद को यह कहने का मौका मिल गया है कि यह एक सही आंदोलन नहीं था. अगर कुर्दिश आबादी और उसके संगठन साथ जुड़े रहते तो शायद ऐसी नौबत ना आती.

 इसलिए तुर्की की तरफ से लगातार अमेरिका के ऊपर ये इल्ज़ाम लगाया जाता रहा है कि अमेरिका और यूरोप ने मिल कर के बशरुल असद के खिलाफ चल रहे आंदोलन को धोखा दिया उसको उन्होंने बीच रास्ते में छोड़ दिया.

 अमेरिका और यूरोपीय देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि पीकेके समर्थित संगठन के साथ उन्होंने जो समझौता किया है उसको कानूनी तौर पर कोई मान्यता हासिल नहीं है. उनकी अपने देश में, अमेरिका की कांग्रेस में, यूरोपियन यूनियन में और दूसरे देशों में इस तरह के समझौते को अभी कानूनी तौर पर मान्यता नहीं मिली है. ये संगठन वह हैं जिनको दोनों देशों में दोनों जगह पर एक आतंकी संगठन के रूप में माना जाता है और सभी को  ये अच्छी तरह से मालूम है कि उसमें बड़ी तादाद में वह आतंकी संगठन है जिनको पीकेके ने यहां तैयार करके भेजा है और वहां जाकर काम कर रहे हैं. इसलिए उनके सामने सबसे बड़ा चैलेंज ये है कि वह इस कानूनी समस्या से कैसे निपटें.

 इसके बाद दूसरा मामला यह है कि खुद आस्ताना शांति समझौते के जरिए जो अमल जारी रहा है उसमें  दस्तूर बनाने की जो कमेटी बन गई है उन सभी में अमेरिका का रोल और यूरोपीय यूनियन का रोल पीछे हो गया है और उसमें ईरान तुर्की और रूस का  रोल नेतृत्व में आ गया है.  ऐसे में जो उनके समर्थित पीकेके से जुड़े हुए  संगठनों का रोल पीछे हो गया हैवह कमजोर पड़ गए हैं. अगर वह अपने आप को एक अलग राज्य घोषित करने की ज़िद करते हैं तो उनके एक तरफ से बशरुल असद की सरकार है दूसरी तरफ से इराक़ कीतीसरी तरफ से ईरान कीचौथी तरफ से ख़ुद तुर्की की सरकार है. अगर इन सभी लोगों ने यह कहा कि वह इस तरह के देश को नहीं पनपने देंगे तो फिर अमेरिका के सामने सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं होगा कि वह इसको छोड़ कर चला जाए क्योंकि कानूनी तौर पर उनको इस बात की इजाज़त नहीं होगी कि वह एक ऐसे संगठन के साथ मिलकर खड़े हो जिन्हें खुद उनके देश और यूरोपिय यूनियन में आतंकी घोषित किया गया हो. इस तरह के किसी भी समझौते को लेकर के बहुत दिनों तक चलना संभव नहीं था. इसी का फायदा तुर्की के राष्ट्रपति रजब तय्यब अर्दगान ने भी उठाया है और वह दबाव बनाने में कामयाब हुए हैं.

 प्रश्न. 4 – सीरिया और उसके कुर्द इलाके में तुर्की की भविष्य में क्या रण नीति होगी?

उत्तर- इसमें कोई शक नहीं है कि तुर्की वहां पर एक फ़ौजी करवाई कर सेफ ज़ोन जरूर बनाएगा. तुर्की की फौज नाटो की दूसरे नंबर पर सबसे बड़ी और मज़बूत फौज है और वह बहुत ही प्रशिक्षित है. इससे पहले जब साइप्रस के मुद्दे को लेकर अमेरिका और तुर्की के बीच में बहुत ही ज्यादा मतभेद हो गए थे तो तुर्की ने अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को किनारे लगाकर अपनी फ़ौजे साइप्रस में भेज दी थी. तुर्की की फौज  बहुत ही राष्ट्रवादी है और राष्ट्रवाद का माहौल यहां पर बहुत ही गर्म रहता है. अभी भी जिस तरह से अमेरिका ने बहुत सारी धमकियां उनको दी हैं उसके बाद तुर्की की सारी पार्टियां एक मंच पर आ गई हैं और उन्होंने अमेरिका के खिलाफ बयानबाज़ी की हैं. उन्होंने कहा है कि वो सीरिया में जा कर इस तरह का सेफ ज़ोन जरूर बनाएंगे.

 रजब तय्यब अर्दगान के पीछे एक पूरा राष्ट्र और सारी पार्टियां खड़ी हो गई हैं तो अब ऐसा लगता है कि वो सेफ ज़ोन बनाने के लिए फौजी कार्रवाई जरूर करेंगे. इसमें अमेरिका ने कह दिया है कि ना तो वह पीकेके की तरफ से खड़ा होगा और न ही तुर्की की तरफ से. उसने ये भी कह दिया है कि ये तुर्की की ज़िम्मेदारी है कि वह आईंएसआईएस के कैदियों को अपनी जेलों में रखे या अपनी निगरानी में रखे.

प्रश्न. 5 – क्या इसकी भी सम्भावना है कि तुर्की जॉइंट ऑपरेशन करे?

तुर्की की भी मंशा है (मुझे ऐसा लगता है) कि वह फौरन पूरे इलाक़े में जाने के बजाय धीरे-धीरे जाएंगे. पहले वह सिर्फ एक छोटे से इलाक़े मेंजिस पर पहले समझौता हुआ थाजो तकरीबन 30 किलोमीटर और 70 किलोमीटर की लंबाई तक का हैवहां जाएंगे और अपने आप को मज़बूत करेंगे और फिर धीरे-धीरे वह पूरे इलाके तक जाएंगे. ऐसा महसूस होता है कि उनको वहां पर जाने से कोई रोक नहीं पायेगा क्योंकि ईरान, सीरिया और रूस भी यही चाहते हैं कि किसी भी तरह से तुर्की ये ऑपरेशन कर ले क्योंकि इस वक्त इरानसीरिया और रूस के सामने यह है कि वह सीरिया को एक राज्य के रूप में देखना चाहते हैं. अमेरिका जब तक वहां पर था तो इस बात का डर बना हुआ था कि वह कहीं कुर्दिश संगठनों को लेकर के उसको एक अलग देश बनाने की घोषणा ना कर दें. अगर अमेरिका की फ़ौज वहां से हट जाती है और तुर्की कि फ़ौज वहां पर आ जाती है तो इन देशों के सामने यह समस्या नहीं होगी कि वह सीरिया को एक देश कैसे बनाएं.

इसके जवाब में पीकेके से जुड़े हुवे संगठन जो सीरिया में थेअमेरिका ने उनका साथ छोड़ दिया है तो अब उनके सामने एक ही चारा बचता है कि वह तुर्की से बातचीत करके कोई रास्ता निकाल लें या दूसरा यह है कि वह लड़ाई करें या तीसरा रास्ता यह है कि वह सीरिया की बशरुल असद की सरकार से कोई सहायता लें. अगर वो सीरिया कि सरकार से कोई सहायता लेते हैं जिस बात कि संभावना (मुझे) बहुत कम लगती है कि सीरिया की सरकार सीधे आकर तुर्की की फौज से लडाई करेगी. उसके 2 कारण हैं, पहला कारण यह है कि खुद सीरिया की सरकार ये चाहती है कि आस्ताना का जो समझौता  चल रहा है वह निपट जाए और उसमें कोई रुकावट ना आने पाए. अगर ऐसा कोई फौजी टकराव होता है तो इससे समझौते में गड़बड़ी हो सकती है.

दूसरी सबसे बड़ी रुकावट है कि जब हाफिज अल असद सीरिया के राष्ट्रपति हुआ करते थेउस वक़्त तुर्की की सरकार और हाफिज अल असद के बीच समझौता हुआ था उसके अनुसार ये तय हुआ था कि सीरिया अपनी सरहद के इलाके में किसी भी तरह से पीकेके समर्थित संगठनों को जगह नहीं देगा. ऐसी जगह उन्होंने उनको दी तो तुर्की को इस बात का अधिकार होगा कि वह सीरिया में घुसकर के उन संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करे.

 इस समझौते को अदाना समझौते के नाम से जाना जाता है और इसी के अनुसार तुर्की ने पहले भी कई बार करवाई की है और इसी समझौते के अनुसार तुर्की ने विगत दिनों दूसरी जगहों पर ऑपरेशन किए हैं और उसी समझौते के अनुसार ये भी ऑपरेशन होने जा रहा है.

 कानूनी तौर पर बाशारुल असद  सरकार के सामने तुर्की की फौज से टकराने का कोई रास्ता बचा नहीं है और ईरान, सीरिया और रूस भी उनको ऐसा करने से रोकेंगे क्योंकि इसका एक फायदा यह है कि अगर वह सीरिया की सरकार से मदद लेने के लिए जाते भी हैं तो पीकेके के समर्थकों से तो उसमें समझौता करने का चांस ज्यादा है और आखिरकार वो कोई ऐसा बीच का रास्ता निकाल लेंगे कि तुर्की और बशारूल असद के बीच और इन संगठनों में कोई समझौता हो जाए और वह फिर से वहां कोई रास्ता निकल आए. इन दोनों हालातों में पीकेके समर्थित संगठन का वर्चस्व की कगार पर नजर आ रहा है. एक और विकल्प ये हो सकता है कि इराक़ में जो उनके दूसरे कुर्दिश फौजी हैं उन्हें बुला कर मदद लेने की कोशिश करेंक्योंकि इराक़ और तुर्की के कुर्दिश फौजियों के बीच बहुत अच्छे संबंध हैं. पीकेके से उनका संबंध नहीं है और वो खुद को अलग रखते हैं. इस वजह से इस बात की संभावना बहुत कम है कि वह इस में कार्रवाई करने के लिए अपने फौजियों को यहां पर भेजेंगे

 प्रश्न. 6 – क्या कुर्दिश आबादी के लिए एक नए और अलग और राज्य की स्थापना की जा सकती है?

उत्तर – इस सवाल का जवाब इससे बड़ा मुश्किल है क्योंकि यह एक ऐसी बात होगी जिससे सिर्फ तुर्की ही नहीं बल्कि सीरियाइराक और ईरान जैसे चार बड़े राज्य प्रभावित होने जा रहे हैं. और ये चारों राज्य अच्छे खासे बड़े हैं और मजबूत हैं. ऐसा लगता नहीं है कि अमेरिका और यूरोपीय यूनियन एसा कुछ बड़ा करेंगे जिसकी वजह से वो इन चारों राज्यों को एक साथ मजबूर कर सकें. और अगर वो ऐसा करते हैं तो फिर चारों राज्यों की सेनाएं जमा हो जाएंगी और यूरोप और अमेरिका की ऐसी किसी भी योजना को फ़ेल कर देंगे.

 इसलिए एसा लगता है कि अमेरिकी और यूरोप ऐसे किसी क़दम से अपने आप को पीछे रखेंगे. वो इस बात के लिए जरूर दबाव बनाएंगे कि इन सभी देशों के अंदर जो कुर्दिश आबादी रह रही है उनके लिए ऐसे समझौते निकल आएं जिस समझौते के अनुसार जैसे ही रात में कुर्दिस्तान का एक एक ऐसा स्वायत्त राज्य उभर आय जिसमें उनको बहुत ज्यादा अधिकार प्राप्त हैंतो उस तरह का कोई इलाका सीरिया में भी बन जाएउसी तरह का कुछ समझौता ईरान में भी हो जाए और उसी तरह का कुछ इलाका तुर्की में भी हो जाए.

 तुर्की के अन्दर जो सरकार है उसमे ये समझदारी पाई जाती है कि वो राजनीतिक वार्तालाभ के द्वारा कुर्दिश लोगों की समस्या का समाधान निकाल सकती है. 2013 और 2015 में ऐसी कोशिश हुई थी मगर अरब क्रांति के समय पीकेके को ऐसा लगा कि बशर के खिलाफ लड़ रहे हैं तो उन्होंने बात चीत का रास्ता छोड़ कर अलग राज्य बनाने के उद्देश्य से अमेरिका से सहायतार लेकर राज्य हथियाने में कामयाब हो गए. इस प्रकार जो राजनीतिक वार्तालाभ हो रही थी उसपर विराम लग गया. साथ ही जो कुर्दिश संगठन हैं उनपर ये आरोप लग गया कि वह कुर्दिश आतंकी संगठन का समर्थन करते हैं. भविष्य में इस बात को नकारा नहीं जा सकता की तुर्की को वार्तालाभ की प्रक्रिया शुरू करनी होगी. पिछले दिनों अब्दुल्लाह ओजलान जो तुर्की की जेल में बंद हैं, उनसे बात करने के लिए तुर्की के एक प्रोफ़ेसर को भेजा गया था. उनका लेटर भी आया था और उन्होंने इस बात को साफ़ तौर पर कहा था कि वो तुर्की से किसी भी अलग राज्य बनाने के ख़िलाफ़ हैं. वो ये ज़रूर चाहते हैं कि तुर्की में रहते हुए उनके प्रभाव वाला राजनीतिक इलाका चाहते हैं.

 मुझे लगता है ऐसे किसी भी प्रयास के लिए तुर्की तैयार है और उसपर बात हो सकती है मगर अभी जब तक सीरिया में जंग जारी है इसकी सम्भावना नज़र नहीं आती है.

 अमेरिका किसी कुर्दिश राज्य के लिए आगे इसलिए नहीं आएगा क्योंकि पीकेके को अमेरिका ने और यूरोपीय यूनियन ने आतंकी संगठन घोषित किया हुआ है और तुर्की नाटो का मज़बूत सदस्य है और रशिया का उनको समर्थन हासिल है. अगर तुर्की को नाटो से हटा दिया जाता है तो पच्छिमी एशिया में सुरक्षा का एक नया संकट खड़ा हो जाएगा. क्योंकि तुर्की अब वो तुर्की नहीं है जो पहले जैसा होता था. तुर्की वर्तमान में फौजी और आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत मज़बूत है. ऐसे में यदि उसे नाटो से निकाला जाता है तो तुर्की रूस और चाईना के साथ मिलकर कोई नया ग्रुप बनाता है तो अमेरिका का असर ख़त्म हो जाएगा. लेकिन नाटो में तुर्की का रहना यूएन की भी ज़रूरत है, अमेरिका की भी ज़रूरत है और खुद तुर्की की भी ज़रूरत है.

 तुर्की को रशिया की तरफ़ जाने में कोई दिक्कत नहीं है अगर उसकी सुरक्षा को ध्यान में नहीं रखा गया. अगर अमेरिका ने मिसाईल मना कर दिया तो तुर्की रशिया से मिसाईल या दुसरे हथियार खरीदेगा इसलिए अमेरिका और यूएन तुर्की जो नाराज़ नहीं करेंगे और बड़ी समस्या को नज़रअंदाज़ कर के पीकेके का साथ नही देंगें जिनसे जुडा कई आतंकी संगठन चलता है.

 इसमें सबसे आखरी समस्या ये है की पीकेके द्वारा समर्थिक संगठन सीरिया में कब्ज़ा जमाए हैं, लेफ़्ट समर्थित हैं वो किसी दुसरे संगठन को जहग नहीं देंगें. वहां कोई लोकतान्त्रिक संगठन पनप नहीं सकता जैसा की कुर्दों में लोक्तान्त्रिल व्यवस्था होती है जैसा की ईराक़ में है. ऐसे में पीकेके कुर्दिश लोगों की अकेली नुमाइंदा संगठन नहीं मानी जा सकती. बहुत से इराकी कुर्दिश हैं जो पीकेके के साथ मिलकर नहीं रहना चाहते हैं. यदि पीकेके अपने आप को पीछे कर लेता है तो ऐसे बहुत से संगठन सामने आयेंगे जिनकी सोच पीकेके से अलग हट कर है और वो नए तरीके से सीरिया, तुर्की और ईरान में बिना कोई देश बनाए हुए अपने लिए और अपने लोगों के लिए एक बड़ा समझौता करने के लिए आगे बढ़ सकते हैं मगर पीकेके जिस प्रकार काम कर रहा है या करता है, ऐसा लगता है कि उनके लड़ाके हथियार नहीं डालेंगे और ऐसा नहीं लगता है की तुर्की उनके साथ बात करेगा.

 वहीँ अमेरिका तुर्की को धमका तो सकता है लेकिन कानूनी तौर पर तुर्की के ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठा सकते. इस मामले में यूएन और अमेरिका के बहुत से फैसले पड़े हुए हैं कि इस ज़ोन को सेफ बनाने में तुर्की कोशिशि करेगा. मुझे नहीं लगता की तुर्की बहुत जल्दबाजी में कोई क़दम उठाएगा.     

 

 तूबा हयात खान द्वारा हिंदी में ट्रांसक्रिप्ट किया गया)

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