एनआरसी : शिकारी खुद अपने जाल में!

2013 में सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में 1951 में बनाए गए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में नए नाम जोड़ने का काम शुरू हुआ और इसमें केवल 24 मार्च 1971 तक भारत के किसी भी हिस्से में मौजूद रहने का सबूत देने वाले लोगों के नाम शामिल किये गये।

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1985 में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और भारत सरकार के बीच हुए समझौते के अनुसार, 25 मार्च, 1971 के बाद राज्य में आए लोगों को विदेशी घोषित कर दिया गया और जाँच के बाद उन्हें वापस भेजने का फैसला किया गया। इस समझौते की एक अतिरिक्त शर्त यह थी कि 1966 से 1971 के बीच, जिनके नाम मतदाता सूची में शामिल किए गए हों, उन्हें अगले 10 वर्षों के लिए अस्थायी रूप से मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया जाए। इसका मतलब है कि दस साल बाद दोबारा शामिल कर लिया जाए। इस समझौते पर यदि 1985 के बाद 5 वर्षों में यानी 1990 तक कार्रवाई हो गई होती तो वे सभी जिनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए होते, उन्हें 19 साल पहले ही मतदाता सूची में शामिल कर लिया गया होता और भाजपा को इससे राजनीतिक फायदा उठाने का मौका नहीं मिलता। लेकिन कांग्रेस तो दूर असम गण परिषद भी इसकी हिम्मत नहीं कर सकी।

असम संधि के बाद, आसू ने ए.जी.पी. नामक एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल का गठन किया और चुनाव जीता। भारत को प्रफुल्ल कुमार मोहंता के रूप में सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री मिले, जिन्होंने विश्वविद्यालय परिसर से सीधे प्रांतीय सत्ता हासिल की। वह जनता दल का जमाना था और तीसरे मोर्चे की सरकार में ए.जी.पी. सक्रिय थी। उस समय असम में भाजपा को कोई नहीं जानता था, लेकिन जनता परिवार की विफलता के बाद, ए.जी.पी. ने कांग्रेस को हराने के लिए भाजपा से निकटता ले ली। यह तथ्य है कि ए.जी.पी. की मदद से भाजपा ने असम में अपना प्रभाव बढ़ाया, लेकिन इस बीच उसके कई नेता पार्टी में शामिल हो गए और सरकार बनाई। असम संधि के पूरी तरह लागू नहीं होने के कारण आसू के एक समूह ने यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) जैसे सशस्त्र अलगाववादी आंदोलन का गठन किया। यह विडंबना है कि आसू से निकल कर आने वाले प्रफुल्ल कुमार मोहंता पर उल्फा नेताओं के एनकाउंटर का गंभीर आरोप लगा। मोहंता ने उससे इनकार किया लेकिन उल्फा के खिलाफ सेना की कार्रवाई को सही ठहराया।

2013 में सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में 1951 में बनाए गए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (छत्ब्) में नए नाम जोड़ने का काम शुरू हुआ और इसमें केवल 24 मार्च 1971 तक भारत के किसी भी हिस्से में मौजूद रहने का सबूत देने वाले लोगों के नाम शामिल किये गये। जब एनआरसी का अंतिम मसौदा जुलाई 2018 में सामने आया, तो यह पता चला कि 40 लाख लोग अपने भारतीय होने का प्रमाण देने में असमर्थ रहे हैं। असम में इस तरह के ‘विदेशियों’ के लिए तीन शिविर लगाए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने कागजात को फिर से प्रस्तुत करने का अवसर दिया, क्योंकि उनमें से अधिकांश के पास दस्तावेज की कमी थी। उस समय के दौरान, कुछ संगठनों ने बड़े पैमाने पर काम किया। ।प्न्क्थ्ए ।च्ब्त् और पॉपुलर फ्रंट जैसे संगठनों ने स्थानीय लोगों को कागजात प्रदान करने में सहायता की और उनके नागरिक अधिकारों को बहाल किया।

यह एक बड़ी उपलब्धि है, जिसके कारण बड़ी संख्या में मुसलमानों ने राहत की सांस ली। लेकिन गैर-मुस्लिम संगठन इस काम को नहीं कर सके। एबीवीपी के प्रांतीय संयुक्त सचिव देवाशीष राय ने जानकारी दी कि कई मूल निवासियों के नाम एनआरसी में नहीं आए और इसके बजाय अवैध प्रवासियों के नाम इसमें जोड़े गए। सवाल यह है कि एबीवीपी ने उन निवासियों का नाम शामिल करने की कोशिश क्यों नहीं की?
हिंदू जागरण मंच ने भी राज्य के 22 जिलों में छत्ब् सूची के प्रकाशन की तारीख बढ़ाने की भी मांग की है, ताकि कोई ‘अवैध अप्रवासी’ सूची में शामिल न हो सके। उन्हें यह भी आशंका सता रही है कि बड़ी संख्या में हिंदू अंतिम एनआरसी में शामिल नहीं होंगे। हिंदू मंच के अध्यक्ष मृनाल कुमार लस्कर के अनुसार, एनआरसी सूची 31 अगस्त को प्रकाशित होने जा रही है, इसमें कई वैध भारतीय नागरिकों के नाम छूटेंगे। यदि सूची अपने वर्तमान स्वरूप में प्रकाशित होती है, तो हम इसके खिलाफ एक अभियान शुरू करेंगे। क्योंकि विरासत डेटा के दुरुपयोग की घटनाएं हुई हैं, इसलिए वेरीफिकेशन बहुत महत्वपूर्ण है । भाजपा की प्रांतीय सरकार के मंत्री चंद्र मोहन पटवारी ने एनआरसी के जिलेवार विवरण प्रस्तुत करते हुए फिक्शन पर जोर दिया है। यानी पूरा संघ परिवार इस सूची के प्रकाशन से बौखला गया है। कल तक जो लोग खुशियां मना रहे थे वे आज शोक मना रहे हैं। यानी शिकारी खुद अपने जाल में फंस गया।

– डॉ. सलीम खान

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