देश की राजधानी दिल्ली से महज़ 160 किलोमीटर की दूरी पर बसा शहर सम्भल अपने आप मे एक सुनहरा इतिहास समेटे हुए है।
यह क्षेत्र लोदी सल्तनत से लेकर मुग़ल सल्तनत तक अनेक रियासतों का केन्द्र रहा है। इस दौरान यह इलाक़ा ज्ञान का केंद्र भी रहा।
अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ जब देश में आज़ादी की तहरीक शुरू हुई, तब भी इस इलाक़े के लोगों ने बख़ूबी अपना फ़र्ज़ निभाया। आज़ादी के लिए क़ुर्बानियां देने में ये क्षेत्र कभी पीछे नहीं रहा। मौलाना इसहाक़ सम्भली, मौलाना मुबारक अली सम्भली, मौलाना इस्माईल सम्भली आदि वो नाम हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ इस क्षेत्र में एक इन्क़लाब लाकर रख दिया था और आज़ादी के आंदोलन को मज़बूत किया था।
1952 में जब देश में आम चुनाव शुरू हुए तो उत्तर प्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव में सम्भल को विधानसभा क्षेत्र बनाया गया और नवाब महमूद हसन ख़ां सम्भल से पहले विधानसभा सदस्य चुने गए। लेकिन जैसे-जैसे देश की राजनीति में परिवर्तन आया, वैसे-वैसे ज्ञान और संस्कृति के इस केंद्र का महत्व ख़त्म होता चला गया। आपातकाल के बाद सन् 1977 में लोकसभा के आम चुनाव हुए और सम्भल लोकसभा क्षेत्र बनाया गया। यहां से पहली बार चौधरी चरण सिंह की पार्टी की शांति देवी सासंद चुनी गईं और इस क्षेत्र की राजनीति में बड़ा परिवर्तन आया।
1980 और 1984 में दो बार कांग्रेस ने, 1989 ओर 1991 में दो बार जनता दल ने यहां की लोकसभा सीट पर विजय पताका फहराई। 1996 में बहुजन समाज पार्टी के डीपी यादव यहां से सांसद बने। 21वीं शताब्दी की शुरुआत में सम्भल शहर को सिर्फ़ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे भारत में एक नई राजनीतिक पहचान तब मिली जब समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह 2001 में यहां से सांसद चुने गए। 2007 में भी यादव परिवार के प्रमुख सदस्य रामगोपाल यादव यहां से सांसद चुने गए और 2009 में बहुजन समाज पार्टी से डॉ. शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ सांसद बने। ये सम्भल के लोगों के लिए नई उम्मीदों का समय था क्योंकि 1977 के बाद यहां से पहली बार कोई मुसलमान सांसद चुना गया था। लेकिन अफ़सोस सम्भल वासियों की उम्मीदें बस उम्मीदें ही रह गईं।
आज़ादी के बाद सम्भल पर जो तबाही के बादल मंडराने लगे थे, वे अब तबाही बन कर बरसने भी लगे। वही दौर था जिसमें सम्भल केंद्रीय विश्वविद्यालय जो सम्भल में बनना था, वह सम्भल से बाहर बहजोई चला गया। राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज जो सम्भल में बनना था, जिसकी ज़मीन भी चिन्हित हो चुकी थी, वह भी सम्भल से बाहर चला गया। इन्हीं सांसद महोदय के दौर में सम्भल को ज़िला भी बनाया गया, मगर ज़िला मुख्यालय सम्भल शहर को न बना कर, वहां से 20 किलोमीटर दूर बहजोई क़स्बे को बनाया गया। ऐसा लगता है मानो यहां की जनता की शैक्षणिक और आर्थिक प्रगति के माध्यमों को जानबूझकर कर यहां से दूर रखा जाता रहा।
2014 के लोकसभा चुनावों में ये सीट बीजेपी के खाते में गई ओर सत्यपाल सैनी सांसद चुने गए। 2019 में दोबारा डॉ. शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े और सांसद चुने गए। सम्भल शहर उत्तर प्रदेश की राजनीति में जितना महत्वपूर्ण होता गया, विकास के मामले में उतना ही पिछड़ता चला गया। आज आज़ादी के इतने दशकों बाद भी यह क्षेत्र परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सड़क, पानी आदि जैसी मूल सुविधाओं से वंचित है और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
शिक्षा की बात करें तो 4 लाख की आबादी वाले इस शहर में मात्र 3 डिग्री कॉलेज हैं, जिनमें बहुत ज़्यादा कोर्सेज़ नहीं हैं। बीएससी जैसे कोर्स के लिए यहां के छात्र सम्भल से बाहर दूसरे शहरों का रुख़ करते हैं। शहर के आसपास कोई सरकारी यूनिवर्सिटी भी नहीं है।
स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ (एसआईओ) इंडिया की सम्भल यूनिट यहां पिछले 3 सालों से एक सरकारी यूनिवर्सिटी की मांग कर रही है। 8 फरवरी 2018 शिक्षामंत्री व राज्यपाल के नाम प्रशासन को एक ज्ञापन सौंप कर इन छात्रों ने अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाई और इस आंदोलन की शुरुआत हुई। उसके बाद से लगातार यहां के छात्र इस मांग को लेकर सक्रिय रहे हैं और विभिन्न माध्यमों से यह मांग कर रहे हैं कि इस क्षेत्र में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए। छात्रों के यहां के वर्तमान सांसद डॉ. शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ से भी मिल कर इस मुद्दे को सामने रखा। उन्होंने इस विषय को सदन में रखने का आश्वासन भी दिया।
इस संबंध में इन छात्रों को यहां के स्थानीय लोगों का भरपूर समर्थन मिल रहा है। सरायतरीन निवासी गौरव दीक्षित कहते हैं कि, “सम्भल को एक यूनिवर्सिटी की बहुत ज़रूरत है जिसके लिए एसआईओ से जुड़े छात्र यहां संघर्ष कर रहे हैं, हम उनका आभार व्यक्त करते हैं और इस क्षेत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए उन्होंने जो आंदोलन शुरू किया है, उसमें हम उनके साथ हैं।” एस एम लॉ कॉलेज के प्राचार्य डॉ. फ़ैज़ान अली कहते हैं कि, “भारत के आर्थिक विकास में सम्भल के लोगों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए यहां एक यूनिवर्सिटी की बहुत आवश्यकता है जिसके लिए एसआईओ द्वारा चलाई जा रही मुहिम प्रशंसनीय है।”
पंजाब यूनिवर्सिटी से लॉ करने वाले एडवोकेट इमरान इलाही का कहना है कि, “सम्भल शहर में ज़्यादातर युवा कम उम्र में ही छोटे-मोटे कारोबार में लग जाते हैं जबकि उनके अंदर यह क्षमता है कि यदि उच्च शिक्षा में जाएं तो बहुत बेहतर परिणाम देंगे लेकिन कारण है यहां अच्छी शिक्षा का न मिलना। कुछ कॉलेज हैं जिनमें बीए, एमए आदि कोर्सेज़ कर पाते हैं लेकिन वो भी बहुत अच्छा परिणाम नहीं देते। कुछ ही युवा ऐसे होते हैं जो शहर से बाहर जाकर उच्च शिक्षा में जाते हैं या प्रोफ़ेशनल कोर्सेज़ में दाखिला लेते हैं। अगर यहां यूनिवर्सिटी हो तो यहां के युवाओं को पढ़ाई करने के लिए नए अवसर मिलेंगे और वो सिविल सेवाओं और प्रोफ़ेशनल कोर्सेज़ में जा सकेंगे।”
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सामने है। प्रदेश का राजनीतिक पारा चढ़ा हुआ है। तमाम तरह के वादे किए जा रहे हैं, घोषणा पत्र जारी किए जा रहे हैं लेकिन यहाँ के छात्रों और युवाओं की इस जायज़ मांग पर कोई पार्टी और कोई प्रत्याशी कान धरने को तैयार नहीं है। सवाल यह है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी अगर देश में शिक्षा या शिक्षा से जुड़े मुद्दे चुनाव में चर्चा का विषय नहीं बने हैं तो हमारा प्रगतिशील होने का यह ढोंग क्यों? विश्व पटल पर बड़े-बड़े बोल क्यों? इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक तरफ़ प्रदेश में युवा बेहतर शिक्षा की मांग कर रहे हों, और दूसरी तरफ़ राजनीतिक दलों के लिए चुनाव का मुद्दा जिन्ना और पाकिस्तान हों!
– डॉ. फ़ुरक़ान साहिल
qabele taref hai yeh ap ka lekh waqae zaroorat hai ek universitey ke sambhal ke leye
Shandar lekhni