धर्म परिवर्तन का मुद्दा भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में हमेशा ज्वलंत रहा है। हाल ही में हुई कुछ घटनाओं ने इसे एक बार फिर चर्चा का विषय बना दिया है।
इसी संदर्भ में ‘भारत में धर्म परिवर्तन और समकालीन चुनौतियां’ शीर्षक से लिखे गए इस लेख का दूसरा और अंतिम भाग पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
क़ानूनी इतिहास
ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन का आरोप जो सिर्फ़ कुछ धर्मों पर लगाया जाता है, इसके बीच इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है कि तमाम अन्य समुदाय जो दूसरे धर्म/आचरण का पालन करते हैं उन्हें जबरन (जो क़ानून बनाने वालों की नज़र में अदृश्य है) हिन्दू धर्म के अनुयायी होने का नाम दिया जाता है जो कि वे नहीं हैं। हाल ही में झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बयान दिया था कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं और ना ही कभी वे थे, इसी प्रकार से ऐसे विभिन्न समुदायों को हिन्दू क़रार देने के दावे को अनेक बार सवालों के घेरे में खड़ा किया गया है। इसीलिए इस्लामोफ़ोबिया और मिशनरी विरोधी बलों के चलते जबरन धर्मांतरण की अवैधता को लेकर कुछ क़ानून बनाये तो गए हैं मगर पिछले भाग में लिखे गए अन्य मामलों को इनसे बाहर रखा गया है। ऐसा होना इस बात की पुष्टि करता है कि असल मुद्दा और सरोकार जबरन धर्मांतरण प्रकिया का नियंत्रण करना नहीं बल्कि कुछ धर्मों तथा उनके अनुयायियों पर नियंत्रण क़ायम करना है, जिनका ऐतिहासिक और वर्तमान अस्तित्व हमेशा अवैधता, आक्रमण और ज़बरदस्ती करने के नाम पर सवालों के घेरे में रहता है – लगभग वही तर्क जो सीएए और एनआरसी क़ानूनों को लाने के लिए दिए गए।
अन्य आरोप हैं कि ’लव-जिहाद’ समेत जो भी धर्म परिवर्तन अब्राहमिक धर्मों, जैसे इस्लाम और ईसाईयत, में किये जाते हैं इन सब के पीछे या तो ज़ोर-ज़बरदस्ती वजह होती है, या प्रलोभन (जैसे प्रेम और वासना), या बहकावा देना (जैसे आर्थिक मदद का आश्वासन), या ईश्वर और मरने के बाद के जीवन को लेकर डर पैदा करके (धार्मिक स्वतंत्रता क़ानूनों की धाराओं में से एक, जिसकी वजह से धर्मशास्त्र एवं परलोक सिद्धांतों से जुड़े विमर्श जो धर्मांतरण के बारे में हों उन्हें अपराधिकृत किया जा सकता है) किये जाते हैं। ऐसे विमर्श महज़ सामाजिक या राजनीतिक स्तर पर सीमित नहीं रहे बल्कि अब इनकी पैठ क़ानून निर्माण तक है जिसकी बदौलत ‘लव-जिहाद’ से जुड़े क़ानून अस्तित्व में आये।
इन क़ानूनों में धार्मिक स्वतंत्रता क़ानूनों का सात राज्यों में होना, हिन्दू कोड विधेयकों में ‘भारतीय’ अथवा ‘ग़ैर भारतीय’ धर्मों के बीच अंतर स्थापित करना और राष्ट्रपति आदेश 1950 के अंतर्गत ईसाई धर्म या इस्लाम में धर्मांतरित हुए लोगों को बौद्ध अथवा सिख धर्मों के विपरीत आरक्षण प्रदान करने से इन्कार करना शामिल हैं। ये तमाम धाराएँ जब लागू होती हैं तो कई प्रभाव पड़ते हैं – जैसे कुछ धर्मों के बीच असमानता तथा अनुचित अलगाव पैदा होना जिसका आधार उनके उत्पत्ति की जगह भारत में होने या ना होने पर निर्भर करता है या धर्मांतरण की प्रकृति पर (जो अब्राहमिक धर्मों की ही विशेषता मानी जाती है न कि अन्य धर्मों की) और इसके साथ ही संविधान में धर्म प्रचार की आज़ादी का मौलिक अधिकारों में से एक होने के बावजूद व्यक्ति की अपनी इच्छा से विभिन्न मज़हबों में आवागमन को अपराधिकृत करना
ये बात विख्यात है कि ‘लव-जिहाद’ को लेकर डर फैलाने की कोशिशें नयी नहीं हैं बल्कि इसके सबूत सन् 1920 में प्रकाशित आर्य समाज के पर्चों में दर्ज हैं जिनमें न केवल पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) को बुरा-भला कहा गया बल्कि मुस्लिम पुरुषों के ऐसे स्केच छापे गए जिनमें उन्हें हिन्दू महिलाओं को बहकाने की जुगत में अपनी तैयारी से लैस सहज ही विमोहक, चालबाज़ एवं वासनायुक्त दर्शाया गया था। इसके अतिरिक्त, इस्लाम एवं ईसाईयत में धर्मांतरण न केवल हिन्दू राष्ट्रवाद का अपमान (सांस्कृतिक ख़तरा, जनसंख्या में गिरावट और लव-जिहाद के नाम पर) प्रतीत होता है बल्कि इसके विरोध को राष्ट्र की संप्रभुता (सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, आतंकवाद से संपर्क इत्यादि के नाम पर) की ख़ातिर वैधता दिलवाता है। इसी संबंध के चलते धर्मांतरण का अपराधिकरण एक ऐसे देश में मुमकिन हो पाता है जो सैद्धांतिक रूप से तो धार्मिक आज़ादी की बात करता है मगर चूँकि इस्लाम तथा ईसाई धर्म में धर्मांतरण की बात केवल हिन्दू बहुसंख्यकवाद की माँग (जिसको अन्यथा एक सेक्युलर देश में उचित ठहराना मुश्किल होगा) का विषय नहीं है बल्कि देश की स्थिरता, सुरक्षा एवं अखंडता की चिंता से जुड़ा है। इसका उदाहरण हम हादिया के केस में देख सकते हैं कि कैसे उसके विवाह एवं धर्म परिवर्तन के मामले को एनआईए के कोर्ट में घसीटा गया और कैसे ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ की दुहाई देकर ये तस्वीर दिखाने की कोशिश की गई कि जब भी सामूहिक धर्मांतरण होते हैं तो समाज में अस्थिरता पैदा होती है।
धर्मांतरित लोग न सिर्फ़ ऐसे तमाम कारकों तथा प्रभावकारी तत्वों के लिए एक टूल हैं बल्कि अपने धार्मिक विश्वास एवं अपने समुदायों के लिए एक तरह से एजेंट भी हैं, तो ऐसे में ये जानबूझकर ग़लत समझ पैदा करने वालों और असंबद्ध तथ्यों को जबरन जोड़ देने वालों के तर्कों का कैसे सामना किया जा सकता है? ऐसे में हमारे ऊपर एक स्कॉलर, पत्रकार या मज़हब में दिलचस्पी रखने वाले एक आम नागरिक के तौर पर भी ये ज़िम्मेदारी आती है कि हम दक्षिणी एशिया में धर्म और सामाजिक जीवन में उससे जुड़े सवालों पर विमर्श करें। निगरानी के बढ़ते जाल और धर्मांतरण पर नियंत्रण के लिए बढ़ती चौकसी से जुड़ी क़ानूनी चुनौतियों और राजनीतिक प्रतिरोध से सरोकार रखने के साथ-साथ ये भी ज़रूरी है हम अपने पूर्वाग्रहों और मान्यताओं से परे जाकर धर्म परिवर्तन को एक ऐसी प्रक्रिया की तरह देखें जिसने पूरे उपमहाद्वीप पर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्तर पर प्रभाव डाला है।
निष्कर्ष
धर्म परिवर्तन को उसकी गहराई तथा जटिलता में न जाकर कुछ अनादारसूचक तथा आरोप गढ़ते शब्दों तथा नारों में समेटकर रख दिया गया है जो धर्मांतरण से संबंधित भय तथा चिंताओं की तो तर्जुमानी करते हैं मगर एक नए धर्म की तलाश की अन्तरंग कठिनाई और उसके संघर्षों के बारे में कुछ नहीं कहते जिसके बाद एक यात्रा शुरू होती है जो बाद में चलकर सरकार की लगातार निगरानी, परिवार की दुत्कार, अपने जीवन के आचरणों को फिर से आकार देने की मुश्किल प्रक्रिया, जन्म से जुड़े समुदाय के साथ विवाद, सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश का संघर्ष और आध्यात्मिकता की अन्तरंग यात्रा से जाकर जुड़ती है।
हाल ही में हुए मौलाना उमर गौतम तथा मुफ़्ती क़ाज़ी जहाँगीर की गिरफ़्तारी और इस्लामिक ‘दावह’ (इस्लाम की तरफ़ आमंत्रित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली) केंद्र मामले तथा अंतर्धार्मिक विवाह को लेकर तीव्र विरोध की वजह से कुछ ज़रूरी सवाल उठते हैं।
पहला प्रतिकूल प्रभाव धर्म की तरफ़ आमंत्रित करने पर पड़ता है। इसकी वजह ग़ैर-मुस्लिमों के साथ मज़हब से जुड़े सवालों पर सामान्य बातचीत करना भी दूभर हो गया है कि कहीं ‘बहकावे’ तथा ‘प्रलोभन’ के आरोप ना लग जायें। दूसरा ये कि ‘लव-जिहाद’ को लेकर हुए हो-हल्ला की वजह से समुदायों के आपसी संबंधों में केवल अत्यधिक तनाव ही पैदा नहीं हुआ, बल्कि ‘लव-जिहाद’ के नए क़ानूनों की बदौलत धर्मांतरण के मामले में ज़ोर-ज़बरदस्ती की बात से आगे बढ़कर एक सतत निगरानी तथा नियंत्रण की ओर क़दम बढ़ाये गये हैं कि अंतर्धार्मिक संबंधों (बिना धर्म परिवर्तन किये) को उनकी सच्चाई, प्रमाणिकता तथा गंभीरता को लेकर कटघरे में खड़ा किया जा सके। कभी-कभी धर्म परिवर्तन का कोई सवाल ही नहीं होता है, मगर महज़ आरोपों के आधार पर लोगों को संदिग्धता के घेरे में ला खड़ा करता है। इसलिए लव-जिहाद के ‘मास्टरप्लॉट’ ने क़ानून को नए एवं बदलते स्वरुप में प्रभावित किया है।
डडली-जेनकिन्स कहते हैं कि “लव-जिहाद, आकर्षक मुसलमानों को लेकर एक बहुकालीन धारणा का समकालीन अवतार है, जिसकी वजह से महिलाएँ धर्मांतरण करने के लिए प्रेरित होती हैं। इंटरनेट तथा सोशल मीडिया पर ऐसे विचारों का प्रसार तेज़ी से होता है तथा अक्सर अज्ञातकृत होता है। जिस तरीक़े से ये मास्टरप्लॉट हमारे सूचना के प्राप्त करने को हमारे सोशल मीडिया की सामग्री से जोड़ देता है इसके कारण ये मुसलमान पुरुषों तथा धर्मांतरित स्त्रियों के लिए मुश्किल खड़ा कर देता है, ख़ासतौर से जब वे प्रेम-संबंध में हों।” (2019, प. 212) मगर हालिया मामलों में हम देख सकते हैं कि ये लव-जिहाद का मास्टरप्लॉट मुसलमान पुरुषों तथा धर्मांतरित स्त्रियों के अलावा ऐसे किसी भी अंतरधार्मिक जोड़े को शक के दायरे में ला सकता है और उन पर तमाम तरह की परेशानियाँ आ सकती हैं जिसके चलते उनके धर्म, लिंग, जाति, स्थान तथा सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों के हिसाब से उनको ख़तरे का सामना करना पड़ सकता है। इन तमाम बातों के विश्लेषण के बाद ये विचार अतिश्योक्ति नहीं लगता कि लव-जिहाद के मुद्दे को ऐसे तूल देना यूनिफॉर्म सिविल कोड क़ानून को लाने की तरफ़ एक बढ़ता क़दम है।
भविष्य यक़ीनन अंधकार से भरा मालूम होता है। धर्म परिवर्तन आने वाले समय में एक गरम मुद्दा बना रहेगा। देखना यह है कि मुस्लिम समुदाय व्यापक स्तर पर और उनके नेता तथा विभिन्न संगठन इन आरोपों तथा बदनामी से कैसे लड़ते हैं! एक तरीक़ा यह हो सकता है कि इस दमन का मुक़ाबला ऐसे तमाम समुदायों – अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक, स्त्री समुदाय तथा स्वदेशी समुदाय – से हाथ मिलाकर किया जाए जो लगभग समान उत्पीड़न से दो चार हो रहे हैं और जिसकी वजह से उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर ख़तरा बना हुआ है।
– शाएमा एस
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधरत् हैं तथा Aura Magazine की उप-संपादक हैं।)
हिंदी अनुवाद: उज़्मा सरवत