स्वतंत्र पत्रकारिता पर सरकारी दबाव और खोखला नेशनल प्रेस डे

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हर बार की तरह इस बार भी ‘नेशनल प्रेस डे’ आया और बीत गया। इतना ज़रूर हुआ कि ‘प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स’ पर अख़बारों और टीवी चैनलों ने थोड़ी बात की और हर बार की तरह इस बार भी बस बात कर के टाल दी गई।

प्रेस का गिरता स्तर टीवी चैनलों और अख़बारों के लिए चिंता का विषय भले ही न हो लेकिन हम जैसे आम नागरिकों के लिए यह बहुत चिंता का विषय है। ख़ास तौर पर उन नागरिकों के लिए जो सच के लिए आगे आते है और उसे दुनिया के सामने लेकर आते हैं।

हिन्दुस्तान में पहले प्रेस कमीशन ने देश में पत्रकारिता की स्वतन्त्रता और पत्रकारिता के नियमों को शक्तिशाली बनाने के लिए एक प्रेस काउंसिल के बारे में सोचा और 4 जुलाई 1966 को इस संस्था की स्थापना की गई। इस काउंसिल ने 16 नवंबर 1966 से पूर्ण रूप से कार्य करना आरम्भ किया। तब से हर साल 16 नवंबर को नेशनल प्रेस डे मनाया जाता है।

प्रेस काउंसिल की स्थापना इसलिए की गई थी ताकि हम देश में प्रेस की स्वतंत्रता को बचाए रखें लेकिन 2021 का प्रेस डे ऐसे वक़्त में मनाया जा रहा है जब देश में पत्रकारिता पर हर दिन हमले हो रहे हैं, सरकार और संस्थाएं मिलकर इसको कमज़ोर करने और नाम मात्र बनाने की पूरी कोशिश कर रही हैं और इसके लिए गोदी मीडिया पूरी तरह साथ दे रही है।

पत्रकारिता के इतिहास का यह सबसे बुरा दौर है जब हर दिन पत्रकारों पर ही नहीं बल्कि आम नागरिकों पर भी यूएपीए जैसी धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जा रहा है और इसका जीता जागता उदाहरण त्रिपुरा को लेकर लिखे गए सोशल मीडिया यूज़र्स पर दर्ज हुआ मुकदमा है, जिसमें लगभग 70 लोगों को नोटिस भेजा गया है और हैरत तो तब होती है जब दिल्ली से गई फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम के लोगों को भी सांप्रदायिक तनाव के नाम पर यूएपीए के तहत नोटिस भेज दिया जाता है।

कुछ दिन पहले दिल्ली से त्रिपुरा की सच्चाई जानने के लिए गईं दो युवा महिला पत्रकारों पर भी सरकार ने मुकदमा दर्ज कर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। फ़िलहाल उनको ज़मानत पर रिहा कर दिया गया है लेकिन सवाल तो यह है कि क़ानूनी कार्रवाई के नाम पर उनको परेशान करना कितना ठीक है?

इससे पहले किसान आंदोलन को कवर कर रहे पत्रकार मंदीप पुनिया हों या हाथरस मामले को कवर करने जा रहे केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन हों, हर बार सरकार ने स्वतंत्र पत्रकारिता को दबाने की कोशिश की है। इस दौरान पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन की मां का देहांत भी हो जाता है। एक पत्रकार जो केरल से बहुत दूर एक मामले की सच्चाई जानने के लिए आया था उसको ऐसा फंसाया गया कि अब तक वह जेल की सलाखों के पीछे है।

स्वतंत्र पत्रकारिता पर होते हमले इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि सरकार सिर्फ़ अपनी प्रशंसा सुनना चाहती है, इसके अलावा वो हर उस आवाज़ को दबा देना चाहती है जो उनके ख़िलाफ़ उठती है। ऐसे में भला हो सोशल मीडिया और उन यूट्यूब चैनलों का जो छोटे होकर भी बड़े स्तर पर पत्रकारिता को बचाए हुए हैं।

दिल्ली दंगों से लेकर कोरोना काल तक और किसान आंदोलन से लेकर त्रिपुरा और असम तक, हर मामले में सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर ही हमला किया है और सच लिखने, बोलने और कहने वालों को ही निशाना बनाया गया है। इस वक़्त बिहार के अविनाश झा के बारे में चर्चा करना ज़रूरी हो जाता है जो बहुत ही छोटे स्तर पर मेडिकल में होने वाले भ्रष्टाचार को सामने लाने की कोशिश कर रहे थे और उसके बदले में उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। ये छोटे-छोटे पत्रकार जो सुदूर गांवों से मामलों को उजागर करते हैं, यही असली पत्रकार हैं जिनकी वजह से हिन्दुस्तान अभी भी पत्रकारिता इंडेक्स में 142 वें स्थान पर खड़ा है वरना एसी में बैठने वाले टीवी एंकर और एंकराओं का बस चलता तो वे सौ फ़ीसदी अंक दिलाकर इंडेक्स में नीचे से प्रथम स्थान दिलाते।

– एम डी स्वालेह अंसारी

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