जब सवाल गहराने लगे तो ‘बी उम्मा’ की आंखों में आंसू फूट पड़े। स्तब्ध रहकर बार-बार क़िस्सा दोहराने की आदत हो जाने के बावजूद, एक दशक से बिना किसी दोष के क़ैद अपने बेटे, ज़करिया को वापस पाने के लिए एक लंबी और हताश कर देने वाली लड़ाई को याद करते हुए उनके शब्द टूटने लगे। बी उम्मा बताती हैं कि दस साल पहले, तक़रीबन उन्नीस साल की उम्र में वह उनसे दूर ले जाया गया था। कितना भयभीत रहा होगा वह!‌ 2008 के बैंगलोर ब्लास्ट के बाद लगे आरोपों के बाद ज़करिया यूएपीए जैसे सख़्त क़ानून के तहत अनिश्चित कालीन समय के लिए कारावास में है। प्रक्रियाओं का मखौल उड़ाते हुए, कर्नाटक पुलिस ने 5 फरवरी 2009 को तिरूर (मलप्पुरम) में उसके कार्यस्थल से ज़करिया का संदेहपूर्ण तरीक़े से अपहरण किया था।

ज़करिया एक कॉलेज में वाणिज्य का छात्र था और परिवार की आर्थिक सहायता के लिए एक मोबाइल शॉप पर काम करता था। अपहरण से तीन दिन पहले केरल पुलिस पूछताछ के लिए बी उम्मा के पास आई थी। वे एक दिन बाद ज़करिया से भी मिले और कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। यहां तक कि पुलिस की इस निरंतर पूछताछ के बावजूद, ज़करिया अपने गिरफ़्तार किए जाने के डर के बिना काम करने के लिए गया।

पड़ोसियों को बी उम्मा और उनके परिवार तक पहुंचने और उनका समर्थन करने में कई साल लग गए। “वे ज़रूर पुलिस की निगरानी से घबराए हुए रहे होंगे, और इसमें कोई ग़लत बात नहीं है”, बी उम्मा उस सामाजिक बहिष्कार और अलगाव के लिए पड़ोसियों को माफ़ करते हुए कहती हैं, जिसका उन्हें और उनके परिवार को सालों तक सामना करना पड़ा। बी उम्मा जो ज़करिया के साथ रहती थीं, ज़करिया को पुलिस द्वारा उठाए जाने की ख़बर के बाद अपने बड़े बेटे के पास चली गईं। शुरुआत के कुछ वर्षों में केरल पुलिस ने उनके परिवार को डराया-धमकाया भी कि वे इस झूठ के बारे में चुप रहें।

2008 के बैंगलोर ब्लास्ट में ज़करिया को आठवें आरोपी के तौर पर उठाया गया था। ज़करिया के चचेरे भाई शुऐब को उसके निर्दोष होने पर पूरा विश्वास है और वह पहले दिन से क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। हरिदासन और निज़ामुद्दीन नाम के दो गवाह जो ज़करिया के ख़िलाफ़ लाए गए थे, सार्वजनिक रूप से अपने बयान से पलट चुके हैं। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि उन्हें कन्नड़ भाषा में लिखे गए एक बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया गया था जिसे पुलिस द्वारा ग़लत तरीक़े से पेश किया गया।

शुऐब ख़ुद को ज़करिया के लिए कोंडोट्टी में काम दिलाने के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं, जहां से पुलिस के अनुसार ज़करिया ने अन्य आरोपियों को विस्फ़ोटकों के लिए टाइमर बनाने में मदद की थी। उसने एक महीने के भीतर ही नौकरी छोड़ भी दी थी क्योंकि दुकान तक पहुंचने के लिए तीन बसें बदलनी होती थीं। ज़करिया मलयालम की तुलना में किसी भी अन्य भाषा में कमज़ोर था और उसने कभी बहुत अधिक दूर की यात्रा भी नहीं की।

संयोग से ज़करिया की कहानी डॉक्यूमेंट्री निर्माताओं जिशा जोश और के. पी. ससी द्वारा अब्दुल नसर मदनी के पास जाने पर सामने आई, जिनका मामला भी लंबे समय तक अन्याय का एक और मामला था। मदनी ने इस युवा लड़के का परिचय दिया और कई भयानक वास्तविकताओं से उन्हें अवगत कराया। जिशा ने मामले में दिलचस्पी दिखाई और उन्होंने ज़करिया के मामले पर एक लेख लिखा। इसने संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया। वर्षों से निराश बी उम्मा के आंसुओं को प्रतिक्रिया मिलनी शुरू हुई।

कई पत्रकारों और संगठनों ने मामले को मज़बूती से उठाया और ज़करिया के ख़िलाफ़ सबूतों से छेड़छाड़ के बारे में विस्तार से रिपोर्ट दी। सांसद ई. टी. मुहम्मद बशीर, जिन्होंने सदन में यूएपीए जैसे सख़्त क़ानूनों को लागू करके मुस्लिम युवाओं को संदेहपूर्ण तरीक़े से उठाने के ख़िलाफ़ ज़ोरदार पैरवी की थी, ने ज़करिया के घर जाकर बी उम्मा से मुलाक़ात की और मदद का आश्वासन दिया। एक्शन कमेटी के गठन के बाद पुलिस के अत्याचार और सामाजिक बहिष्कार में कमी आई। ओपन ट्रिब्यूनल्स और डॉक्यूमेंट्रीज़ इत्यादि ने ज़करिया पर चर्चा की और उसकी रिहाई की वकालत की।

जेल के अंदर इस लंबी अवधि के बीच, ज़करिया को अदालत ने दो बार पैरोल दी। वह 2016 में अपने भाई शरीफ़ की शादी में शामिल होने के लिए कुछ घंटों के लिए घर लौटा और 2017 में उसी भाई के अंतिम संस्कार में शामिल हुआ और जेल लौट गया। बी उम्मा इन छोटी-छोटी मुलाक़ातों को भी विस्तार से बता सकती हैं। “हम कम बोलते थे। शायद हमारे पास कहने को कुछ नहीं था”, बी उम्मा आंसू छुपाते हुए कहती हैं।

राज्य सरकार और अन्य एजेंसियों को बी उम्मा द्वारा की गई कोई अपील, उनके बेटे को वापस लाने में मददगार नहीं बन सकी। ज़करिया ‘परापन्ना अग्रहारा जेल’ में क़ैद हज़ारों में से एक है। 40 हेक्टेयर भूमि में फैले और क्षमता से दोगुने भरे इस जेल से, क़ैदियों के प्रति भयानक व्यवहार की ख़बरें आती रहती हैं। आतंकवाद के आरोप में फंसाए जाने के डर से कई क़ैदियों को उनके घरवालों के द्वारा भुला दिया जाता है। उनके हिस्से का न्याय शायद तभी मर गया था, जब वे गिरफ़्तार किए गए थे। यूएपीए जैसे सख़्त क़ानून, न्याय की प्रतीक्षा कर रहे अभियुक्तों के लिए धीमी गति की मौत बन चुके हैं। दो लाख से अधिक अंडर ट्रायल क़ैदियों के साथ, भारत अन्यायपूर्ण अपराध प्रक्रिया की तीसरी सबसे बड़ी आबादी है। “और कितना वक़्त?”, झूठ और क्षति से हारी हुई बी उम्मा पूछती हैं। एक लंबे ठहराव के बाद वह दोबारा पूछती हैं, “अगर वह दोषी भी था, तो क्या इतना काफ़ी नहीं है?” लेकिन वह आश्वस्त हैं कि उनका बेटा दोषी नहीं है।

शाहीन अब्दुल्लाह (पत्रकार, मकतूब मीडिया)
हिंदी अनुवाद: तल्हा मन्नान

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