- वैज्ञानिक स्वभाव क्या है? और यह क्यों ज़रूरी है? अक्सर हमारी चर्चाएं और विमर्श ऐसे विषयों से दूर रहती हैं। हो सकता है हममें से कई लोगों ने वैज्ञानिक स्वभाव पर कुछ सुना होगा लेकिन अधिकतर लोगों और युवाओं में इस विषय पर चर्चा न के बराबर है।
वैज्ञानिक स्वभाव वास्तव में अंधविश्वास का पूर्ण इनकार करना है। इसके साथ साथ किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचने और निर्णय लेने के लिए सबूतों, कारणों और तर्कों का सहारा लेना है। भारतीय समाज में अंधविश्वास और आस्थाओं में अधिक प्रचलन के कारण वैज्ञानिक स्वभाव की कमी देखने को मिलती है। अब सवाल यह है कि इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? क्या आम जनता इसके लिए ज़िम्मेदार है या हमारे देश के वैज्ञानिक या कुछ धर्मगुरु जो अपने वर्चस्व के लिए लोगों को डराकर रखना चाहते हैं। इसमें वैज्ञानिकों की कितनी भूमिका है और अन्य आम जनता कि कितनी इसपर चर्चा करने के साथ साथ मौजूदा परिस्थिति को समझना भी ज़रूरी है।
आज विद्यालयों और शैक्षिणिक संस्थानों में हम विज्ञान को केवल ज्ञान के एक भंडार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में विज्ञान क्या है इसको पहले समझ लेना ज़रूरी है।
विज्ञान मुख्य रूप से पद्धतियों का एक समुच्चय है, औज़ारों एक किट है जिसका उपयोग हम ज्ञान उत्पन्न करने के लिए करते हैं। विज्ञान की पद्धति में हम अवलोकन और प्रयोग करते हैं और निर्णय लेने के लिए सबूत, तर्क और आंतरिक सुसंगति का उपयोग करते हैं। इसमें सभी चीज़ों पर बार बार सवाल करने की अनुमति होती है। विज्ञान में कोई अंतिम जवाब नहीं है और न ही एक जवाब को मनवाने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती। विज्ञान के प्रगति करने का यही स्रोत है कि इसमें किसी भी शोध पर तर्कसंगत सवाल उठाया जा सकता है। कोई शोध या सिद्धांत आज सही हो सकता है लेकिन ऐसा भी संभव है कि वो आने वाले समय में वो गलत साबित हो। यही विज्ञान का असल तरीक़ा है लेकिन आज ये इस अंदाज़ में प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है।
हमारे विद्यालयों में वैज्ञानिक पद्धति नहीं सिखाई जाती है। हम अपने बच्चों को वैज्ञानिक तथ्यों को याद कराने के लिए ज़्यादा उत्सुक रहते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं बताते कि इन सारे तथ्यों को हमने कैसे जाना। आज विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षक या उनके छात्रों से आप वैज्ञानिक पद्धति के बारे में पूछें तो हमें संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाएगा। यह समस्या यहाँ से धीरे धीरे शुरु होते हुए उच्च स्तर तक पहुँच जाती हैं। अक्सर हम वैज्ञानिकों द्वारा शोध के अंतिम निष्कर्ष की ओर आकर्षित होते हैं लेकिन उन तरीकों पर ज़ोर नहीं देते जिनके द्वारा हमने निष्कर्ष प्राप्त किया है। विज्ञान में शोध की प्रक्रिया, निष्कर्ष की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। निष्कर्ष में उस कार्यक्षेत्र के लोगों की रूचि हो सकती है लेकिन प्रक्रिया में सभी को शौक़ होना चाहिए। हमें भले ही आनुवंशिकीविदों, मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, इतिहासकारों और राजनीति वैज्ञानिकों के वास्तविक निष्कर्षों से कोई सरोकार न हो लेकिन उनके द्वारा प्रयुक्त ज्ञान उत्पादन के तरीकों से सीखने के लिए बहुत कुछ है। इस वैज्ञानिक स्वभाव के अभाव के कारण हम किसी भी तथ्य को बिना सोचे समझे मान लेते हैं और अंधकार की ओर बढ़ते जाते हैं।
इसी श्रेणी में वो लोग भी आते हैं जो विज्ञान की भविष्यवाणियों पर आंख मूंदकर भरोसा करते हैं। किसी बात को इसलिए मान लेते हैं क्योंकि वैज्ञानिकों का ऐसा कहना है। अन्य अंधविश्वासों की तरह वैज्ञानिक भी ज़ोर देकर आग्रह करते हैं और हम चुपचाप उसे स्वीकार कर लेते हैं। न वैज्ञानिकों के तर्क को सुनते न उसको समझने की कोशिश करते। और इस तरह विज्ञान और पौराणिक कथाओं एवं अंधविश्वास को एक बराबरी पर ले आते हैं।
एक समझ के हिसाब से वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक पद्धति में विफलता को भी ध्यान में रखना चाहिए। आम लोगों को यह भी समझना चाहिए कि कोई भी वैज्ञानिक शोध के पीछे किस प्रकार की महनत होती है। एक लम्बे आकलन और प्रयोगों के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। हो सकता है उसमे भी कुछ गलती कि संभावना हो, इसलिए एक प्रशंसा का मनोभाव हमारे अंदर होना चाहिए।
वैज्ञानिक स्वभाव पर चर्चा करते समय एक महत्वपूर्ण सवाल वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग से है। क्या सभी कार्यों के लिए वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग आवश्यक है या सिर्फ कुछ चीज़ों के लिए? ज़ाहिर सी बात है कि हम सभी चीज़ों के लिए वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग तो नहीं कर सकते। हमारा खाना पीना, हमारी पसंद, हमारे शौक, आदि हमारी रूचि पर निर्भर करते हैं इसके लिए वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करना फ़िज़ूल है। लेकिन कुछ चीज़ें एसी हैं जिनके लिए वैज्ञानिक विधि का उपयोग करना ज़रूरी होता है । जैसे धूम्रपान से कैंसर का खतरा बढ़ता है, हमें चाँद की गतिविधि का पता लगाना है, शराब पीने के नुकसान पर बात करना है तो इन सबके लिए हमें वैज्ञानिक पद्धति की आवश्यकता है। जहां कहीं भी आवश्यकता हो, हम सभी को वैज्ञानिक विधि का उपयोग करना चाहिए।
वास्तव में हमको एसी स्थितियां पैदा करनी चाहिए, जहां वैज्ञानिक पद्धति के उपयोग की आवश्यकता होने पर हर कोई वैज्ञानिक हो सके, और जब यह आवश्यक न हो तब हर कोई गैर-वैज्ञानिक बन सके। हमें विज्ञान को पद्धतियों के एक समुच्चय के रूप में सिखाना चाहिए, न कि तथ्यों के ऐसे भंडार के रूप में, जिसकी खोज वैज्ञानिकों ने जादुई ढंग से की है और उसमें विश्वास करने लगे हैं। यह विधि हमको विद्यालयों से ही शुरू करना चाहिए ताकि बच्चों में एक स्वबाव पैदा हो सके। एक ऐसा स्वभाव जो उनको इस बात पर सवाल करने को मजबूर करे ऐसे कैसे गणेश की मूर्ति ने दूध पीना शुरू कर दिया है, ऐसा कैसे संभव है कि अरब देशों में चाँद पहले दिखाई दे और भारत में बाद में, ऐसा कैसे संभव है कि दुनिया में एक ही तारीख़ चार जगह अलग है? वह वैज्ञानिक तरीके – अवलोकन, प्रयोग, तर्क, आंतरिक सुसंगति और सवाल पूछने तथा शंका के मनोभाव का उपयोग करके यह तय कर सकें कि यह संभव है या नहीं। यह स्वभाव जगाने के लिए विज्ञान की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। युवाओं को मौजूदा समय के अंतहीन राजनैतिक चर्चाओं से हटकर विज्ञान का संवाद शुरू करना चाहिए। हो सकता है इससे आपकी अवधारणाओं में भी बदलाव आ सके।