कल बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की ख़बर ने सबको हैरान कर दिया। एक युवा अभिनेता जिसकी लॉस्ट फिल्म में वह बतौर हीरो सुसाइड जैसी घटना से लड़ने की कोशिश करता है ज़िंदगी की ओर लौटने का संदेश देता है वह असल ज़िंदगी में स्वयं खुदकुशी कर लेगा इसका किसी को यकीन नहीं हो रहा। उनकी मौत के बाद एक बार फिर बॉलीवुड की चकाचौंध भरी दुनिया के पीछे के अंधकारमय जीवन पर चर्चा होने लगी है। इसके साथ ही डिप्रेशन और अकेलेपन पर भी बहस छिड़ गई है। लोग इन मुद्दों पर अपनी अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर रहे हैं। लेकिन सुशांत सिंह की मौत जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा करती है वह यह कि आयुष्मान भव:… जुग-जुग जियो… दूधों नहाओ, पूतों फलो… जैसे आशीर्वादों से भरे देश में जिन्दगी को ठोकर मार कर लोग मौत को क्यों गले लगा लेते हैं? क्या इसे आत्महत्या कहना उचित है? या फिर इसे सामाजिक हत्या कहना चाहिए?
क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति आत्महत्या जैसा बड़ा कदम उठाता है तो वह यूं ही नहीं उठा लेता। बल्कि उसके पीछे महीनों से चल रही उसकी मानसिक जंग का बड़ा हाथ हो सकता है। परिवार और दोस्तों या अन्य करीबियों द्वारा की गई उपेक्षा का भी हाथ हो सकता है। सबसे अधिक जो कारण युवाओं द्वारा उठाए गए आत्महत्या में मिलता है वह है निराशा और अकेलापन। अपने मनमुताबिक ज़िंदगी ना मिलने और परिवार एवं समाज द्वारा मिले प्रेशर को बर्दाश्त करना उनके लिए अधिक कठिन होता है जिसका परिणाम हम आत्महत्या के रुप में देखते हैं।
राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा (40 फीसदी) किशोर और युवा शामिल हैं। बीते पांच दशक में भारत में आत्महत्या की दर में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। किसानों की आत्महत्या के बारे में हम लम्बे समय से सुनते आ रहे हैं। कर्ज, भूख, गरीबी, बीमारी से लगातार आत्महत्या कर रहे किसानों का मामला बहुत गम्भीर है। लेकिन चिन्ता की बात यह है कि किसानों के बाद देश की पढ़ी-लिखी युवा आबादी भी आत्महत्या की ओर तेजी से बढ़ रही है।
भारत एक युवा राष्ट्र है अर्थात यहां युवाओं की आबादी सबसे ज्यादा है, मगर यह विचलित करने वाली बात है, कि इस आबादी का बड़ा हिस्सा निराशा और अवसाद से ग्रस्त है। वह दिशाहीन और लक्ष्यहीन है। खुद को लूजर समझता है। लक्ष्य को हासिल करने के पागलपन में उसके अन्दर संयम, संतुष्टि और सहन करने की ताकत लगातार घट रही है और किसी क्षेत्र में असफल होने पर जीवन से नफरत के भाव बढ़ रहे हैं। शिक्षा, बेरोजगारी, प्रेम, जैसे कई कारण हैं जो युवाओं को आत्महत्या की ओर उकसाते हैं।
डब्ल्यूएचओ के सितंबर 2019 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्याओं के बीच सीधा संबध देखा गया है। साथ ही किसी मुसीबत की हालत में होने वाले सदमे, हिंसा और दुर्व्यवहार का सामना करना भी आत्मघाती बर्ताव से बहुत गहराई से जुड़ा पाया गया है। हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता शून्य के समान है। लोगों की मानसिक स्थिति को समझने वाला भी कोई नहीं मिलता और ना ही उन्हें मानसिक थेरेपी या चिकित्सा सही समय पर उपलब्ध हो पाती है।
समय है सोशल मीडिया की वर्चुअल ज़िंदगी से निकलकर अपने आसपास के लोगों की ओर देखने का। समाज के लोगों से संवाद स्थापित करने का। यह समझने की कोशिश करने का कि उनकी मानसिक दशा कैसी है। वह किन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं। इसके साथ ही वास्तविक सफलता पर भी मंथन होना चाहिए। जिस चकाचौंध भरी सफलता के पीछे हम भागने का प्रयास करते हैं क्या वास्तव में वह हमारी मंज़िल है?
सुशांत सिंह राजपूतः सुसाइड या सोशल मर्डर?
क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति आत्महत्या जैसा बड़ा कदम उठाता है तो वह यूं ही नहीं उठा लेता। बल्कि उसके पीछे महीनों से चल रही उसकी मानसिक जंग का बड़ा हाथ हो सकता है। परिवार और दोस्तों या अन्य करीबियों द्वारा की गई उपेक्षा का भी हाथ हो सकता है।