बिहार की जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट में सबसे चौंकाने वाला पहलू अनुसूचित जातियों की गणना को लेकर है –(जो की निस्संदेह रूप से सभी सामाजिक समूहों में सबसे कमजोर वर्ग है ) – जिसकी आबादी में 2011 की जनगणना की तुलना में भारी उछाल दर्ज किया गया है।
बारह साल पहले वे राज्य की आबादी का 15.9 प्रतिशत थे। अब, 2 अक्टूबर को जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति बिहार की कुल आबादी का 19.65 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजाति का आंकड़ा भी 1.28 फीसदी से बढ़कर 1.68 फीसदी हो गया। एससी समाज की आबादी में हुई इस 3.75 प्रतिशत की वृद्धि का निष्पक्ष विश्लेषण करने की आवश्यकता है क्योंकि पूर्ण रूप से उनकी आबादी 2011 में 1.65 करोड़ से बढ़कर 2023 में 2.56 करोड़ हो गई है। यह लगभग 65 प्रतिशत की वृद्धि है। इस आँकड़े में चौकाने वाली बात यह है कि बिहार की आबादी 10.41 करोड़ से बढ़कर 13.07 करोड़ हो गई, जिसका मतलब है कि कुल आंकड़ा केवल 25% ही बढ़ा है।
धार्मिक ऐंगल
मेन्स्ट्रीम मीडिया ने इस बड़े घटनाक्रम की अनदेखी की और एक वर्ग ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि कैसे मुसलमानों का प्रतिशत 2011 में 16.9 की तुलना में बढ़कर 17.7 हो गया। एक प्रमुख राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल के एंकर ने इस बात पर अपनी चिंता जाहिर की कि कैसे 12 वर्षों की इसी अवधि में हिंदुओं का प्रतिशत 82.7 से घटकर 81.99 हो गया। किसी एक या दो समुदायों की जनसंख्या में 0.7% या 0.8% की वृद्धि या गिरावट के पीछे कई सारे कारण हो सकते हैं। यह एक सांख्यिकीय त्रुटि भी हो सकती है।
लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में शायद ही किसी ने इस बात पर चर्चा की हो कि इतने कम समय में दलितों का अनुपात इतने बड़े पैमाने पर कैसे और क्यों बढ़ गया। वैसे भी, कोई भी दलित तो नहीं बनता या बनाया जाता है जैसा कि इस्लाम और ईसाई धर्म के बारे में कहा जा सकता है। 2011 की तरह बिहार में अब भी अनुसूचित जाति की सूची में 22 दलित जातियां हैं। यानी इस सूची में किसी नई जाति को शामिल नहीं किया गया है। 5.31% के साथ दुसाध या पासवान और 5.25% के साथ रविदास (जिन्हें भारत में कहीं-कहीं चमार या जाटव के रूप में भी जाना जाता है) बिहार के दलितों में दो सबसे बड़ी जातियां हैं।
अनुसूचित जाति की आबादी में हुई इस वृद्धि ने कई सवाल खड़े किए हैं। क्या अनुसूचित जातियों की महिलाओं की प्रजनन दर अचानक बढ़ गई है? या परिवार नियोजन (जन्म नियंत्रण) कार्यक्रम अब उनके बीच अच्छी तरह से काम नहीं कर रहा है? या यह कि दलित समाज में शिशु और बाल मृत्यु दर में बड़े अनुपात में सुधार होने लगा है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि गणना करने वाले कर्मचारियों ने 2011 की जनगणना में आंकड़े एकत्र करने में अपना काम ठीक से नहीं किया या अनुसूचित जातियों के एक बड़े हिस्से के घरों तक कभी पहुंचे ही नहीं? या ये माना जाए कि अनुसूचित जातियों ने जाति सर्वेक्षण के महत्व को महसूस करते हुए जाती सर्वेक्षण में उत्साहपूर्वक सहयोग किया है, जबकि सर्वेक्षण करने वाली केवल अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे?
सवर्णों की उदासीनता
यहां इस बात का उल्लेख करने की आवश्यकता है कि कई मामलों में उच्च जातियों ने जातीय सर्वेक्षण करने वाले कर्मचारियों के प्रति घोर उदासीन रुख (एक तरह की घृणा और शत्रुता)जो इस बार उनके दरवाजे पर आए। उनमें से कई ने सोचा कि जाति जनगणना या सर्वेक्षण की रिपोर्ट कभी भी दिन की रोशनी नहीं देखेगी जैसा कि कई राज्यों में हुआ है (उदाहरण के तौर पर कर्नाटक और उड़ीशा और करीब एक दशक पहले केंद्र द्वारा कराई गई राष्ट्रीय जनगणना)। उनमे से कुछ लोगों को उम्मीद थी कि अदालत इस तरह की किसी भी कवायद को रोक देगी।
अब वही लोग शिकायत कर रहे हैं कि हिंदू उच्च जातियों का प्रतिशत इतना कम कैसे हो सकता है (करीब 10.5 प्रतिशत से अधिक)।–आंकड़ों में उनकी आबादी इतनी काम इसलिए है क्योंकि गणना करने वाले उनके घर आए ही नहीं । लेकिन एक सच यह भी है कि उनमें से कई लोगों खुद को सूचीबद्ध करने में कोई उत्साह नहीं दिखाया।
जबकी अन्य लोग उच्च जाति की आबादी में ‘गिरावट’ के लिए पलायन को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि बड़ी संख्या में एससी और पिछड़े भी राज्य छोड़कर स्थायी रूप से कहीं और बसे हुए हैं, जैसे की पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि। दिलचस्प बात यह है कि सामान्य अपेक्षा के ठीक उलट यादव (14.26%), पासवान और रविदास का अनुपात अधिक था। इस बात को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है की पिछड़े वर्ग में ये जातियां अन्य जातियों से राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक दिखीं और शायद वो जाति सर्वेक्षण के महत्व को अच्छे से समझ रही थीं।
विचित्र तुलना
इन पहलुओं पर चर्चा करने के बजाय बड़ी संख्या में मीडियाकर्मी या तो इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने में व्यस्त दिख रहे हैं या 1931 की जनगणना जब पूरे अविभाजित भारत में सभी जातियों की संख्या एकत्र की गई थी। के साथ बेतुकी तुलना कर रहे हैं। चौथे स्तम्भ के तहत आने वाले में इन देवियों और सज्जनों को शायद इस बात का एहसास ही नहीं है कि 1931 में ओडिशा और झारखंड भी बिहार का हिस्सा थे। उन्हें क्रमशः 1 अप्रैल, 1936 और 15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग किया गया था।
इसके अलावा, बिहार से 1947 में भारत के विभाजन के समय और उसके बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा हस्तांतरण हुआ है। बड़ी संख्या में मुसलमान पाकिस्तान चले गए और तत्कालीन पूर्वी बंगाल से हिंदू बंगाली आबादी का एक अच्छा हिस्सा (बाद में पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश कहा जाता है)बिहार में बस गया था, खासकर इसके उत्तर पूर्वी जिलों में।इसलिए, इस तरह की विचित्र तुलना करना हमारे बुद्धिजीवियों के बौद्धिक दिवालियापन को उजागर करता है। या फिर वो आम जनता को भ्रमित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं?
(यह लेख सियासत न्यूज़ से लिया गया है।)