Druv Gupt ✒️…..
दिल्ली के निज़ामुद्दीन में मौज़ूद मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार दिल्ली की मेरी सबसे प्रिय जगह है। वहां की बेशुमार भीड़भाड़ में जब भी अकेला महसूस करता हूं, यह मज़ार मेरा सबसे भरोसेमंद साथी होता है। यह मज़ार संगमरमर के पत्थरों का बना एक छोटा-सा घेरा नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है। एक ऐसा स्मारक जिसमें उस दौर की तहज़ीब और उस दौर से आगे सोचने और निकलने की ज़द्दोज़हद सांस लेती है। इस चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौज़ूद है जिसने ज़िन्दगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। मनुष्य के मन की जटिलताओं, अपने वक़्त के साथ उसके अंतर्संघर्ष और स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जैसा विद्रोह ग़ालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है। जब भी ग़ालिब की मज़ार की दीवार से लगकर बैठता हूं, उन हज़ारों ख़्वाहिशों की दबी-दबी चीखों की आहटें महसूस होती हैं जिनके पीछे ग़ालिब उम्र भर भागते रहे। अधूरे सपनों और नामुकम्मल ख्वाहिशों के वैसे सफ़र पर जो कभी किसी का भी पूरा नहीं होता।
ग़ालिब की मज़ार को निजामुद्दीन के बेहद भीडभाड वाले इलाके का एक एकांत कोना कहा जा सकता है। निजामुद्दीन के चौसठ खंभा के उत्तरी हिस्से में लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्गफीट का यह परिसर लाल पत्थरों की दीवारों से घिरा हुआ क्षेत्र है जिसमें सफ़ेद संगमरमर से बनी ग़ालिब की एक छोटी-सी मज़ार है। पहले यहां सिर्फ उनकी कब्र हुआ करती थी। मज़ार और उसके आसपास की संरचना सबसे पहले 1955 में और उसके बाद लगभग आठ साल पहले की गई थी। उनकी मज़ार के पीछे उनकी बेगम उमराव बेगम की कब्र है जिनकी मृत्यु ग़ालिब की मृत्यु के एक साल बाद हुई थी। ग़ालिब की मज़ार में संगमरमर पर ग़ालिब का यह शेर दर्ज़ है – ‘न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता / डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता !’ ग़ालिब की मज़ार की सबसे ख़ास बात मुझे यह लगती है कि वहां दर्शकों की कोई भीड़ नहीं होती। कभी-कभी इक्का-दुक्का लोग वहां दिख जाते हैं। तमाम भीड़ पास ही स्थित हज़रत निजामुद्दीन और अमीर खुसरो की दरगाह की ओर मुख़ातिब होती है। मज़ार के सटे ग़ालिब के सम्मान में भारत सरकार द्वारा स्थापित ग़ालिब अकादमी है। इस अकादमी में दुनिया भर के उर्दू साहित्य का बड़ा संग्रह भी है और ग़ालिब के साहित्य और उनके जीवन से जुडी चीज़ों का एक छोटा-सा संग्रहालय भी। ग़ालिब की हमेशा बंद रहने वाली मज़ार में प्रवेश करने के लिए अकादमी से चाभी लेनी पड़ती है। मज़ार के आसपास की तंग गलियों में गन्दगी तो बहुत है, लेकिन मज़ार के अंदर प्रवेश करते ही सब कुछ भूल जाता है। ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ के अलावा मिर्ज़ा ग़ालिब से अकेले में मिलना हो तो दिल्ली में इससे बेहतर जगह और कोई नहीं। बल्लीमारन की तंग और भीड़भाड़ वाली गलियों में स्थित उनकी हवेली भी नहीं।
‘दीवान-ए-ग़ालिब’ मेरी सबसे पसंदीदा किताब है। ग़ालिब की मज़ार पर, उनकी सोहबत में उसे पढ़ना मेरे लिए हमेशा एक अतीन्द्रिय अनुभव होता है। लगता है कि मैं ग़ालिब के लफ़्ज़ों को ही नहीं, उनके व्यक्तित्व, उनके अंतर्संघर्षों, उनके फक्कड़पन और उनकी पीड़ा को भी शिद्दत से महसूस कर पा रहा हूं। वहां देर तक बैठने के बाद ग़ालिब से जो कुछ भी हासिल होता है उसे एक शब्द में कहा जाय तो वह है बेचैनी। रवायतों को तोड़कर आगे निकलने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। अपनी तनहाई को लफ़्ज़ों से भर देने की बेचैनी। इश्क़ के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे सिरों को फिर से उलझाने की बेचैनी। उन तमाम बेचैनियों को निकट से महसूस करने का ही असर होता है कि सामने बैठे-बैठे कब्र के नीचे उनका कफ़न भी मुझे कभी-कभी हिलता हुआ महसूस होता है। भ्र्म ही सही, लेकिन बहुत खूबसूरत भ्रम – ‘अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग / हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पांव !
ग़ालिब अपने मज़ार में बिल्कुल अकेले नज़र आते हैं। अपनी ज़िन्दगी में भी ग़ालिब को शायद अकेलापन ही पसंद रहा था। जीते जी उनकी ख्वाहिश यही तो थी – ‘पड़िए ग़र बीमार तो कोई न हो तीमारदार / और अगर मर जाईए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो’ ! उनके इस अकेलेपन में ग़ालिब से मेरा घंटों-घंटों संवाद चलता रहता है। अकेलेपन की अकेलेपन से बातचीत ! उनसे कुछ सवाल करता हूं तो तत्काल जवाब भी मिल जाता है मुझे। शायद वर्षों तक साथ रहते-रहते कोई टेलीपैथी काम करने लगी है हमारे बीच। या शायद खूबसूरत भ्रम ही। पिछली सर्दियों में एक दिन देर तक उनके मज़ार पर बैठने और उन्हें पढ़ने-समझने के बाद मैं मज़ार के सामने की एक बेंच पर लेट गया था । मुझे लगा कि अपनी क़ब्र से ग़ालिब मुझे एकटक देखे जा रहे हैं। उनसे कुछ कहने की तलब हुई तो पता नहीं कैसे मुंह से यह शेर बेसाख्ता निकला – ‘कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं / कब से ‘ग़ालिब’ ग़ज़ल-सरा न हुआ’ ! पता नहीं क्या था कि हवा के एक तेज झोंके ने मेरे बगल में पड़े दीवान-ए-ग़ालिब के पन्ने पलट दिए। सामने जो ग़ज़ल थी, उसके जिस शेर पर पहली निगाह पड़ी, वह यह था – ‘क्यूं न फिरदौस में दोज़ख को मिला लें यारब / सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही !’
दिल्ली में सल्तनत और मुग़ल काल के कई नायाब भवन और किलें मिलेंगे। सूफी संतों, बादशाहों और उनके दरबारियों की मज़ारें भी। भूतिया कहलाने वाली कई मध्यकालीन इमारतें भी। दिल्ली ऐसी शानदार इमारतों से भरी पड़ी है जिनसे मुख़ातिब होकर हमें अपने बौनेपन का एहसास बार-बार होता है। अगर दिल्ली की भीड़ में आपको ज़रा देर के सुकून, बहुत सारे संवेगात्मक अनुभवों और थोड़ी रचनात्मक प्रेरणा की दरकार है तो कभी जाईए दिल्ली की भव्य इमारतों की तुलना में मिर्ज़ा ग़ालिब की बहुत छोटी-सी मज़ार पर ! एक शायर के उस एकांत कोने में कुछ देर उनके सामने बैठने के बाद आपको लगेगा कि आप उनसे मुख़ातिब भी हैं और क़रीब भी। एक ऐसी अनुभूति जो आपको सदियों पहले ले जाएगी और वर्तमान की सभी जटिलताओं के पन्ने आपके सामने खोलकर रख देगी।
मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती पर खिराज़-ए-अक़ीदत !