मणिपुर क्यों जल रहा है?

देश के ज़्यादातर हिस्सों में कट्टर हिंदुत्ववादी ताक़तें नफ़रत का जो ज़हरीला एजेंडा चला रही हैं, उसके तहत आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वे ईसाइयों को ख़तरनाक दुश्मन के तौर पर पेश कर रही हैं। इस एजेंडे से लगता है कि ये दंगे आदिवासी बनाम ग़ैर-आदिवासी नहीं, बल्कि सांप्रदायिक हैं। यह बात इससे भी सिद्ध होती है कि इन दंगों में पहली बार धार्मिक स्थलों पर हमले किए गए।

गीता प्रेस ने प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक ‘हिन्दू’ का निर्माण किया है

हिंदी भाषी क्षेत्र में आरएसएस-भाजपा की सफलता में गीता प्रेस का योगदान हम भले न पहचानें, आरएसएस-भाजपा अवश्य पहचानती है और इसी अतुलनीय योगदान के लिए गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस को दिया जा रहा है। गांधी शांति पुरस्कार इसलिए कि गांधी के नाम के आवरण में गीता प्रेस की प्रतिगामी भूमिका को ढका जा सके और गीता प्रेस को गांधी से जोड़कर एक बार फिर से गांधी को सनातनी हिंदू सिद्ध किया जा सके।

गीता प्रेस को ‘शांति’ पुरस्कार और ‘आल्ट-राईख’ की याद

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2018 में कारवाँ पत्रिका ने यह लेख प्रकाशित किया था। कैरोल शैफ़र ने लिखा था और इसके प्रकाशन तथा लिखे जाने की तैयारी में दसियों वर्ष की मेहनत है। यह आलेख मूलतः ‘आर्कटोस’ नामक प्रकाशन गृह पर है। इस प्रकाशन के संस्थापक ‘डेनियल फ़्रायबर्ग’ और अन्य सदस्यों की विचारधारा ने दक़ियानूसी और नफ़रत फैलाने वाली किताबों का जो कारोबार खड़ा किया है उसे पढ़ते हुए आप सकते में आ जाएँगे।

अल्लामा इक़बाल की प्रासंगिकता बरक़रार है

दरअसल सत्ता के नशे में चूर हुक्मरानों का यह सोचना है कि उन्होंने इक़बाल को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर उन्हें दफ़्न कर दिया है लेकिन अल्लामा इक़बाल कोई टिमटिमाता हुआ दिया नहीं हैं जो उनकी फूंकों से बुझ जाएंगे। दुनिया में बहुत कम शायर ऐसे हुए हैं जिनकी शायरी को देशों की सीमाओं से परे, अवाम ने इतना पसंद किया हो।

लोकतंत्र में राजतंत्र के प्रतीकों का क्या काम?

जैसे ईंट-सीमेंट की बनी इमारत लोकतंत्र की संसद नहीं होती है वैसे ही राजतंत्र के किसी प्रतीक की जगह भी संसद में नहीं होती है। संसद में आप करते क्या हैं, कैसे करते हैं और जो करते हैं वह संविधानसम्मत है या नहीं, यही कसौटी है कि वह लोकतंत्र की संसद है या नहीं।

हाशिमपुरा हिरासती हत्याकांड के 36 वर्ष

लगभग दस वर्षों से उत्तर भारत मे चल रहे राम जन्मभूमि आंदोलन ने पूरे समाज को बुरी तरह से बांट दिया था। उत्तरोत्तर आक्रामक होते जा रहे इस आंदोलन ने ख़ास तौर से हिन्दू मध्यवर्ग को अविश्वसनीय हद तक साम्प्रदायिक बना दिया था। विभाजन के बाद सबसे अधिक साम्प्रदयिक दंगे इसी दौर मे हुए थे। स्वाभाविक था कि साम्प्रदायिकता के इस अन्धड़ से पुलिस और पीएसी के जवान भी अछूते नहीं रहे थे।

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के मायने

यह जीत कांग्रेस के लिए ख़ास है। 1985 के बाद कर्नाटक में कांग्रेस की यह सबसे बड़ी जीत है। इस जीत से कांग्रेस को ख़ुद सीखने की ज़रूरत है। कर्नाटक और हिमाचल दोनों राज्यों ने साफ़ संदेश दिया है कि जनहित के मुद्दों से, स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रह कर भी नफ़रत की राजनीति को परास्त किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि संगठन की आंतरिक गुटबंदियों से निपटते हुए यह लड़ाई‌ सामूहिकता के साथ लड़ी जाए।

बिहार शरीफ़ दंगा प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा : प्रतिनिधि मंडल

बिहार शरीफ़ में राम नवमी के अवसर पर हुए दंगे के बाद ख़बरें और तस्वीरें चर्चा में रहीं। इसी बीच जमाअत-ए-इस्लामी हिंद और स्टूडेंट्स...

विश्व भर में मनाया गया पहला अंतर्राष्ट्रीय इस्लामोफ़ोबिया विरोधी दिवस

इस दिन को मनाने के लिए 15 मार्च की तारीख़ इसीलिए चुनी गई क्योंकि यह क्राइस्ट चर्च मस्जिद पर हुई गोलीबारी की बरसी है। न्यूज़ीलैंड के क्राइस्ट चर्च स्थित अल नूर मस्जिद और लिनवुड इस्लामिक सेंटर में 15 मार्च 2019 को हुई गोलीबारी में 51 लोग मारे गए थे और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे। धर्म और विश्वास की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट में पाया गया कि मुसलमानों के प्रति संदेह, भेदभाव और नफ़रत ‘महामारी के अनुपात’ से बढ़ गई है।

नफ़रत के ख़िलाफ़ हिंदू समाज को भी आना होगा मुसलमानों के साथ

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हिंसा करने वाले तत्व जिस चीज़ को अपने लिए ताक़त बना रहे हैं और अपराध करके जहां जा कर छुप रहे हैं, वह धार्मिक और सामाजिक आश्रय ही है। ऐसे में उस धर्म और समाज के सम्मानित, शांतिप्रिय और सौहार्द में विश्वास रखने वाले लोगों का कर्त्तव्य है कि वे अपनी चुप्पी तोड़ते हुए धार्मिक और सामाजिक मंचों पर इस तरह की घटनाओं और इन घटनाओं को अंजाम देने वालों की न सिर्फ़ निंदा करें बल्कि जो पीड़ित हैं उन्हें न्याय दिलाने का आह्वान भी करें।