आधुनिक दौर की आनंददायी ग़ुलामी

प्राचीन दासता प्रणाली से कोसों दूर एक ऐसी व्यवस्था भी है जो एक सुखी दास का निर्माण करती है। एक ऐसा अनुबंध जिसे स्वयं ग़ुलाम भी नहीं तोड़ना चाहता। और अगर वह इसे तोड़ भी देता है, तो अपने जीवन की अनेक असुरक्षाओं का मारा एक नया ग़ुलाम उसकी जगह ले लेता है। हाँ! मैं आधुनिक रोज़गार प्रणाली के बारे में बात कर रहा हूँ - 21वीं सदी के मनुष्य के लिए एक भ्रष्ट, जानलेवा लेकिन सुखदायक प्रणाली।

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आधुनिक दौर की आनंददायी ग़ुलामी

आसिम जावेद

मानवता के आरम्भ से ही, मनुष्य की बार-बार कोशिश रही है कि वह ख़ुद को महान सृजनकर्ता के बराबर श्रेणी में पहुंचा सके। कभी तो उसकी नकल करते हुए, और कभी स्वयं ख़ुद को सृजनकर्ता घोषित करते हुए। इस स्वप्न का एक प्रमुख प्रतिबिंब ग़ुलामी की अवधारणा में मिलता है। हालांकि मनुष्य निश्चित रूप से सर्वशक्तिमान की रचना है, परंतु इस बात से इनकार किया जाता रहा है कि मनुष्य उस सर्वशक्तिमान की दासता में भी है। एक मनुष्य स्वयं को दूसरे मनुष्य का स्वामी बनाकर – दूसरे मनुष्य के जीवन को अपने नियंत्रण में लेकर ईश्वर की इस भूमिका को जीने की कोशिश करने लगा।

मनुष्यों ने अन्य मनुष्यों, महिलाओं और बच्चों को ग़ुलाम बनाने की कोशिश की, उन्हें किसी ऐसी वस्तु या अपने स्वामित्व की सामग्री की तरह समझा, जिसका उपयोग अपनी मर्ज़ी और अहं के अनुसार किया जा सके। पहले तो इस प्रकार की दासता नस्ल पर आधारित नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे ग़ुलामी एक व्यवस्था के रूप में फलती-फूलती गई, यह व्यावसायिक, नस्लीय और वंशागत होती चली गई। ठीक वैसे ही जैसे वस्तुओं को ख़रीदा, बेचा, और  इस्तेमाल किया जाता है, मनुष्य का भी शोषण किया जाने लगा।

और फिर आधुनिक विश्व व्यवस्था का उदय हुआ, जिसकी कल्पना स्वतंत्रता और पूरी मानवता की समानता के मूल प्रस्ताव को समर्पित थी, लेकिन वास्तव में इसका आरम्भ एक ग़ुलाम समाज के रूप में हुआ। निःसंदेह यह सिद्ध किया जा सकता है कि ग़ुलामी ने हमारी आत्मा पर एक अमिट छाप छोड़ी है। इससे पहले कि इस नई लोकतांत्रिक दुनिया को इस घोर अलोकतांत्रिक संस्था से मुक्त किया जा सके, मानवता को एक भयानक क़ीमत चुकानी पड़ी। ग़ुलामी के कभी न ख़त्म होने वाले युग के अंत के साथ, पुरानी पारंपरिक व्यवस्था को, कम से कम कुछ लोगों के लिए ही सही, पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया।

परन्तु, लगभग सभी ग़ुलामों के लिए ग़ुलामी का यह अंत लोकतांत्रिक समानता की एक नई लड़ाई की शुरुआत भर था; मानव जाति के समान अधिकारों और समान अवसरों के उस सपने को साकार होने से पहले एक और पीढ़ी को काम आ जाना था। आरंभ से ही स्वतंत्र कुछ लोगों के वंशजों का, पूर्व के ग़ुलामों के बच्चों के समाज में आगे निकल जाने का डर नीले आकाश की तरह स्पष्ट दिखाई देने लगा।

संभवत: यह वही डर है जिसने ग़ुलामी की आज विद्यमान विकसित अवधारणा को जन्म दिया जिसमें प्रमुख रूप से मानव तस्करी शामिल है। इसे आज की आधुनिक ग़ुलामी माना जाता है, जो अपहरण, जबरिया श्रम, वेश्यावृत्ति आदि कई रूपों में मौजूद है।

परन्तु आज, इस प्रकार की प्राचीन दासता प्रणाली से कोसों दूर एक ऐसी व्यवस्था भी है जो एक सुखी दास का निर्माण करती है। एक ऐसा अनुबंध जिसे स्वयं ग़ुलाम भी नहीं तोड़ना चाहता। और अगर वह इसे तोड़ भी देता है, तो अपने जीवन की अनेक असुरक्षाओं का मारा एक नया ग़ुलाम उसकी जगह ले लेता है। हाँ! मैं आधुनिक रोज़गार प्रणाली के बारे में बात कर रहा हूँ – 21वीं सदी के मनुष्य के लिए एक भ्रष्ट, जानलेवा लेकिन सुखदायक प्रणाली।

ग़ुलामी की प्रत्येक अवधारणा एक छोटे से प्रतिशत के हितों के लिए ही रही है जो दुनिया का मालिक बनना चाहता है। परंतु यह महान उपलब्धि बलिदान मांगती है, और इसलिए ग़रीब और असहाय लोगों का पवित्र बलिदान दिया जाता है। अतीत में तो यह सब ज़मीन और सोने की लालच में होता था। फिर यह तेल और गैस के बारे में हुआ। और अब यह तकनीक के बारे में है। लेकिन सभी क़िस्में एक उभयनिष्ठ बिंदु पर ले जाती हैं – धन और शक्ति, संक्षेप में बेहिसाब नियंत्रण। अपने आप को ऐसी स्थिति में पहुंचाना जहां आप पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए या नहीं उठाया जा सकता। किसी के प्रति जवाबदेह न होना। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि शुरुआती समय में ग़ुलामी का क्या मतलब था?

– ग़ुलाम अपनी आज़ादी खो देता था।

– ग़ुलाम को रहने की जगह मिलती थी।

– ग़ुलाम को जीवित रहने और मालिक की सेवा करते रहने के लिए पर्याप्त भोजन दिया जाता था।

– ग़ुलाम मालिक के लिए काम करता था और कमाए गए लाभ में उसका कोई हिस्सा नहीं होता था।

– ग़ुलाम एक आसान प्रतिस्थापन था, जिससे कोई बंधन, मालिक द्वारा कोई प्रतिबद्धता नहीं थी।

– ग़ुलाम हर चीज़ के लिए पूरी तरह से मालिक पर निर्भर होता था, इस हद तक कि मालिक की दया को मालिक के उपहार या वरदान के रूप में देखा जाता था, क्योंकि इसकी उम्मीद ही नहीं की जाती थी।

सूची लंबी होती जाती है और अधिक संभावना है कि इसे स्वामी के स्वामित्व वाली एक तस्वीर फ़्रेम के भीतर क़ैद किए गए दास के जीवन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। ग़ुलाम का सारा जीवन इसी फ़्रेम के भीतर ही सीमित है और कुछ भी हो जाए, वह इस फ़्रेम को नहीं छोड़ सकता।

आज जब हम बड़ी कंपनियों के आधुनिक कर्मचारियों को देखते हैं, उनका जीवन ग़ुलामों से अलग नहीं प्रतीत होता। जब तक छुट्टी स्वीकृत नहीं हो जाती वह एक दिन की भी छुट्टी नहीं ले सकता। वह कंपनी के समय के अनुसार काम करता है। उसे अगले महीने तक पहुंचने तक के लिए ही पर्याप्त भुगतान किया जाता है। हर बार जब भी उसे लगता है कि उसने अपने जीवन स्तर को ऊपर उठा लिया है, वह ख़ुद को खाद्य श्रृंखला के निचले भाग में ही पाता है। कर्मचारी इस कॉर्पोरेट ग़ुलामी को इस हद तक स्वीकार कर लेता है कि जब उसका मालिक उसे रिहा कर देता है, तो वह सेवा करने के लिए दूसरे मालिक को खोजने के लिए बेताब रहता है। हालांकि उसे वहां भी उस लाभ में कोई हिस्सा नहीं मिलता जिसके लिए वह काम करता है। वह बस अक्सर यही सुनता रहता है कि वाशरूम में टिशू पेपर की कमी है क्योंकि पिछली तिमाही में हुए नुक़सान के कारण कंपनी को कुछ लागतों में कटौती करनी पड़ी है, जबकि वह इस बात से हैरान होता है कि कंपनी के मालिक प्रत्येक बीतती तिमाही के साथ कैसे अमीर हो रहे हैं। ग़ुलाम शिकायत करता रहता है और फिर भी आनंद में रहता है कि उसका जीवन संसार के कई अन्य लोगों से बेहतर है!

अंग्रेज़ी से अनुवाद: उसामा हमीद

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