कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान बढ़े घरेलू हिंसा के मामले

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बीते दिनों जैसे-जैसे दुनिया भर की सरकारों ने कोरोना वायरस के फैलने को नियंत्रित करने के लिए लॉकडाउन लागू किया, उसी दौरान भारत सहित कई देशों में घरेलू हिंसा की ख़बरों में अचानक बड़ा उछाल देखा गया।

महिलाओं पर हाथ उठाना, उनके साथ बुरा व्यवहार करना और उन्हें प्रताड़ित करना पुरुष के लिए अपनी पौरुष शक्ति दिखाने का सबसे आसान तरीक़ा होता है। यह केवल आज की बात नहीं है बल्कि पुरुषों के लिए यह एक हथियार है, जिसके माध्यम से वे अपनी क्षमता का परिचय देते रहे हैं।

घरेलू हिंसा के शोर में महिलाओं की आवाज़ को आज से ही नहीं बल्कि सदियों से कुचला जा रहा है। शरीर पर चोटों के निशान और आंखों के नीचे काले घेरे को महिलाएं आज से नहीं बल्कि सदियों से छुपाना जानती हैं। ऐसे में मौजूदा समय में लॉकडाउन के दौरान जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, उसमें कोई नई और अचरज की बात नहीं है।

प्राचीन समय से ही महिलाओं के साथ दहेज, यौन शोषण, बालविवाह आदि के नाम पर हिंसा की जाती रही है और ये वही भारतीय समाज है जिसमें महिलाओं ने कभी सती होने जैसी भयावह प्रथा को भी झेला है। लेकिन हमारे समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा का यहीं तक अंत नहीं होता कि उनको मौत के घाट उतार के ख़त्म कर दिया जाए बल्कि इससे आगे बढ़कर उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से परेशान करना भी है।

कोरोना वायरस को रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन ने वायरस को फैलने से तो रोका, लेकिन इस दौरान लोग घरों में क़ैदियों जैसा महसूस करने लगे। इस लॉकडाउन ने लोगों को मानसिक तनाव से ग्रस्त कर दिया। और इसका शिकार ज़्यादातर महिलाओं को होना पड़ा। लॉकडाउन के शुरुआती 3 महीनों में घरेलू हिंसा की घटनाएं भी ख़ूब हुईं। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि लॉकडाउन के दौरान 3 महीनों में महिला हेल्पलाइन पर 2.47 लाख से ज़्यादा शिकायतें आईं। 2018 के आंकड़ों के मुताबिक़ पति और रिश्तेदारों द्वारा महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के मामले क़रीब 32 फ़ीसदी हैं मतलब क़रीब एक तिहाई। पुलिस ने 2018 में 103272 ऐसे मामले दर्ज किए थे। भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक़ 2015-16 के दौरान 33 फ़ीसदी औरतों को किसी-न-किसी रूप में अपने पति की हिंसा का शिकार होना पड़ा है फिर चाहे वो शारीरिक, यौनिक या फिर भावनात्मक स्तर पर हो। लेकिन इनमें से सिर्फ़ 14 फ़ीसदी औरतें ही मदद के लिए सामने आईं।

राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2021 से 25 मार्च 2021 के बीच महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की 1,463 शिकायतें प्राप्त हुईं। पिछले साल कोविड को फैलने से रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था लेकिन इसके कारण घरेलू हिंसा की कई पीड़िताएं उन पुरुषों के साथ फंस गईं जो यह कृत्य करते हैं। अनिवार्य रूप से सभी देशों में कोरोना वायरस के प्रसार को सीमित करने के उपायों के तहत महिलाओं और बच्चों समेत सभी लोग घर पर ही सीमित हो गए। अप्रैल में मोरक्को एसोसिएशन ने कहा था कि “महिलाओं के लिए घर सबसे ख़तरनाक जगह है।” जबकि एक महिला के लिए सबसे सुरक्षित जगह घर ही हो सकता है अगर घर के बाहर महिला है तो उसे दूसरी कई हिंसाओं का सामना करना पड़ता है और आये दिन अख़बार में बलात्कार की घटनाएं हमारी नज़रों से ओझल नहीं हैं।

33 साल की रूपा (परिवर्तित नाम) कहती हैं कि वे घर में घुटन महसूस करती हैं। उनके पति दिन भर घर पर रहते हैं और ड्रग्स का सेवन करते हैं और उसके बाद हिंसा करने लगते हैं। बात करने के दौरान वे कई बार रोने लगती हैं। रूपा ने समाचार एजेंसी एएफ़पी को फ़ोन पर बताया, “ड्रग्स ख़रीदने के बाद वे पूरा दिन मोबाइल पर गेम खेलकर निकाल देते हैं या फिर मुझसे मारपीट या गाली गलौज करते हैं।” 15 अगस्त को रूपा के पति ने उनके साथ मारपीट की और घर से बाहर कर दिया। मारपीट की घटना सात साल के बच्चे के सामने हुई। रूपा बताती हैं कि उनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं थी, उनके पति ने उन्हें बहुत मारा और वे मुश्किल से हिल पा रही थीं।

ऐसी सैकड़ों घटनाएं है जिन्हें औरतें दर्ज तक नहीं करवातीं। ये मामले और ये आंकड़े तो सिर्फ़ वही हैं जो सामने आते हैं लेकिन घर की इज़्ज़त बचाने के लिए कई महिलाएं चुप्पी साध कर इन्हें दबा लेती है और लगातार हिंसा का शिकार होती रहती हैं। यदि वर्तमान भारत में महिलाओं की स्थिति को हम प्राचीन भारत या बीत चुकी कुछ सदियों के ऐतिहासिक पन्नों से मिलाकर देखते हैं तो बदलाव सिर्फ़ कुछ बिंदुओं पर हुआ है और इसमें सबसे बड़ा नारा “महिला स्वतंत्रता” का आता है और ऐसा समझा जाता है कि आज महिलाओं को पूर्ण रूप से हर अधिकार प्राप्त है और एक आधुनिक समाज की महिला होने के नाते वो ख़ुद लड़ सकती है। आज महिला स्वतंत्रता के नाम पर बहुत आवाज़ उठाई जाती है लेकिन वास्तविकता यह है कि ख़ुद महिला अपने ही घर मे स्वतंत्र नहीं है और हिंसा का शिकार हो रही है।

पढ़ी-लिखी नारीवादी महिलाएं भी अपने प्रति हो रही घरेलू हिंसा को नहीं रोक पाती हैं और कई ऐसी ही महिलाओं ने मामले भी दर्ज करवाए हैं। भारत ही नहीं दुनिया भर में घरेलू हिंसा के मामले सामने आए हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ लेबनान और मलेशिया में हेल्पलाइन पर आने वाले कॉल्स की संख्या साल के इन्हीं महीनों में पिछले साल की तुलना में दोगुनी हो गई तो वहीं चीन में तीन गुनी हो गई। अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर अश्विनी देशपांडे कहती हैं, “लगता है कि लॉकडाउन की वजह से ये दुर्व्यवहार करने वाले लोग निराश और हताश महसूस कर रहे हैं और यह हताशा वो अपने साथी या फिर बच्चों पर हिंसा के रूप में निकाल रहे हैं।”

लेकिन मेरा सवाल ये है कि अगर इंसान धर्म पर भी न चले तो क्या इंसानियत भी ख़त्म हो चुकी है? एक ऐसा इंसान जिस पर आपका अधिकार हो, जो आपकी ज़िंदगी का साथी हो और हर तरह आपका ख़्याल रखने वाला हो उसपर इस तरह ज़ुल्म किया जाए और ख़ुद वो अपने ऊपर दोहरा ज़ुल्म अपनी आवाज़ को दबा करे। पिछले साल घरेलू हिंसा को ख़त्म करने के लिए और लोगों को इस संबंध में जागरूक करने के लिए कई सामाजिक संगठन सामने आए और घरेलू हिंसा का खुलकर विरोध किया। लेकिन चाहे जितने विरोध प्रदर्शन किये जाएं, भाषणों के द्वारा लोगों को समझाया जाए, सिर्फ़ इन चीज़ों से घरेलू हिंसा ख़त्म नहीं होगी बल्कि सरकार द्वारा भी सख़्त कानून बनाए जाने चाहिए।

एक विचारणीय विषय यह भी है कि कई घरेलू हिंसा के मामले पुरुष के नशे की हालत में होने की वजह से हुए हैं इसलिए सरकार को चाहिए कि सरेआम नशाख़ोरी को बंद करवाया जाए जो हर बुराई की जड़ है। इसके अलावा औरत और मर्द को भी चाहिए कि रिश्ते के बीच जो दीवार मौजूद है उसे वे ख़त्म करें। जो लोग वर्क प्लेस और सोशल मीडिया की दुनिया को अपनी वास्तविक दुनिया बना चुके हैं, उससे बाहर आकर उन्हें रिश्तों को समझना होगा, इन रिश्तों में प्यार का रस घोलना होगा तभी इन भयावह घटनाओं से छुटकारा मिल सकता है।

– ख़ान शाहीन

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार व स्त्री विमर्श के मुद्दों पर मुखर हैं।)

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