पुस्तक का नाम – संघम् शरणम् गच्छामि
लेखक – विजय त्रिवेदी
प्रकाशक – एका वैस्टलैंड
प्रकाशन वर्ष – 2020
भाषा – हिन्दी
पृष्ठ – 458
मूल्य – 599/-
“संघम् शरणम् गच्छामि” का अर्थ होता है, ‘मैंने संघ में शरण ली’। “शरणम् गच्छामि” वाक्यांश का उपयोग बौद्ध धर्म अपनाने वाले लोग करते हैं – “बुद्धम् शरणम् गच्छामि” । परंतु जब यह वाक्यांश किसी संगठन के लिए इस्तेमाल किया जाए तो उस संगठन का गहन अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। यहां ‘संघ’ का अभिप्राय “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” से है।
सन् 1925 ई. में डॉ. हेडगेवार ने भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखने के सपने साथ “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” की स्थापना की। संघ का दावा है कि वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। संघ के आज लगभग 1,75,000 प्रकल्प और 60,000 से ज़्यादा शाखाएं चलती हैं। भारत के बाहर 40 से ज़्यादा देशों में उसके संगठन हैं। वर्तमान में संघ की 56,569 दैनिक शाखाएं चलती हैं।
पिछले 95 वर्षों में संघ को लेकर एक बड़ा सवाल रहा है कि क्या संघ का भारतीय राजनीति से सीधा संपर्क है? जवाब है – नहीं, संघ का भारतीय राजनीति से सीधे तौर पर कोई संपर्क नहीं है लेकिन संघ ने रायसीना हिल्स से तीन बार प्रतिबंध लगने के बाद भी न केवल भारत के सामाजिक बल्कि राजनीतिक परिवेश में भी बहुत अहम जगह बनाई है। संघ देश की सत्ता को बनाने व बिगाड़ने की शक्ति रखता है, यही कारण है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता और मंत्री, संघ के सिद्धांतों व संघ की विचारधारा को सम्मान देते हैं।
अनुभवी पत्रकार विजय त्रिवेदी ने इस किताब में अब तक के सफ़र के ऐसे सभी पड़ाव दर्ज किये हैं जिसके बिना भारतीय समाज को समझना थोड़ा मुश्किल होगा क्योंकि आज ज़िंदगी का शायद ही कोई पहलू हो जिसे संघ नहीं छूता। संघ की यात्रा के माध्यम से लेखक ने भारतीय राजनीति और संघ के वरिष्ठ सेवकों के द्वारा संघ की सच्चाई के कुछ अनकहे क़िस्सों की परतों को भी खोला है, जो न सिर्फ़ अतीत का दस्तावेज़ हैं बल्कि भविष्य का संकेत भी हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो अब ऐसा लगता है जैसे किसी विश्वविद्यालय में कुलपति बनने के लिए संघ का प्रमाण आवश्यक हो गया है।
विजय त्रिवेदी ने अपने गहन शोध से इस किताब में आरएसएस के मूलभूत अवयवों से जुड़े हुए साक्ष्यों को हमारे सामने प्रस्तुत करने का सफलता पूर्वक प्रयास किया है। इस किताब में लेखक ने संघ की विचारधारा, उसके संविधान, अब तक के सफ़र, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को बड़े ही विस्तार से समझाने का काम किया है।
लेखक ने बहुत स्पष्टता के साथ आरएसएस की कार्यशैली में आये बदलावों को हमारे सामने रखा है। जैसे कि संघ औरतों और पुरुषों को परिवार में बराबरी के हक़ के पक्ष में है और महिलाओं के योगदान को कम नहीं आंकता, संघ पारिवारिक हिंसा और स्त्री भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़ है, संघ अंतर्जातीय विवाहों के पक्ष में है लेकिन फ़िलहाल ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के विरोध में खड़ा दिखाई देता है, ट्रांसजेंडर यानी किन्नरों के साथ सामाजिक भेदभाव के ख़िलाफ़ है। अब संघ ने नया कार्यक्रम पर्यावरण और जल संकट को लेकर शुरू किया है। इस वक़्त संघ के प्रमुख एजेंडे में ग्राम विकास है। आरएसएस ने परिवारों में होते बदलावों, तेज़ी से बढ़ती तलाक दर, परेशानियों, टूटते परिवारों की समस्या को भी समझा है।
किताब को पढ़ने हुए 1925 ई. और इक्कीसवीं सदी के संघ के चरित्र और अनुशासन में साफ़ अंतर महसूस होता है जिसका पूरा श्रेय, लेखक के अनुसार, तीसरे सरसंघचालक ‘बालासाहब देवरस’ को जाता है। इनके बारे में वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक रामबहादुर राय कहते हैं कि, “बालासाहब के जीवन को दो हिस्सों में देखा जा सकता है। पहले हिस्से में वे संघ के संस्थापक एवं प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगवार और दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर के सहयोगी एवं पूरक हैं और दूसरे हिस्से में खिले हुए कमल।”
यह हक़ीक़त है कि आज आरएसएस कोई हाशिये का संगठन नहीं बल्कि भारत की सत्ता को नियंत्रित करने वाला संगठन है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और दर्जनों मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और कई महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनका राजनीतिक और सामाजिक प्रशिक्षण संघ में हुआ है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में हम इस पूरे विमर्श को देखेंगे तो हमें आरएसएस के उत्कर्ष के ठोस कारणों का भी पता चलता है। कांग्रेस के कमज़ोर होने, समाजवादियों में परिवारवाद का वर्चस्व और लेफ़्ट के लगभग ग़ायब होने से राजनीति के क्षेत्र में जो ख़ालीपन आया, जो वैक्यूम बना, संघ ने उसे भर दिया।
क़रीब सौ साल होने को आए, क्या अब संघ बदल रहा है? ये संघ के लिए हमेशा से एक बड़ा सवाल रहा है। इस किताब के माध्यम से विजय हमें बताते हैं कि कैसे, संघ यह मानता है कि, परिवर्तन ही स्थायी है। बदलते वक़्त के साथ संघ ने सिर्फ़ अपना गणवेश ही नहीं बदला, नज़रिए को भी व्यापक बनाया है, और शायद यही कारण है कि तीन-तीन बार सरकार के प्रतिबंधों के बाद भी उसे ख़त्म नहीं किया जा सका, बल्कि उसका लगातार विस्तार हुआ है।
महात्मा गांधी की हत्या में संघ की क्या भूमिका थी?, “हिंदू राष्ट्र” के वास्तविक मायने क्या हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो संघ को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देते हैं और भारत की जनता के एक बड़े वर्ग को इस बात पर विश्वास दिलाते हैं कि संघ एक रहस्यमयी संगठन है।
लगातार हिंदू राष्ट्र की बात कर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश? ये प्रश्न संघ के समक्ष उसके जन्मकाल से है। हालांकि संघ से जुड़े हुए सभी व्यक्ति या संघ की विचारधारा का सम्मान करने वाले लोग इस बात को बिल्कुल नहीं मानते कि आरएसएस एक मुस्लिम विरोधी संगठन है। परंतु, संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर का एक ऐतिहासिक भाषण में ये कहना कि, “हिन्दुओं एक हो जाओ और आपस में न लड़ो बल्कि अपनी शक्ति को मुसलमानों और ईसाइयों से लड़ने के लिए बचा कर रखो।” संघ के मुस्लिम विरोधी होने की साफ़ दलील पेश करता है।
इस पुस्तक के अध्ययन के दौरान संघ के बारे में अन्य दो अहम बातें पता चलती हैं। पहली यह कि संघ के पदाधिकारियों और स्वयंसेवकों मे ख़ुद को आदर्शवादी दिखाने का बड़ा चलन है और उसके नीचे काम करने वाले लोग अपने से ऊपर वाले का महिमामंडन करते रहते हैं, जबकि सच यह है कि संघ के लोग भी दूध के धुले नहीं हैं, उनमें भी मानवीय दुर्गुण हो सकते हैं और यह स्वीकार करने में कोई अपराध नहीं है। लेखक का विचार है कि वहां हाथी के दांत दिखाने के और हैं, खाने के और।
दूसरी अहम बात यह है कि संघ में बुद्धिजीवियों, तीक्ष्ण बुद्धि रखने वालों और अपने दम पर काम करने वाले लोगों के लिए विशेष जगह नहीं है। वहां अब भी ‘मीडियोकर्स’ यानी औसत दर्जे या उससे कम के लोगों के लिए ही जगह है।
संघम् शरणम् गच्छामि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कई मायनों में एक संपूर्ण किताब है जो उसके समर्थकों के साथ-साथ आलोचकों को भी पढ़ना चाहिए, क्योंकि हक़ीक़त यह है कि आप संघ को पसंद और नापसंद तो कर सकते हैं, लेकिन उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
समीक्षक: ज़िकरा अनम