हिजाब और लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई!

उमैय्या ख़ान ने एक छात्रा होते हुवे परीक्षा के समय अपनी आस्था और अपने संवैधानिक अधिकार के लिए आवाज़ बुलंद कर के ये सिद्ध किया है कि लोकतंत्र की लड़ाई सिर्फ़ सड़क से संसद तक नहीं होती बल्कि उसका आरंभ शिक्षण संस्थानों में होता है

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उमैय्या ख़ान ने UGC-Net Exam में बैठने के लिए हिजाब उतारने की शर्त को न मानकर परीक्षा से वंचित होना स्वीकार कर के लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई को और मज़बूत बनाया है। उमैय्या ख़ान ने एक छात्रा होते हुवे परीक्षा के समय अपनी आस्था और अपने संवैधानिक अधिकार के लिए आवाज़ बुलंद कर के ये सिद्ध किया है कि लोकतंत्र की लड़ाई सिर्फ़ सड़क से संसद तक नहीं होती बल्कि उसका आरंभ शिक्षण संस्थानों में होता है। आज अगर लोहिया होते तो अपने कथन को edit करते हुवे यूँ कहते कि लोकतंत्र तब मज़बूत होता है जब सड़क से, संसद से और शिक्षण संस्थानों से अधिकारों की आवाज़ उठती है और फ़ासिवाद की जड़ों को हिला देती है।

उमैय्या ख़ान ने हिजाब न उतार कर समाज के उन एलीट सेक्युलरों को ये संदेश दिया है कि हम महिलायें अपने अधिकारों के लिए तुम्हारी आवाज़ की मुंतज़िर नहीं हैं।

उमैय्या ख़ान ने हिजाब पहनने के अधिकार के लिए आवाज़ बुलंद कर के सिर्फ़ अपनी धार्मिक आस्था का सम्मान नहीं किया है बल्कि इस लोकतंत्र की आस्था को मज़बूत बनाने का काम किया है जो भाषा, जाति, धर्म व आस्था के अधिकारों को सुनिश्चित करता है।

उमैय्या ख़ान उन सभी छात्र – छात्राओं के लिए एक रोल मॉडल है जो अपनी आस्था, अपना धर्म, अपनी तहज़ीब को ताक़ पर रख कर करियर चुनते हैं और अंततः उनके पास न करियर होता है, न आस्था, न धर्म और न तहज़ीब..। उमैया ख़ान ने अपनी आस्था के साथ-साथ इस लोकतंत्र की आस्था को भी बचा लिया है।

हिजाब के अधिकार के लिए उठने वाली आवाज़ पर नारीवादियों की ख़ामोशी ये बताती है कि ‘अधिकार’ का प्रश्न अगर ‘आस्था विशेष’ का है तो इनकी स्त्री अधिकारों की परिभाषा संकुचित हो जाती है जो इनके विशाल हृदय की ‘संकीर्णता’ को दर्शाती है। मामला चाहे हादिया का हो, उमैया का हो या फिर गोवा की सफ़ीना ख़ान सौदागर का।

UGC-Net के Exam में उमैय्या के साथ किया गया बर्ताव ये सिद्ध करता है कि तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार में लोकतांत्रिक संस्थान कितने कमज़ोर हो चुके हैं। ये कहना ग़लत न होगा कि जब देश का प्रधानमंत्री कमज़ोर होता है तो लोकतंत्र की संस्थाएँ कमज़ोर होती हैं और फिर देश….

वक़्त और हालात चाहे जैसे भी हों मगर मुझे पूरा यक़ीन है कि देश में जब तक उमैय्या ख़ान और सफ़ीना ख़ान सौदागर जैसी बहनें अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती रहेंगी इस देश में लोकतंत्र मज़बूत होता रहेगा। इन बहनों के संघर्ष को दिल से सलाम..!

लेखक : मसीहुज़्ज़मा अंसारी

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