दलित, बहुजन, मुस्लिम और अन्य उत्पीड़ित समुदायों की एकजुटता का एक लंबा इतिहास रहा है। पिछली सदी में दलित, बहुजन, मुस्लिम एकजुटता के विचारों में कई तरह के प्रयोग हुए हैं। तमिलनाडु में पेरियारवादियों की राजनीति, केरल में एझावा के स्मारकों का इतिहास, वीटी राजेशशकर की दलित आवाज़ का इतिहास, प्रकाश अम्बेडकर के वंचित, बहुजन, अगाड़ी और असदुद्दीन ओवैसी आदि के ऐतिहासिक और जीवंत राजनीतिक उदाहरण हैं। वर्तमान में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, पांडिचेरी विश्वविद्यालय, केरल के महाराजा कॉलेज में दलित बहुजन एकजुटता के कई उदाहरण हैं जो हमारे मुख्यधारा के छात्र आंदोलनों को चुभते रहते हैं। कई यादें हैं जो BAPSA और Fraternity Movement के रूप में दलित-बहुजन एकजुटता के विचार में इसकी सभी जटिलताओं के साथ व्यवस्थित हैं।
जेएनयू में राजनीतिक संवाद और राजनीतिक क्रियाविधि को जीने की परंपरा है। मैं जेएनयू कैंपस को वामपंथियों का गढ़ मानने की मान्यता को नकारता हूं। कृपया मुझे अपनी विचारधारा के पक्ष में लिखने के लिए न कहें। मैं एक ऐसा पक्ष रखता हूं, जो मेरा है। मैं एक ऐसी राजनीतिक आध्यात्मिकता में विश्वास करता हूं जो बहुत अलग है, जो कि मेरे मुस्लिम/अरबी नाम वसीम द्वारा स्वयं दर्शाता है। मैं जिस राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हूं, वह इस अर्थ में अलग है कि यह सत्ता के विषय, और भाषा की समझ पर आधारित है। अपने आप में राष्ट्रीय है। यह एक राजनीतिक क्षितिज है। यह उम्मीदों से से भरा है और साथ ही यह निराशा के बोझ से दबा हुआ है। एक नई राजनीति के लिए मेरी खोज निराशा से प्रभावित है। इस अर्थ में कि मैं 1.9 मिलियन लोगों की ख़ामोशी का रोना आसाम से रोज़ सुनता हूं।
मैं हमेशा मानता हूं कि मेरे अंदर कई आवाज़ें हैं। मेरे भीतर ऐसी आवाज़ें हैं जो बहुत स्पष्ट हैं। और मुझमें वो आवाज़ें भी हैं जो बहुत स्पष्ट नहीं हैं। मैं एक मुस्लिम / अल्पसंख्यक / ओबीसी / पुरुष / मलयाली / जेएनयू छात्र के रूप में एक व्यक्ति के रुप में यह संदेश लिख रहा हूं। मेरे कुछ हिस्से हैं जिनकी मैं आलोचना करना चाहता हूं। मेरे कुछ ख़ास हिस्से हैं जिन्हें मैं मनाना चाहता हूं। ये चीज़ें मुझे मेरी मुस्लिम आध्यात्मिक परंपरा से प्राप्त हुई हैं जिसे मैं सिखाना और स्पष्ट करना चाहता हूं। मेरी राजनीतिक समझ ख़ुद एक परंपरा से निकलती है जो आज BAPSA – Fraternity Alliance के रुप मे विद्यमान है।
बहुलतावाद के इस दौर मे आप में से कुछ मुझसे पूछते हैं कि मैं अपनी ‘मुस्लिम’ पहचान को लेकर अधिक चिंतित क्यों हूं? मैं स्पष्ट करना चाहता हूं यह मेरी पसंद नहीं थी। कभी-कभी मैं राष्ट्र के कई सामान्य वसीमों में से एक होना चाहता हूं जो अपने घर के कोने में धर्मनिरपेक्ष कथा का पाठ करता रहता। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं है क्योंकि मेरी मुस्लिम पहचान ख़त्म हो गई है। विभिन्न उच्च जाति के हिंदू पदों और कैडरों के बीच में मैं एक मुस्लिम के रूप में प्रतिष्ठित हूं और इस प्रक्रिया में पहुंचने के समय मैं केवल एक मुसलमान रह गया हूं। हालांकि, मुझे अंततः एहसास हुआ कि मुझे मुस्लिम के रूप में मेरे राजनीतिक अधिकार को मिटाने के लिए लोग मुझे मुस्लिम कहते हैं। साथ ही, भारत के सत्तारूढ़ शासन के हितों की सेवा करने के लिए मेरी पहचान को मुस्लिम रखा गया है। मेरा मानना है कि यह सही समय है कि मैं उन लोगों के साथ खड़ा हो रहा हूं जो मुस्लिम हैं, ताकि भारत के सत्तारूढ़ फासीवादी शासन से पूरी ताक़त के साथ लड़ सकें। जब तक मेरी मुस्लिम पहचान को नकारने के प्रयास रहेंगे, तब तक विरोध होगा, इंशाल्लाह!
मुझे इस नोट के व्यापक राजनीतिक उद्देश्य पर वापस आना चाहिए।
मेरा मानना है कि JNUSU चुनाव में BAPSA – Fraternity Movement Alliance जेएनयू परिसर में एक ऐतिहासिक कड़ी है, जहाँ सवर्ण, ब्राह्मणवादी, वाम और दक्षिणपंथी दोनों का संस्थागत और राजनीतिक दशकों से एकाधिकार सा रहा है। BAPSA – Fraternity गठबंधन द्वारा दावा की गई सीमाएं जो भी हों, लेकिन जेएनयू कैंपस के राजनीतिक परिदृश्य के इतिहास में यह एक विराम और निर्णायक बदलाव है। यह कैंपस में तथाकथित सवर्ण – प्रगतिशील लेफ्ट और राईट छात्र आंदोलनों के बहुजन विरोधी तत्वों पर हमला है। BAPSA और फ्रेटरनिटी के माध्यम से हम आशा करते हैं कि अधिक उत्पीड़ित और सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन जेएनयू के परिसर मे मज़बूत आवाज़ बनेंगे।
लेफ़्ट और राइट में जो लोग BAPSA-Fraternity के गठबंधन से खुश नहीं हैं, उनके लिए कहूंगा कि आपका सबसे बड़ा डर सच हो गया है। यह स्पष्ट है कि अब से एक वर्ग को केवल आईसा / एसएफआई के रूप में नहीं बोल सकते हैं कि यही विकल्प हैं, या ये भी नहीं कि एबीवीपी के रूप में रुढ़िवादी राष्ट्रवाद को आक्रामक तरीक़े से लागू करने वाले ख़तरे को रोकने के लिए लेफ़्ट को समर्थन देना ही होगा। इसके बजाय हम सुझाव देते हैं कि भारतीय संदर्भ में विशेष रूप से बाहुबल और उत्पीड़न के मामले हैं जिनसे हमें निपटने की आवश्यकता है। ये मामले पूरी ताक़त के साथ बिना वर्ग / जाति / लिंग / राष्ट्र / क्षेत्र आदि के प्रश्न से उत्प्रेरित होकर समाज में मौजूद हैं। ये याद रहे कि एक पहचान या एक वर्ग या राष्ट्र के को वरीयता देकर सिर्फ़ अधिनायकवादी व्यवस्था की ही अनिवार्यता सामने आती है जो हमें बहुलवादी समाज बनने से रोकती है।
उदाहरण के लिए, मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अपराधीकरण पर बोलने के लिये आवश्यक नहीं कि उसके उत्पीड़क रवैये को सामने रख दिया जाये। ये सही है कि लैंगिक अल्पसंख्यक आंदोलन और धार्मिक अल्पसंख्यक आंदोलन पहले भी विश्वभर मे चलते रहे हैं। जैसे कि जूडिथ बटलर और कई अन्य लोगों के संघर्ष द्वारा पहले भी देखा गया है। ये सिलसिला चलता रहे इसके लिये जेएनयू कैंपस और पूरे भारत में इस तरह के आंदोलनो को मज़बूत करना ज़रूरी काम है। विभिन्न जातियों, धर्मों, लिंगों और क्षेत्रों पर आधारित राजनीतिक विषयों के एक साथ आने से फिज़ूलखर्ची नहीं होती है। लेकिन लोगों मे असहमति और संचार की कमी है। ज्ञान और जागरूकता की कमी है।
उदाहरण के लिए, शाहबानो के समय से नारीवादी आंदोलनों और मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यक आंदोलनों के बीच कई राजनीतिक मुद्दों पर असहमति हैं। इन दोनों समूहों को एक-दूसरे से सीखने, उनसे सहमत होने या असहमत होने के आधार पर कोई संवाद हो या सार्थक गठबंधन इसी में सालों लग गए। और हां एकजुटता कोई डिनर पार्टी नहीं है, बल्कि विभिन्न पीड़ित वर्गों का अपनी पहचानों के साथ आना एक कठिन प्रक्रिया है। हालाँकि, असली सवाल यह है कि क्या हमारे पास विभिन्न अल्पसंख्यक मुद्दों को सुनने की जगह है? जो कि सवर्णों और वामपंथी हिंदुत्व के बिना हैं।
BAPSA-फ्रेटरनिटी गठबंधन आपको यह याद दिलाने के लिए बना है कि जेएनयू के परिसर में नई राजनीति के लिए संघर्ष का एक आगमन है। हम आशा करते हैं कि यह गठबंधन जाति, धर्म, वर्ग, लिंग और क्षेत्र आदि के आधार पर विभिन्न पहचानों के साथ आने वाली विविधताओं को मज़बूत करेगा। जेएनयू कैंपस में नया गठबंधन वास्तव में कई शर्तों के बिना तथा कई शर्तों के साथ सार्थक बातचीत को बढ़ावा देता है।
दक्षिणपंथी हिंदुत्व के साथ-साथ संगठित वामपंथियों को हमेशा BAPSA और Fraternity के साथ आने का डर था। भारतीय परिसर में लेफ़्ट ओर वो संगठन जिनकी ज़्यादातर पृष्ठभूमि हिंदू पृष्ठभूमि है, हमेशा दलित और बहुजन मुस्लिम सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में साथ आने की आशंका रखते थे। उदाहरण के लिए, हैदराबाद कैंपस और पांडिचेरी विश्वविद्यालय में विभिन्न अंबेडकरनगर छात्र संघों और विभिन्न मुस्लिम छात्र आंदोलनों के एक साथ आने से SFI ने ‘इस्लामवाद’ के नाम पर अपनी सबसे ख़राब और सबसे विकृत इस्लामोफ़ोबिक बयानबाज़ी को शुरू कर दिया। यह वामपंथी इस्लामोफ़ोबिया का सबसे नया अवतार है। जो सोवियत मार्क्सवाद की सत्तारूढ़ विचारधारा में से एक था। यह वास्तव में जॉर्जियाई राष्ट्रवादियों के सोवियत साम्राज्य के पतन का कारण भी बना।
वाम एकता की इस्लामोफ़ोबिक बयानबाज़ी अतीत से वर्तमान तक के उनके सबसे बुरे वैचारिक और राजनीतिक अपराधों को छिपाने के लिए है। कंबोडिया में स्टालिनिस्ट गुलग्स, पोल पॉट और उनके खमेर रूज शासन के अत्याचारों को, इतना ही नही भारतीय परिदृश्य में इस्लाम धर्म के बारे मे एनवर होक्सा आदि के नरसंहार प्रयोगों को भी छिपाया गया है।
मुझे एक अपील करने दें। केरल एसएफआई के नेताओं को केरल राज्य में सैकड़ों हत्याओं के बारे में जवाब देने के लिए नैतिक साहस दिखाना चाहिए। इससे पहले कि वे अल्पसंख्यक मुस्लिम छात्र संगठनों से कोई ख़तरे का आरोप लगा दें। हम आपको याद दिलाते हैं कि भारतीय राज्य एजेंसियों ने पर्याप्त जांच की है ताकि मुस्लिम संगठनों पर प्रतिबंध लगाया जा सके। इसका एकमात्र लक्ष्य मुस्लिम छात्र के जीवन को बर्बाद करना है। इन दिनों वामपंथी छात्र आन्दोलन हमें राज्य का दुश्मन बनाने के लिए और राज्य की नज़र में चरमपंथी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। और हमें राजनीतिक क्षेत्र से दूर कर रहे हैं। वामपंथियो के बारे मे स्पष्ट है कि मुस्लिम राजनीतिक आकांक्षा के प्रति आपकी नफ़रत की कोई सीमा नहीं है।
इस्लामवाद या इस्लामवादियों का उपयोग करके – जैसे कि शीत युद्ध के तुरंत बाद साम्राज्यवादियों द्वारा निर्धारित किया गया कि इसका एक ही अर्थ है। 9/11 को लेकर वामपंथी छात्रों के आंदोलन (विशेषकर एसएफआई समर्थकों में से कुछ) ने गंभीर शैक्षणिक योग्यताओं के द्वारा भारतीय परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम राजनीति को खलनायक बनाने का प्रयास किया। इसके लिये इस्लाम पर आक्रमण किया। इस्लाम धर्म को कट्टर व असहिष्णु इनके द्वारा बताया गया। यही नहीं इस्लाम की बौद्धिक परंपराओं व जनसांख्यिकी का उपयोग करके, वामपंथियों ने मुस्लिम राजनीतिक अभिव्यक्ति के डर को उन लोगों में डालने की कोशिश की है जो वास्तव में इतिहास और इस्लाम की राजनीति से अच्छी तरह से वाक़िफ नहीं हैं।
इस्लामिक आंदोलनों पर हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि पूरे विश्व मे सामाजिक-राजनीतिक वैचारिक प्रवृत्ति के रूप में विद्यमान शांतवादियों, धर्मगुरूओं ने वामपंथियों की हरकतों को सिद्ध भी किया है चाहे वो ओवमीर अंजुम हों या सलमान सैय्यद और कासिम ज़मान और अन्य लोगों द्वारा सिद्ध किया गया है।
मेरा यह भी मानना है कि भारत में इस्लाम धर्म के अध्ययन को सामान्य धर्मनिरपेक्ष / सांप्रदायिक ढांचे द्वारा नियंत्रित किया जाता है। जो वास्तव में भारत में इस्लाम धर्म के स्वायत्त इतिहास को भी नकारता है। भारतीय संदर्भ में मुस्लिम आंदोलनों पर अधिकांश अध्ययन वास्तव में मुस्लिम विषयों पर ब्राहम्णवाद की चिंता के जवाब में आया है। इस चिंता से परे कुछ अध्ययन भी हैं जो कभी मुख्यधारा की राजनीतिक कल्पना का हिस्सा नहीं बने। उदाहरण के लिए, विभिन्न इस्लामी आंदोलनों द्वारा लोकतंत्र के साथ कई प्रयोग हैं। उनमें से कुछ समुदाय के साथ काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जैसा कि हम SIO का उदाहरण देखते हैं। हम जानते हैं कि शीत युद्ध के बाद इस्लामी आंदोलन जीवतंता स्थापित करने का एक माध्यम बन गया है। वैसे यह स्पष्ट है कि भारतीय वामपंथियों की वर्तमान मुख्यधारा भी अमेरिका के नेतृत्व वाले साम्राज्य के समान इस्लामोफोबया की कथा का उद्घोषणा भर है।
पिछले कुछ वर्षों में, मौलाना मौदूदी की छवि को धूमिल करने का फ़ैशन बन गया (विशेषकर बुश शासन के बाद ) है। और इस्लामोफोबिक स्रोत का काम दुनिया भर के मुसलमानों के आख्यानों को नियंत्रित करने में लग गया है। मौदूदी पर सैकड़ों निबंध हैं जो वास्तव में वामपंथी / धर्मनिरपेक्ष इस्लामोफोबिक कथाओं पर सीधा हमला करते हैं। दुर्भाग्यवश, ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में कोई चर्चा नहीं है। सिवाय मौदूदी को मिथक के रुप मे सांप्रदायिक, आतंकवादी और पितृसत्ता के रूप मे परिभाषित कर दिया जाये। ताकि भारतीय छात्र परिसरों मे मुस्लिम छात्र राजनीति की आकांक्षा को विफल किया जा सके। मुस्लिम छात्र की राजनीति से जुड़ी हर चीज़ को कम कर दिया जाये जिसका सम्बन्ध मौदूदी से हो। और भारत में मुस्लिम छात्र की राजनीति से जुड़ी हर चीज़ को मौदूदी से जोड़ दिया जाये। कुछ लोग चाहते हैं मुसलमान मौदूदी को पढ़े ही ना ताकि उनकी राजनीतिक विचारधारा लोगो तक पहुंच सके। मुझे नहीं लगता है कि मौदूदी के समान कोई राजनीतिक विचारक पिछली सदी मे पैदा हुआ है। इस्लामी परंपराएं इतनी विविधतापूर्ण हैं कि व्यापक मुस्लिम समुदाय के भीतर एक सार्थक संवाद स्थापित किया जाये ताकि वो शुरू करने के लिए मुस्लिम बौद्धिक इतिहास की परंपरा से वाक़िफ हो सके। उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामिक बौद्धिक इतिहास की विरासत के बारे में आलोचनात्मक बातचीत शुरू करने के लिए मौदूदी को किनारे रखना एक अच्छा शुरुआती बिंदु नहीं है। उदाहरण के लिए, आयशा जलाल, इरफान अहमद और हुमैरा इक़तिदार की रचनाओं ने मौदूदी की राजनीति से जुड़े मुद्दों के अध्ययन को समझने के लिए एक ईमानदार प्रयास किया है। याद रहे , राजनीति के नाम पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वामपंथियों से आपकी असहमति कमज़ोरी नहीं है।
मेरा मानना है कि भारत में एक नई छात्र राजनीति होनी चाहिये जो , मुसलमानों के बारे मे बात करती हो। मेरा दृढ़ विश्वास है कि विभिन्न स्थानों से मुस्लिम छात्र आंदोलनों को मुसलमानों के बारे में बातचीत शुरू कर देनी चाहिये। मुझे लगता है कि कुछ चुनौतियां है जो हमे रोहित मूवमेंट से लेकर नजीब के मामले मे देखने को मिली। यदि आप मुस्लिम छात्र राजनीति के बारे में गंभीर हैं, तो आपको उन लोगों से संपर्क करना चाहिए जो भारतीय समाज में मुस्लिम राजनीति की बात करते करते हैं। इस्लाम के बारे में बोलने के बौद्धिक समुदाय हैं। हमारे समाज में कुछ महान व्यक्तिगत उदाहरण और अच्छे बौद्धिक समूह हैं। वे एकजुट भी हैं और दर्द व क्रोध का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारे बीच अत्याचार के मुद्दे हैं। वर्ग, लिंग, जाति और धार्मिक व्याख्या के संदर्भ में हमारे बीच गंभीर विवाद हैं।
अंत में, यह स्पष्ट है कि जेएनयू परिसर में बड़े पैमाने पर इस्लामोफोबिया ने भी गठबंधन बनाया है। लेकिन इसीलिये तो बापसा और फ्रेटरनिटी साथ खड़े हैं। इस गठबंधन ने नफ़रत और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ दो-दो हाथ कर दिये हैं। इस गठबंधन ने उस लेफ्ट की विचारधारा को भी निरस्त कर दिया जो अवसर के विरुद्ध है। ये गठबंधन यहां खड़ा है , और रहेगा। चाहे आप नफरत करें या प्यार। और यही जेएनयू कैम्पस का भविष्य है।
इंशाल्लाह।
– वसीम आर. एस.
(महासचिव, प्रत्याशी, JNU छात्रसंघ)