सपनों की उड़ान (लघुकथा)

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सपनों की उड़ान (लघुकथा)

सहीफ़ा ख़ान

ट्रेन अपनी रफ़्तार पकड़ चुकी थी। अब तो शहर भी आंखों से ओझल होता जा रहा था। वह सीट के एकदम कोने में खिड़की के पास दुबकी बैठी हुई थी। कई बार तो ऐसा लगा कि किनारे से एक धक्का आएगा और वह खिड़की तोड़ कर बाहर चली जाएगी। सहमी-सहमी नज़रों से वह सबको देखे जा रही थी। हर चेहरा उसके लिए अजनबी था।

शहर बहुत पीछे छूट चुका था और सब-कुछ उसके लिए नया था। गणित से तो वह बहुत दूर भागती थी लेकिन फिर भी उसने हिसाब लगाना शुरू किया। चालीस रुपए उसने शर्मा जी के घर की मेज़ से उठाए थे, पांच रुपए उसे सड़क पर पड़े मिले थे, पंद्रह रुपए दादी के थे और चालीस रुपए उसने मां के बटुए से निकाले थे। कुल मिलाकर हुए सौ रूपए।‌ उसने सारे पैसे जमा किए और वह किताब उठाई जो उसे गौरी मौसी की बेटी ने दी थी। सब-कुछ एक छोटे से फटे दुपट्टे में बांध निकल पड़ी अपने सपनों की दुनिया देखने।

घर में मां ने कभी उसे यह किताब पढ़ने ही नहीं दी। जब भी वह किताब लेकर बैठती, मां उसे छीन कर कोई काम बता देती। वह आंगनबाड़ी में जाती तो थी लेकिन वहां भी पढ़ने मौक़ा नहीं मिलता। इसीलिए उसने सोचा कि यहां से कहीं दूर जाकर सुकून से पढ़ा जाए।

उसे ट्रेन में सफ़र करने का बहुत शौक़ था। वैसे तो उसने कई बार ट्रेन में पानी बेचा था, कुछ-कुछ दूर का सफ़र भी किया था लेकिन टिकट लेकर खिड़की वाली सीट पर बैठने का मज़ा ही कुछ और न होता है। खिड़की से बाहर झांक कर दुनिया को देखने का अलग ही एहसास होता है। दुनिया भी बिल्कुल ख़ुशनुमा दिखाई पड़ती है, बिल्कुल मासूम सपनों की तरह।

ट्रेन रुकी। कुछ लोग उतरे। कुछ लोग चढ़े। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे! आख़िरकार उसका स्टेशन आ गया। वह स्टेशन जहां तक का उसने टिकट लिया था। वैसे तो उस शहर के बारे में उसे दूर-दूर तक कुछ नहीं मालूम था। बस आगे खड़ी एक आंटी के मुंह से नाम सुन उसने भी वहीं का टिकट ख़रीद लिया और चल दी सपनों की उड़ान भरने। चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई तो सब कुछ वैसा ही लेकिन अंजान सा था।‌‌ मन ही मन बहुत ख़ुशी का एहसास हुआ कि यह शहर अच्छा है, सपनों की उड़ान भरने के लिए। जैसे भी करके यहीं रह लेंगे और ख़ूब पढ़ेंगे। यहां कोई मेरे हाथ से किताब नहीं छीनेगा। किताब का ख़याल आते ही उसने अपनी फटी गठरी खोली तो पैसे का बटुआ ग़ायब था। उसने किताब खोलनी चाही तो किसी ने पीछे से घसीट लिया।

“अरे अरे, मेरी किताब!”, वह इतना ही कह पायी थी कि खींचने वाले ने किताब से एक पेज फाड़ कर बेंच साफ़ करना शुरु कर दिया।

“मेरी किताब क्यों फाड़ दी?”, वह रूआंसी होकर बोली।

“बड़ी क़ीमती किताब थी? भाग यहां से! चली आई है किताब लेने!”

सहम कर आंखों में आंसू और फटी किताब लिए वह आगे बढ़ गयी। दहशत के मारे इतना भी नहीं बोल सकी कि मेरी किताब नहीं, मेरे सपने फाड़ दिए!

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