जलवायु परिवर्तन: ख़तरा या अवसर?

जलवायु परिवर्तन मानव इतिहास का सबसे गंभीर संकट है क्योंकि इसके कारण अनेक संकट जन्म लेते हैं। यह केवल पर्यावरणीय चिंता का विषय नहीं है बल्कि यह पृथ्वी के लिए विकास के रास्ते में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। विशेषकर ग़रीब बहुत अधिक प्रभावित हैं तो साथ-साथ सरकार के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती भी बन गई है।

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जलवायु परिवर्तन: ख़तरा या अवसर?

ज़करिया‌ ख़ान 

आए दिन हम देखते हैं कि कहीं गंभीर सूखा ने पृथ्वी पर बसे मनुष्यों के जीवन को अस्त-व्यस्त कर रखा है, भयावह बाढ़ ने शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों को तबाह कर दिया है तो कहीं गर्मी और तापमान में लगातार वृद्धि ने मानव जीवन को ख़तरे में डाल दिया है। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? तो इसका उत्तर केवल दो शब्दों “जलवायु परिवर्तन” में समाहित है। लेकिन इस जलवायु परिवर्तन का ज़िम्मेदार कौन? क्या यह ईश्वरीय प्रकोप है? या इसके लिए मानवीय गतिविधियां ज़िम्मेदार हैं? प्रायः लोग सोचते हैं कि जलवायु एवं वायुमंडल में सभी परिवर्तन प्राकृतिक हैं और मनुष्यों का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं लेकिन संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 18 वीं शताब्दी के बाद जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मानवीय गतिविधियां हैं।

आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) की रिपोर्ट के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन मानव इतिहास का सबसे गंभीर संकट है क्योंकि इसके कारण अनेक संकट जन्म लेते हैं। यह केवल पर्यावरणीय चिंता का विषय नहीं है बल्कि यह पृथ्वी के लिए विकास के रास्ते में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। विशेषकर ग़रीब बहुत अधिक प्रभावित हैं तो साथ-साथ सरकार के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती भी बन गई है।

इस रिपोर्ट के आंकड़ों एवं तथ्यों ने पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन के संबंध में निराशा और उलझन में डाल दिया है। यह संगठन की छठी रिपोर्ट है जो पिछली रिपोर्टों से कुछ ख़ास है। यह जलवायु के क्षेत्रीय और उप क्षेत्रीय प्रभावों के बारे में बात करती है और इसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े शहरों के जोखिम और कमज़ोरियों का आकलन किया गया है जिसमें जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को रेखांकित किया गया है और यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में आर्थिक समस्याएं उत्पन्न करेगा। रिपोर्ट के अनुसार एशिया सहित विभिन्न महादेशों में सूखा एवं अन्य नई पर्यावरणीय समस्याएं सामान्य हो जाएंगी।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने से पहले जलवायु परिवर्तन को समझना अति आवश्यक हो जाता है। आइए जानते हैं यह क्या‌ है –

तापमान और वायुमंडल में दीर्घकालिक परिवर्तनों को जलवायु परिवर्तन की संज्ञा दे सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान समय के साथ बढ़ता जा रहा है। परिणामस्वरूप भारी वर्षा एवं चक्रवात जैसी समस्याएं देखने को मिल रही हैं। जब कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन और क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी कार्बन गैसों की बड़ी मात्रा वायुमंडल में उत्सर्जित होती है तो उसने वायुमंडल में पृथ्वी के चारों ओर चादर बनाई है जो सूर्य से अत्यधिक गर्मी को आकर्षित करती है और ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती है।

बड़े स्तर पर जीवाश्म ईंधन का जलना ग्लोबल वार्मिंग का प्राथमिक कारण है। कारखानों और उद्योगों में कोयला, तेल एवं गैस का जलना और वाहनों के माध्यम से वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैस को उत्सर्जित कर रहे हैं। इसी तरह जलवायु परिवर्तन में वनों की कटाई की बड़ी भूमिका है। पेड़ वायुमंडल से ऑक्सीजन को अवशोषित कर जलवायु को बेहतर बनाने में मदद करते हैं। जब उन्हें काट दिया जाता है तो इससे प्राकृतिक लाभ ख़त्म हो जाता है फिर पेड़ों में संग्रहित कार्बन वायुमंडल में चला जाता है।

जलवायु परिवर्तन का एक अन्य मुख्य कारण बढ़ते पशुधन, खाद इत्यादि के अधिक प्रयोग हैं। उदाहरण के लिए मवेशी अपने भोजन को पचाते समय बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्पादन करते हैं और उर्वरक से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।

जब कचरा प्रबंधन के लिए लैंडफ़िल और भस्मीकरण किया जाता है तो बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस एवं मीथेन सहित ज़हरीली गैस वातावरण, मिट्टी और जलमार्ग में विसर्जित होती है। इसका सीधा असर ग्रीन हाउस प्रभाव के रूप में दिखता है। आधुनिक जीवन, खनन एवं धातु उद्योगों पर अत्यधिक निर्भर है। निर्माण परिवहन एवं विभिन्न माल के उत्पादन में धातु एवं खनिज को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है धातुओं और खनिज के इस बाज़ार का ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ाने में 5% का योगदान है।

अत्यधिक खपत का मुख्य कारण प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माल ढुलाई (ट्रांसपोर्टेशन) से होने वाले उत्सर्जन से है। यह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग में भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं।

आईपीसीसी की छठी रिपोर्ट के अनुसार अगर ग्लोबल वार्मिंग मौजूदा दर से बढ़ती रही तो 2030 से 2050 के बीच 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने की संभावना है अगर यूं ही तापमान में बढ़ोतरी होती रही तो मानव जाति का इस धरती पर अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाएगा। बढ़ते हुए तापमान को कम तो नहीं किया जा सकता लेकिन समय रहते कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण किया जा सकता है।

मनुष्यों पर: आईपीसीसी सहित विभिन्न अनुमानों के अनुसार यह मानव निर्मित आपदाएं 2050 तक 250 मिलियन लोगों को विस्थापित करेंगी और दुनियाभर में लाखों लोगों को ग़रीबी में धकेल देंगी। इसने पहले ही दुनिया के कई हिस्सों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संतुलन को बिगाड़ा है। रिपोर्ट में यह भी उल्लेखित है कि एशिया में व्यक्त जनित एवं जल जनित रोगों में वृद्धि की संभावना अधिक है इससे सरकार के समक्ष नई चुनौतियां पैदा होंगी।

जैव विविधता पर: बढ़ता तापमान पेड़ पौधों के प्रजनन चक्र एवं स्थितियों में बदलाव कर देता है। संसाधनों की कमी से जीव जंतुओं की जीवन शैली में बदलाव आ रहे हैं और बहुत सारे जीव जंतुओं में प्रवासी प्रवृत्ति का विकास हो रहा है। जैव विविधता पर सबसे बुरा प्रभाव स्थानीय प्रजातियां सहित कई अन्य पर जातियों का ग़ायब होना है। इसके विपरीत हानिकारक प्रजातियों की घुसपैठ जो फ़सलों एवं अन्य जानवरों के लिए ख़तरनाक सिद्ध होंगे।

महासागरों पर: अंटार्टिका एवं विशेषकर ध्रुवों पर बड़े पैमाने पर बर्फ़ पिघलने और महासागरों के जल स्तर में वृद्धि ने दुनियाभर के लाखों लोगों के जीवन को ख़तरे में डाल दिया है। इस शताब्दी में जलस्तर में 18 सेंटीमीटर वृद्धि (पिछले वर्षों में 6 सेंटीमीटर सहित) हुई है। सबसे ख़राब स्थिति का अनुमान 2100 में 1 मीटर तक वृद्धि रिकॉर्ड की जा सकती है। आईपीसीसी की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 2050 में मुंबई पानी के अंदर विलुप्त हो जाएगा।

जलवायु परिवर्तन की रेस और भारत

भारत की तीव्र आलोचना करते हुए कहा गया है कि भारत दुनिया में तीसरा सबसे अधिक प्रदूषक है, लेकिन अधिक प्रदूषक देशों की तुलना में इसके उत्सर्जन का पैमाना कम है। चीन 10.6 गीगा टर्न के साथ पहले स्थान पर और उसके बाद अमेरिका 5 गीगा टन और भारत के कार्बन उत्सर्जन का पैमाना केवल 2.88 गीगा टर्न है। लेकिन फिर भी हमें भविष्य में अर्थव्यवस्था में विकास, बिजली की मांगों को पूरा करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत बनाने की आवश्यकता है जैसा कि समाज की लाखों भारतीय के पास बिजली नहीं है।

2070 तक नेट 0 कार्बन उत्सर्जन वाला देश बनना एक बड़ी चुनौती है लेकिन इसकी तैयारी के लिए भारत ने ग्लासगो में आयोजित 26वीं समर्थकों के सम्मेलन में 21 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री ने पंचामृत रणनीति को साझा किया रणनीति इस प्रकार है।

  • भारत 2030 तक अपने ग़ैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता 500 गीगावॉट प्राप्त कर लेगा।
  • भारत 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करेगा।
  • भारत अब से 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा।
  • 2030 तक भारत अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45% से कम कर देगा तो वर्ष 2070 तक भारत नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल कर लेगा।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अनुसार भारत में ऊर्जा के क्षेत्र में पारंपरिक बिजली नवीकरणीय, ऊर्जा पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस शामिल हैं। भारत में कुल ऊर्जा क्षमता 356 गीगा वाट है जिसमें प्रमुख योगदान थर्मल 66% नवीकरणीय 22% हाइड्रो 13% और परमाणु 2% है। 2030 में भारत की बिजली की आवश्यकता 2518 बी यु होने का अनुमान है। यदि हम नवीकरणीय ऊर्जा से 50% आवश्यकताओं को पूरा करने का लक्ष्य रखते हैं तो स्थापित क्षमता को 450 गीगावॉट से बढ़ाकर 700 गीगावॉट करना होगा। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के अनुसार भारत की कोयला क्षमता 2030 तक 266 गीगावॉट होगी जो कि 38 गीगावॉट के अतिरिक्त है। इसका मतलब है कि भारत ने कहा है कि वह इससे आगे नए कोयले में निवेश नहीं करेगा। भारत का एनर्जी ट्रांजिशन निवेश 14 बिलियन है जो दुनिया के कुल निवेश का 1.9% है शीर्ष निवेशकों की तुलना में भारत का निवेश बहुत कम है।

एक अवसर के रूप में जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन एक चुनौती या ख़तरा होने के बावजूद विकसित एवं विकासशील देशों के लिए एक अवसर का द्वार भी खोलता है। नेट ज़ीरो कार्बन देश बनने की कोशिश वायु और जल विद्युत उद्योगों जैसे नए एवं नवीकरणीय उद्योगों में बड़े निवेश को आमंत्रित करेंगे, जिससे दुनियाभर में लाखों रोज़गार का सृजन होगा। इंटरनेशनल फ़ाइनेंस कॉर्पोरेशन रिपोर्ट कहती है कि अगले दशक में ग्रीन बिल्डिंग उभरते बाज़ारों में एक महत्वपूर्ण लो-कार्बन अवसर का प्रतिनिधित्व करेंगी। जिससे बाजार 2030 तक 24.7 ट्रिलियन तक पहुंच जाएगा। यह तेज़ी से उभरता बाजार है। भविष्य में आबादी की मांगों की पूर्ति के लिए और अधिक हरित बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होगी। हरित निर्माण के माध्यम से नए बिल्डिंग्स की मांग को पूरा करने से लो- कार्बन वाले आर्थिक विकास को बढ़ावा मिल सकता है। और आने वाले दशकों में उभरते बाज़ार में कुशल रोज़गार पैदा हो सकते हैं। आईएफसी विश्लेषण के अनुसार बदलती जलवायु को नियंत्रित करने के प्रयासों से इन छह प्रमुख क्षेत्रों में बड़े निवेश को बढ़ावा मिलेगा। अपशिष्ट, नवीकरणीय ऊर्जा, सार्वजनिक परिवहन, पानी, इलेक्ट्रिक वाहन और हरित भवन। भविष्य की मांगों को पूरा करने के लिए इन सभी क्षेत्रों में अधिक सुधारों की आवश्यकता है और सुधारों के लिए नवाचार एवं रचनात्मकता की आवश्यकता है जो दुनिया भर में बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन का कारण भी साबित होगा।

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