पुलिस रिफ़ॉर्म की बहस को आगे बढ़ाती है “पुलिसनामा”

इस किताब में बयान हुई कहानियां हमारे आस-पास की कहानियां हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है। कोई शॉक वैल्यू नहीं। यह कोई कल्पना नहीं है बल्कि ये हमारे ख़ुद के साथ घटी हुई या झेली हुई कहानियां हैं। हम इनके साथ रिलेट कर सकते हैं। हर एक क़िस्से को पढ़ कर आपको उसी जैसे तीन और क़िस्से याद आ जायेंगे, और यही इस किताब की कामयाबी है।

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पुलिस रिफ़ॉर्म की बहस को आगे बढ़ाती है “पुलिसनामा”

ताबिश भट्टी

अदब शऊरी-लाशऊरी तौर पर अपने ज़मान-ओ-मकां का आईना होता है। लिखने वाला कभी जानबूझ कर और कभी अनजाने में कोई ऐसा मुद्दा छेड़ देता है जो या तो उस वक़्त पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा होता है या उसके ध्यान दिलाने पर उसे ज़रूरी अटेंशन मिल जाती है और वो पब्लिक डिस्कोर्स में आ जाता है। ऐसा ही मुद्दा “पुलिस सुधार” भी है जो लंबे वक़्त से उठाया जाता रहा है। इस के लिए कोशिश भी जारी है, इस पर संजीदा गुफ़्तगू भी हुई है, लिखा भी गया है और आज भी बहुत से लोग और संस्थाएं इसके लिए कोशिशें कर रही हैं। लेकिन इस मुद्दे को जो जगह पब्लिक चेतना या पॉलिटिकल सर्किल्स में मिलनी चाहिए, वो अब तक नहीं मिली है।

ज़ैग़म मुर्तज़ा की हाल ही में आई पहली किताब “पुलिसनामा” इस संजीदा सिलसिले का हिस्सा न होते हुए भी उसी डिस्कोर्स को आगे बढ़ाती है। इसकी यही हैसियत इसे एक ज़रूरी किताब बनाती है। पुलिस सुधार के लिए काम करने वाले लोगों में शायद सबसे बड़ा नाम पूर्व आईजी एस० आर० दारापुरी जी का है। वो इस किताब को पुलिस का चाल-चरित्र समझने और पुलिस सुधार के लिए ज़रूरी जागरूकता हेतु एक महत्वपूर्ण क़दम बताते हैं।

खुद ज़ैग़म मुर्तज़ा किताब के इस रोल को सिर्फ़ पुलिस सुधार की किसी कोशिश से आगे ले जाकर ह्यूमन बिहेवियर और समाज पर स्टडी की तरह देखते हैं और पुलिस सुधार को भी उसी की एक कड़ी बताते हैं। वे लिखते हैं कि, “पहली ज़रूरत यह है कि पुलिस वालों को रोबोट नहीं, इंसान माना जाए। मशीन या महामानव नहीं और उनकी ग़लतियों को इंसानी ग़लती, बेवकूफ़ियों को इंसानी फ़ितरत…”

इसमें बयान हुई कहानियां हमारे आस-पास की कहानियां हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है। कोई शॉक वैल्यू नहीं। यह कोई कल्पना नहीं है बल्कि ये हमारे ख़ुद के साथ घटी हुई या झेली हुई कहानियां हैं। हम इनके साथ रिलेट कर सकते हैं। हर एक क़िस्से को पढ़ कर आपको उसी जैसे तीन और क़िस्से याद आ जायेंगे, और यही इस किताब की कामयाबी है।

ज़ैग़म मुर्तज़ा सोशल हल्क़ों में अपनी नो नॉनसेंस अप्रोच, चुटीली ज़ुबान, सार्कैज़म और “ऑलमोस्ट सिनिकल बिहेवियर” के लिए पसंद और नापसंद किये जाते हैं और मुझे एक पढ़ने वाले के तौर पर उसी की उम्मीद भी थी। लेकिन यह किताब इन सब का डायल्यूटेड वर्ज़न है। यह लेखक की मजबूरी भी हो सकती है। अगर वह अपने शब्दों को हल्का न करते तो शायद किताब छपने के लिए और इंतज़ार करना पड़ता।

हिन्दुस्तान में किताबों का सबसे बड़ा मसला उनकी एडिटिंग है। हमारे यहां एडिटिंग को इतना ग़ैर-ज़रूरी चीज़ समझा जाता है कि प्रूफ़ तक की ग़लतियां छपी हुई किताबों में दिखाई दे जाती हैं। यह किताब “लैक ऑफ़ एडिटिंग” का शिकार है, बहुत आसानी से बीस-पच्चीस पेज कम किये जा सकते हैं और क़िस्सों को ज़्यादा क्रिस्प किया जा सकता है। इस किताब में इतना रॉ मेटेरियल है कि सही एडिटिंग, किताब की स्ट्रक्चरिंग, विज़ुअल्स का सही इस्तेमाल इसे एक तारीख़ी दस्तावेज़ बना सकता था।

सारी तकनीकी ख़ामियों और मिस्ड ऑपर्चुनिटीज़ के बावजूद “पुलिसनामा” एक मज़ेदार, प्रासंगिक और ज़रूरी किताब है। यह न सिर्फ़ पुलिस और पब्लिक के बीच घटने वाली अजब-ग़ज़ब कहानियों को संकलित करती है बल्कि उससे बढ़कर ये उन जगहों जहां ये घटनाएं हुईं, उनके इतिहास और समाज की ख़ूबसूरत झलक भी पेश करती है और मेरे ख़्याल में इस किताब की यह हैसियत भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जिसकी वजह से इसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचना चाहिए।

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