-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और नेपाल के बीच सीमा को लेकर अभूतपूर्व तनाव पैदा हो गया है। एक अर्थ में नेपाल ने भारत के विरुद्ध प्रकारांतर से युद्ध की घोषणा ही कर दी है। उसकी संसद के निम्न सदन ने सर्वानुमति से एक संविधान संशोधन पारित कर दिया है, जिसके मुताबिक तीन भारतीय क्षेत्रों- लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा- को नेपाल के हिस्से घोषित कर दिए गए हैं। नेपाली संसद का उच्च सदन इसे एक-दो दिन में पारित कर देगा। नेपाल की राष्ट्रपति भी इस विधेयक पर हस्ताक्षर करने में संकोच क्यों करेंगी ? नेपाल की विभिन्न पार्टियों के कई वरिष्ठ नेताओं से मेरी बात हुई। जो सांसद इस विधेयक के पक्ष में नहीं थे, उन्हें भी मजबूरन इसके पक्ष में वोट देना पड़ा, क्योंकि वे नहीं देते तो उनके सिर पर राष्ट्रद्रोही होने का बिल्ला चिपका दिया जाता। मैं तो यह मानता हूं यह विधयेक संसद में लाकर नेपाल के प्रधानमंत्री खड़्गप्रसाद ओली ने अपना लक्ष्य प्राप्त करवा लिया है। वे भारत पर दबाव बनाना चाहते थे कि भारत बात करने के लिए तैयार हो जाए, सो भारत तैयार हो गया है। बेहतर हो कि इस विधेयक को उच्च सदन में न ले जाया जाए। यदि उसे आज उच्च सदन भी पारित कर दे तो भी उसे राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजने से रोका जा सकता है।
भारत सरकार बात अब करने के लिए तैयार है। भारत के रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने नेपाल-भारत संबंधों पर इतना मार्मिक और आत्मीयतापूर्ण बयान दिया है कि दुनिया के किन्हीं दो देशों के संबंध इतने गहरे और व्यापक नहीं हो सकते। यही सही अवसर है कि जबकि दोनों देशों को तुरंत ही आपस में बातचीत शुरु कर देनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्रालय ने बातचीत टालने के लिए कोरोना संकट का जो बहाना बनाया था, वह बिल्कुल बेतुका था। इन्हीं दिनों आप उस चीन से बात कर रहे थे कि नहीं, जिससे आपकी मुठभेड़ 5-6 मई को हुई थी और जिसके साथ इसी सीमा को लेकर 1962 में बड़ा युद्ध भी हुआ था। यदि चीन से हमारे राजनयिकों और फौजी अफसरों की बातचीत हो सकती है तो नेपाल के साथ तो उससे कहीं बेहतर बातचीत हो सकती थी। चीन के साथ अभी—अभी हुई झड़प में तीन भारतीय सैनिक शहीद हो गए हैं। यह अत्यंत दुखद है। इसके बावजूद बातचीत जारी रहेगी तो बेहतर होगा।
यदि नेपाल उक्त तीनों स्थानों के बारे में संविधान संशोधन बाकायदा पारित कर देता है तो दोनों देशों के बीच बातचीत कैसे होगी ? बातचीत के बाद जरुरी हुआ तो क्या नेपाल अपने संविधान में दुबारा संशोधन करेगा ? यदि बातचीत किसी सिरे पर न पहुंचे तो नेपाल क्या करेगा ? क्या नेपाल उक्त तीनों स्थानों पर फौजी कब्जा करने की कोशिश करेगा ? वहां कैलाश-मानसरोवर तक जाने के लिए भारत 80 किमी की पक्की सड़क बना रहा है, क्या नेपाल उसको रोक सकता है ? जाहिर है कि नेपाल ऐसा कुछ नहीं करेगा। तो फिर किसकी इज्जत खटाई में पड़ेगी ?
यहां असली प्रश्न यह है कि के.पी. ओली ने भारत के प्रति यह आक्रामक रवैया क्यों अख्तियार किया है ? यह असंभव नहीं कि यह सब कुछ चीन की शै पर किया जा रहा हो। चीन इस बात से नाराज़ है कि अमेरिका और भारत एक-दूसरे के पक्के साथी बनते जा रहे हैं जबकि चीन को सबक सिखाने की बात अमेरिका बार-बार कह रहा है। अमेरिका ने चीन के पश्चिम में पड़नेवाले विशाल सामुद्रिक क्षेत्र को आजकल भारत-प्रशांत क्षेत्र (इंडो-पेसिफिक) कहना शुरु कर दिया है। चीन ने पहले तो खुद ही भारतीय सीमा पर फौजी जमावड़ा बढ़ा लिया और फिर नेपाल को उकसा दिया। चीन इस तथ्य से भी डरा हुआ है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां, जो चीन में सक्रिय हैं, अब वे वहां से हटकर, भारत में स्थापित होने वाली हैं।
लेकिन प्रकट तौर पर चीन की ओर से वर्तमान भारत-नेपाल विवाद पर एक शब्द भी नहीं बोला गया, क्योंकि इस मानसरोवर-सड़क के इस्तेमाल के लिए 2015 में भारत और चीन के बीच एक समझौता हुआ था। कैलाश-मानसरोवर का तीर्थ तिब्बत में है। नेपाल, तिब्बत और हमारे पिथौरागढ़ के त्रिकोण पर ही लिपुलेख स्थित है। चीन की चुप्पी सिर्फ बाहरी तौर पर हो सकती है लेकिन इस समय नेपाल के प्रधानमंत्री ओली के गद्दीरक्षक तो काठमांडो में बैठे हुए चीनी राजदूत ही हैं। चीन की यह महिला राजदूत हाऊ यांकी पहले पाकिस्तान में रह चुकी हैं। ओली अपनी गद्दी पर अभी तक जो टिके हुए हैं, वह मेडम यांकी की कृपा के कारण ही हैं। यांकी ने कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता प्रचंड और माधव नेपाल को पटाने में पिछले महिने कोई कसर नहीं छोड़ी। ये दोनों पूर्व प्रधानमंत्री ओली को हटाने पर कटिबद्ध हैं। उन पर भ्रष्टाचार का आरोप तो था ही, भारत के साथ गिड़गिड़ाने का लांछन भी लगाया गया। उन्हें आक्रामक होने की चुनौती भी दी गई। ओली ने पिछले दो-तीन हफ्तों में भारत पर कई आरोप भी जड़ दिए।
1816 में हुई सुगौली संधि ने स्पष्टतः वे तीनों क्षेत्र भारत की सीमा में गिनाए थे। पिछले 202 साल में नेपाल की सरकारों ने जो दुस्साहस कभी नहीं किया, वह ओली करने जा रहे हैं। भारत और नेपाल की लगभग 1800 किमी की सीमाएं सुपरिभाषित हैं, सिर्फ दो स्थानों को छोड़कर। जबकि लगभढ़ साढ़े तीन हजार किमी की भारत-चीन सीमा सुपरिभाषित नहीं है और दोनों देशों के एक-दूसरे पर हजारों किमी के दावे हैं। फिर भी वे बातचीत के जरिए बात को बिगड़ने नहीं दे रहे हैं जबकि नेपाल अतिवाद पर उतर आया है। 2015 में भारत-नेपाल नाकाबंदी के कारण जो कटुता पैदा हुई थी, उससे भी भयंकर कटुता अब पैदा करने की कोशिश की जा रही है, जिस पर तुरंत रोक लगाना जरुरी है।
भारत और नेपाल के जैसे घनिष्ट संबंध दुनिया के किन्हीं भी दो देशों के बीच नहीं हैं। नेपाल के 80 लाख लोग भारत में रहते हैं। भारतीय सेना में सात गोरखा रेजिमेंट हैं। भारतीय सेना में 60 हजार सैनिक नेपाली हैं। हजारों नेपाली सेवा-निवृत्त सैनिकों को भारत पेंशन देता है। दोनों देशों के सेनापति एक-दूसरे की सेना में सम्मानित पदों पर हैं। दोनों देशों में मुक्त-आवागमन है। दोनों देशों की जनता के बीच धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक घनिष्टता इतनी गहरी है कि वे 30-35 वर्ग किमी जमीन के कारण वे आपस में लड़ पड़ें, यह बिल्कुल अशोभनीय है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)