विश्व गौरैया दिवस विशेष: क्यों ज़रूरी है गौरैया संरक्षण?

गौरेया को बचाने के लिए दिवसों के आयोजन, राज्य पक्षी बनाने और टिकट जारी करने भर से काम नहीं चलेगा। हमें स्वयं कुछ व्यवहारिक तरीक़े अपनाने होंगे जिससे हम इस ख़ूबसूरत पक्षी को बचा सकें। इस संबंध में अपने छतों पर दाने छिड़कना और बर्तनों में साफ़ पानी रखना कारगर साबित हो सकता है। हमें ज़्यादा से ज़्यादा पेड़-पौधे लगाने होंगे ताकि उन्हें गौरैया अपना आश्रय बना सके।

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विश्व गौरैया दिवस विशेष: क्यों ज़रूरी है गौरैया संरक्षण?

मंज़र आलम

घर-आंगन को अपनी चीं-चीं से चहकाने वाली सोन चिरैया अब दिखाई नहीं देती। कभी इंसान के घरों में बसेरा करने वाली गौरैया, जो हमेशा हमारे आंगन में फुदकती थी आज विलुप्ति के कगार पर है। लोगों की जीवन शैली में बदलाव, घरों की बनावट में तब्दीली, खेती के तरीक़ों में परिवर्तन और मोबाइल टावरों की बढ़ती संख्या जैसे मुख्य कारण गौरैया के विलुप्त होने के लिए ज़िम्मेदार हैं।

गौरैया के संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के लिए प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को “विश्व गौरैया दिवस” मनाया जाता है। इसकी शुरुआत सन् 2010 से हुई। नेचर फ़ॉरएवर सोसायटी एवं इकोसिस एक्शन फ़ाउंडेशन के मिले-जुले प्रयास के कारण मनाया जाता है।

ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र के नासिक निवासी मोहम्मद दिलावर ने घरेलू गौरैया पक्षियों की सहायता हेतु नेचर फ़ॉरएवर सोसायटी की स्थापना की थी। इनके सराहनीय कार्य को देखते हुए प्रसिद्ध मैग्ज़ीन “टाईम” ने 2008 में इन्हें “हीरोज़ ऑफ़ द एनवायरनमेंट” नाम दिया। विश्व गौरैया दिवस मनाने की योजना भी मोहम्मद दिलावर ने अपने कार्यालय में एक सामान्य चर्चा के दौरान बनाई थी।

गौरैया एक ऐसी पक्षी है जो दुनिया में सबसे ज़्यादा पाई जाती है। यह न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया, नॉर्थ अमेरिका, यूरोप सहित पूरे भारत में पाई जाती है। कहते हैं कि यह पक्षी जान बचाने के लिए पानी के अंदर तैरने में सक्षम है। 14 से 16 सेंटीमीटर लम्बाई और 25 से 32 ग्राम वज़न वाली यह चिड़िया अपने झुंड में ही रहती है और भोजन की तलाश में अधिकतर दो मील की दूरी तय करती है।

“भारत के बर्ड मैन” के नाम से प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक “डॉ० सालिम मोईनुद्दीन अब्दुल अली” ने अपनी आत्मकथा “फ़ॉल ऑफ़ अ स्पैरो” नामक पुस्तक में लिखा है कि इस पक्षी से जुड़ी एक घटना उनके जीवन में टर्निंग प्वाइंट का काम कर गई और उन्होंने पक्षियों के अध्ययन को अपनी पूरी ज़िंदगी का लक्ष्य बना लिया।

दरअसल डॉ० सालिम ख़ुद एक बड़े शिकारी बनना चाहते थे। उन्होंने एक बार एक पक्षी को मार गिराया। जब वह उनके क़रीब गया तो उन्होंने उसके गर्दन पर पीले रंग का एक निशान देखा। वह उस अजनबी पक्षी को अपने चचा अमीरउद्दीन के पास ले गये परंतु वह भी उसे पहचानने में असफल रहे। फलतः उनके चाचा ने उन्हें उस पक्षी सहित “बाॅम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी” के सचिव “डब्ल्यू० एस० मिलाॅर्ड” के पास भेज दिया। मिलार्ड छोटे सालिम की इस जिज्ञासा से ख़ुश हुए। उन्होंने न केवल सालिम को उस पक्षी की पहचान सोनकंठी गौरैया के रूप में बताई, साथ ही उनको भारत के दूसरे विशिष्ट पक्षी भी दिखाए। इसके पश्चात् उन्होंने सालिम को “काॅमन बर्ड्स ऑफ़ मुम्बई” नाम की एक किताब भी दी। फिर तो उनकी रुचि बढ़ती ही गई और शिकार में रूचि रखने वाले सालिम आगे चलकर एक बड़े पक्षी वैज्ञानिक साबित हुए।

एक अनुमान के मुताबिक चालीस प्रतिशत व्यस्क गौरैया हर साल मर रही हैं। ब्रिटेन की “रॉयल सोसायटी ऑफ़ प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स” ने भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं के अध्ययन के आधार पर गौरैया को रेड लिस्ट में शामिल किया है।

सन 2012 में दिल्ली ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया तो सन् 2013 में बिहार में इसे राज्य पक्षी बनाया गया। भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किया। लेकिन गौरेया को बचाने के लिए दिवसों के आयोजन, राज्य पक्षी बनाने और टिकट जारी करने भर से काम नहीं चलेगा। हमें स्वयं कुछ व्यवहारिक तरीक़े अपनाने होंगे जिससे हम इस ख़ूबसूरत पक्षी को बचा सकें। इस संबंध में अपने छतों पर दाने छिड़कना और बर्तनों में साफ़ पानी रखना कारगर साबित हो सकता है। हमें ज़्यादा से ज़्यादा पेड़-पौधे लगाने होंगे ताकि उन्हें गौरैया अपना आश्रय बना सके। विद्यालयों में बच्चों के बीच जागरूकता भी फैलाई जाए। शायद इस तरह फिर हम अपने आंगन में चहकती-फुदकती सोन चिरैया को देख पाएंगे।

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