क्यों निरर्थक है राष्ट्र बनाम धर्म की बहस?

देश और धर्म एक दूसरे के विपरीत या पर्यायवाची नहीं हैं। देश गतिविधि के क्षेत्र का नाम है तो धर्म क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा और विधि है। देश एक भौगोलिक पहचान है तो धर्म जीवन-शैली की पहचान है। एक चीज़ सीमांत है जबकि दूसरी वैश्विक है। तो दोनों में श्रेष्ठ कौन या पहले कौन, यह प्रश्न ग़लत है। इस तरह की बहसें केवल जनता को मूल मुद्दों से भटकाने और जनभावनाओं का दुरुपयोग करने का काम करती हैं। ऐसा माहौल बनाया जाता है कि लोग तीसरी दिशा में नहीं सोचते।

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क्यों निरर्थक है राष्ट्र बनाम धर्म की बहस?

शकील अहमद राजपूत

एक बहस पिछले कुछ समय से जनता के बीच छिड़ी हुई है और वह है राष्ट्रीय भावना की! धर्म या राष्ट्र? ऐसे सवाल उठाकर देश के लोगों की भावना से खिलवाड़ किया जा रहा है और ऐसे फ़ॉर्मूले से लोग भावनात्मक रूप से प्रभावित भी हो जाते हैं। कुछ धार्मिक गुरुओं और नेताओं को यह कहते सुना गया है कि धर्म से पहले देश सर्वोपरि है तो कोई कहता है कि आस्था सर्वोपरि है और फिर देश। फिर जब इस तरह के बयानों पर बहस होती है तो मीडिया को टीआरपी दी जाती है। कुछ पार्टियों को राजनीतिक लाभ मिलता है और कुछ लोगों को सांप्रदायिकता और नफ़रत भड़काने का बहाना।

इस तरह के सवालों के सामने आने पर कुछ लोग दुविधा में पड़ जाते हैं कि क्या जवाब दें! देश को सर्वोपरि कहा जाए तो आस्था कमज़ोर होती है और धर्म को सर्वोपरि कहा जाए तो देशद्रोह कहा जाता है। बहुत से लोग भ्रमित हैं कि क्या उत्तर दें, जबकि प्रश्न व्यर्थ, निम्न स्तर के, ध्यान भटकाने वाले और सर्वथा भ्रामक होते हैं। इस विषय में विवाद के बजाय संवाद की ज़रूरत है। इस लेख में यही प्रयास किया गया है।

हमारा मानना है कि एक इंसान एक साथ कई पहचानों के साथ जी सकता है। अपने दैनिक सामाजिक जीवन में हम कभी भी पहले माता या पिता का प्रश्न नहीं उठाते हैं। घर हो या ऑफ़िस, बच्चों से पहले या दोस्तों से पहले? आंखें अच्छी या दिल? वगैरह। क्यों? क्योंकि जीवन में हर किसी का महत्व होता है। इनमें से एक भी विकल्प छूट जाए तो जीवन का आनंद कम हो जाएगा। व्यक्ति जितना अधिक इन संबंधों को जीता है, उतना ही अधिक वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। जीवित संबंधों का अर्थ है रिश्तेदारों से प्यार करना, उन्हें महत्व देना और उन्हें उनका अधिकार देना। जीवित संबंध केवल अच्छे व्यवहार का आदान-प्रदान करना नहीं हैं, बल्कि उनके साथ न्याय करना भी हैं, भले ही दूसरे उन पर अत्याचार करें। जीवित संबंध समय-समय पर उनके बारे में पता लगाने के बारे में नहीं हैं, बल्कि संपर्क में रहने, उन्हें पर्याप्त समय देने और उनकी संगत में ख़ुशी महसूस करने के बारे में हैं।

देश और धर्म एक दूसरे के विपरीत या पर्यायवाची नहीं हैं। देश गतिविधि के क्षेत्र का नाम है तो धर्म क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा और विधि है। देश एक भौगोलिक पहचान है तो धर्म जीवन-शैली की पहचान है। एक चीज़ सीमांत है जबकि दूसरी वैश्विक है। तो दोनों में श्रेष्ठ कौन या पहले कौन, यह प्रश्न ग़लत है। इस तरह की बहसें केवल जनता को मूल मुद्दों से भटकाने और जनभावनाओं का दुरुपयोग करने का काम करती हैं। ऐसा माहौल बनाया जाता है कि लोग तीसरी दिशा में नहीं सोचते।

मुझे एक कार्यक्रम की एक घटना याद आ रही है। एक मोटिवेशनल स्पीकर ने श्रोताओं के बीच एक प्रश्न उछाला। आप 100 की रफ़्तार से गाड़ी चला रहे हैं। मान लीजिए कि सामने से आपकी मां और आपकी पत्नी आ रही हैं। आप क्या करेंगे? हॉल में एक पिन ड्रॉप सन्नाटा पसर गया। सवाल इमोशनल और काफ़ी भारी था। किसी ने जवाब नहीं दिया। फिर उन्होंने मंच पर एक व्यक्ति को बुलाकर पूछा। वह व्यक्ति बड़े संकट में पड़ गया। इतने लोगों के बीच क्या कहना! अंत में, आंखों में आंसू और बहुत भारी मन के साथ, उसने कहा कि वह अपनी पत्नी को मार देगा। स्पीकर ने माइक अपने हाथ में लिया और कहा, आपका जवाब वही होगा। आप दोनों को बहुत प्यार करते हैं, लेकिन जब आपको कोई दूसरा विकल्प नहीं दिखता है, तो आप उनमें से एक को मारने के लिए मजबूर हो जाते हैं। दर्शकों ने सहमति में सिर हिलाया। फिर उसने कहा, यदि आप मुझसे यह प्रश्न पूछेंगे तो मैं उत्तर दूंगा कि मैं न तो अपनी मां को मारूंगा और न अपनी पत्नी को। मैं गाड़ी के ब्रेक लगा दूंगा। हॉल तालियों और जयकारों से गूंज उठा क्योंकि वह सही और सुंदर उत्तर था। लेकिन चूंकि वक्ता ने दो विकल्प रखे थे और दोनों में से एक चुनने को कहा था तो लोग उसी चक्कर में पड़ गए।

इसी तरह मीडिया और चतुर नेता भी राष्ट्र वर्चस्व या धर्म जैसी बहसें पैदा करके हमारे दिमाग़ पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं। यह सोचने की शक्ति को कमज़ोर करता है और सरल प्रश्न भी हमें कठिन लगने लगते हैं और हम उनकी साज़िशों के शिकार हो जाते हैं।

राष्ट्र ही व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता देता है और उस स्वतंत्रता के अनुसार वह किसी भी धर्म का पालन कर सकता है। साथ ही, धर्म कर्तव्य के प्रति समर्पण सिखाता है और वही कर्तव्य के प्रति समर्पण राष्ट्र को प्रगति की ओर ले जाता है। राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय प्रेम का सबसे बड़ा प्रतीक यह है कि व्यक्ति को कर्तव्यपरायण होना चाहिए। कर्तव्य की अवहेलना करना भी अनैतिक है और राष्ट्र की क़ानूनी भाषा में एक अपराध है। देश के वर्चस्व की अफ़ीम पीने वाले ख़ुद कर्तव्य के प्रति ईमानदार नहीं हैं।

क्या तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टियां राष्ट्र के उत्थान और प्रगति की कसौटी पर खरी उतरती हैं? आंखें बंद करके जवाब न दें। थोड़ा सोचने पर समझ जाएंगे। जब किसी व्यक्ति को एक पार्टी देशद्रोही और भ्रष्ट कहती है, लेकिन उसी व्यक्ति को वही पार्टी एक दिन ख़रीद भी लेती है, तो वह तुरंत सभी गुणों से संपन्न हो जाता है। कैसे? कर्तव्य यह है कि आप न केवल उसके ख़िलाफ़ बल्कि आपकी पार्टी के व्यक्ति के भ्रष्ट होने पर उसके ख़िलाफ़ भी क़ानूनी कार्रवाई करें। लेकिन ऐसा नहीं होता है। मैंने एक पार्टी के बड़े नेता से सवाल किया कि क्या राजनीति मूल्यों पर आधारित नहीं हो सकती? उन्होंने तुरंत जवाब दिया कि मूल्य और राजनीति विपरीत हैं। जब हमने पार्टी के एक अन्य नेता से बात की तो उन्होंने कहा कि कुछ लोग राजनीति में सिर्फ़ अपने धंधे या कमाई के लिए आते हैं। उन्हें इसलिए बेचा जाता है क्योंकि उनकी कोई मज़बूत विचारधारा नहीं है। मेरे अनुभव में ऐसे कई उदाहरण आए हैं। यह कोई विशेष पार्टी के बारे में नहीं है। कौवे आमतौर पर पूरे काले रंग के होते हैं। इसमें अपवाद हो सकते हैं। 

राजनेताओं के बाद हमारे नौकरशाहों को भी ले लीजिए। कितना पैसा जमा किया गया है! सड़क हो या मैट्रो, भवन निर्माण हो या स्वच्छता या अन्य कोई अभियान, भ्रष्टाचार की ज़ंजीरों को कौन नहीं जानता? यह भ्रष्टाचार देशभक्ति है या कर्तव्य में लापरवाही? देश के जज भी दबाव और भ्रष्टाचार से अछूते नहीं हैं। केवल पुलिस ही नहीं बल्कि हमारे शैक्षणिक परिसर भी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं। आदिकाल से देश का एक ही अर्थ हमारे निकट है और वह है कर्तव्य तथा उत्तरदायित्व की भावना से जहां के हों, वहीं अच्छा करना।

एक मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का सर्वोच्च राज्य धर्म है बिना किसी पक्षपात के सभी के साथ उचित व्यवहार। एक सैनिक के रूप में सरहद की रक्षा करना सर्वोपरि है। एक व्यवसायी के लिए सत्यनिष्ठा का पेशा सर्वोपरि है। एक मंत्री के लिए सर्वोपरि विकास का काम होता है। बिना किसी पक्षपात के न्यायाधीश के लिए पूर्ण न्याय का देना सर्वोपरि है। संसद का काम केवल किसी वर्ग विशेष के लिए क़ानून बनाना या किसी समुदाय को निशाना बनाना नहीं है, ऐसे क़ानून बनाना सर्वोपरि है जिसमें छोटे से छोटे अल्पसंख्यक की भी पूर्ण सुरक्षा हो। एक मीडिया के रूप में सर्वोपरि कर्तव्य लोगों के सामने सच्चाई लाना है। एक निर्देशक के लिए सर्वोपरि कर्तव्य समाज में एकता और नैतिकता पैदा करने वाली फ़िल्मों का निर्माण करना है। एक शिक्षक का सर्वोपरि कर्तव्य है एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना जो नैतिक मूल्यों और प्रतिभाओं से परिपूर्ण हो। एक धर्मगुरु के लिए शास्त्रों के माध्यम से एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करना सर्वोपरि है जो प्रेम और भाईचारे की मिसाल हो। एक सामाजिक नेता का सर्वोपरि कर्तव्य बिना किसी भेदभाव के न्याय और अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय रहना है। एक समुदाय के नेता के लिए सामाजिक सद्भाव सर्वोपरि है। इस प्रकार यदि सभी अपने कर्तव्य का पालन सुंदरता से करें तो देश का सर्वांगीण विकास होगा। हम आंतरिक रूप से मज़बूत और समृद्ध बनेंगे।

सर्वोच्च होने का स्पष्ट अर्थ है कि कोई भी लालच कभी आपके कर्तव्य के आड़े न आता हो। आपका तबादला हो जाए, आपकी बदनामी हो जाए, ठेका न मिले, नौकरी चली जाए, नुक़सान हो जाए, जान चली जाए, लेकिन क़ानून और संविधान के मूल्यों के ख़िलाफ़ नहीं जाना है। अगर मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं और इस तरह से अपने कर्तव्यों का पालन करता हूं, तो मुझे राष्ट्र को पहले रखने वाला कहा जा सकता है।

राष्ट्र और धर्म मनुष्य की दो आंखों के समान हैं। किसी को छोड़ा नहीं जा सकता। यही भारतीयता और धार्मिकता है। हमें भ्रामक बातों के बहकावे में आने की ज़रूरत नहीं है। दिमाग़ की आंखों से देखें और दिमाग़ से सोचें। लोगों को वह दें जिसके वे हक़दार हैं। अपना कर्तव्य ईमानदारी से पूरा करें। इस्लाम भी इसी भावना को पुष्ट करता है। क़ुरआन इसी भावना को अद्ल (न्याय) के रूप में परिभाषित करता है। मुसलमानों को अल्लाह ने किसी भी स्थिति में अद्ल करने का आदेश दिया है। क़ुरआन कहता है, “ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह के लिए गवाही देते हुए इंसाफ़ पर मज़बूती के साथ जमे रहो, चाहे वह स्वयं तुम्हारे अपने या माँ-बाप और नातेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। कोई धनवान हो या निर्धन (जिसके विरुद्ध तुम्हें गवाही देनी पड़े) अल्लाह को उनसे (तुमसे कहीं बढ़कर) निकटता का संबंध है, तो तुम अपनी इच्छा के अनुपालन में न्याय से न हटो, क्योंकि यदि तुम हेर-फेर करोगे या कतराओगे, तो जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर रहेगी।” (सूरह अन-निसा : 135)

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