लॉकडाउन में हर शाम मैं हॉस्टल से भारत की सैर पर निकलता हूं ।
कॉलेज हॉस्टल में जवानी के 4 साल बिताने के बाद रहन-सहन की कहानी समझ आने लगी थी। इंट्रोवर्ट, सोशल, लोनलीनेस जैसे इंग्लिश शब्दों से भी राब्ता हो चुका था. सामाजिक की किताबों में पढ़े विविधता वाले इस देश की झलक पाने के बेताबी हर दिन खुशनुमा बनाती। परिचय का दौर चला तो पाया कि कुछ साल यहां यूपी, बिहार से लेकर आसाम, बंगाल सब एक छतरी के नीचे ही मिलेंगे, और सब बारी-बारी मिले भी !
खैर समय है, पहिए चले और बोगी में बैठी हर सवारी अपने गन्तव्य पर जा पहुंची, अब ये सवारियां दो देशों के राष्ट्राध्यक्षों की तरह मिलती है, अब बातें किराए की छत और चारदीवारी के आलोक में रहती है।
खैर, फिर समय है, गाड़ी फिर रुकी कहीं, कोरोना कालखंड शुरू हुआ. लॉकडाउन शब्द को गूगल कर आत्मसात किया, कमरे की दीवारें फिर हर रात नपना शुरू हुई…
लेकिन नियति तो नियति है, इस कालखंड की शुरुआत एक हॉस्टल के कमरे की तालाबंदी में हुई। दरअसल, मैंने मार्च लगते ही किराए का कमरा और शेयरिंग का फ्लेट छोड़कर फिर हॉस्टल के कमरे का कोना पकड़ लिया था। 50 सीटों वाली इस इमारत में लॉकडाउन का ऐलान होते ही हर फ्लोर पर ताले लटकने लगे, आखिर 9 लोगों ने इस जंग को घर से दूर लड़ने की ठानी !
इंसानी फितरत है भईया, लॉकडाउन के 2 हफ्ते बीतने के बाद माहौल में पुरानी यादों की हवा तेज बहने लगी, हां, इस हवा में उड़ने वाले बाल सभी नए चेहरों पर लगे थे।
कोरोना चौपाल जमने लगी, कोई सरकार के साथ धैर्य रखने की बिन मांगी सलाह देता है तो किसी को वर्क फ्रॉम होम गरियाने से फुरसत नहीं। किसी को सरकार से शिकायतें हैं तो कोई बुरा वक्त बीत जाएगा वाली थॉट में खोया रहता है !
दिन पर दिन जा रहा है, बातें जमकर होने लगी है, दिल खुलने लगे, हंसी ठिठोली ने भी अपनी थोड़ी जगह एडजस्ट कर ली है, रोज बढ़ते कोरोना मामलों के तनावी माहौल की लकीरें अब फीकी पड़ने लगी है!
अब महसूस होने लगा है कि हर शाम राजस्थान, बंगाल, यूपी, आसाम, उत्तराखंड, पंजाब एक साथ 1-1 मीटर के फासले पर जमा होते हैं। बातों में अब कभी कोलकाता की काली माता पूजा है तो कभी आगरा के पंछी पेठा पर बनाए चुटकुले।
किसी शाम गोरखपुर के किस्से तो कभी राजस्थान के मंदिर और खाने पीने के आइटम घंटों जुबां पर फिसलते हैं।
सब अपनी बातें..अपने हिसाबी पल, किस्से बताने में शाम को आपस में बांटने लगे हैं…हां, देर रात तक ग्रुप स्टडी नाम की चिड़िया भी कुछ कमरों में उड़ती है!
हम उम्र के इन सभी नौजवानों (मैं भी हूं जिनमें) के लिए शायद ये दौर एक सबक लेकर आया है, जहां पड़ोस वाले कमरे में रहने वाले की 2 हफ्ते शक्ल नहीं देखी थी आज 2-2 बजे तक छत पर बातें खत्म नहीं होती।
एक आखिरी बात, इन दिनों घर से दूर मैंने आसपास सभी में थोड़ा थोड़ा अपनापन रख दिया है जिसे मैं जब चाहे महसूस कर लेता हूं, बस इसी उम्मीद के साथ कि जब साथ में इस दौर से जिद्द रहे हैं तो उबरने की खुशी भी ना जाने कितने गुना होगी। शुक्रिया
ढ़ेर सारी मोहब्बत ।
(यह लेख अवधेश पारीक द्वारा लिखा गया है,अवधेश राजस्थान विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के छात्र हैं)