AMU के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष अब्दुल्लाह अज़्ज़ाम का ठाकुर अजय सिंह के नाम खुला पत्र!

मैं बहुत से दोस्तों को जानता हूं जिन्हें एएमयू की सियासत से सख़्त परेशानी थी, जो यहां के पॉलिटिकल डिस्कोर्स से नफ़रत करते थे, बहुत थे जो आरएसएस और बीजेपी से ताल्लुक़ रखते थे लेकिन उनमें से ज़्यादातर को मैंने देखा है कि कभी दुनिया के सामने एएमयू को बदनाम करने की कोशिश नहीं की

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अजय!  तुम अपवाद हो, इसतस्नाअ हो, तुम ने जिस दर्सगाह से इल्म ओ सलाहियत हासिल की, उसे ही नुक़सान पहुंचाने, उसका ही सिर नीचा करने की कोशिश की, अच्छा नहीं किया। ये उसूल तो तय है कि दर्सगाह छोटी हो या बड़ी, अगर हम वहां से अपनी पहचान बनाते हैं और इल्म हासिल करते हैं और उसका सिर नीचा करते हैं तो असल में ख़ुद का सिर नीचा करते हैं और ख़ुद ज़लील होते हैं। फिर ये तो एएमयू है जिसने पिछले डेढ़ सौ साल से क़रीबन न जाने कितने नशेब ओ फ़राज़ का सामना किया है, कितने तूफ़ान देखे हैं और आज भी खड़ा है, पूरे वक़ार के साथ खड़ा है, फ़ख़्र ओ इम्तियाज़ के साथ बुलन्द। फिर तुम या कोई और क्या बिगाड़ेगा? मेहरबानी करके अपने बारे में ये मुग़ालता मत रखो कि तुम इतने बड़े हो कि इसकी डेढ़ सौ साल की तारीख़ से टकरा जाओगे, चूर-चूर हो जाओगे अजय, चकनाचूर। बड़े भाई की तरह समझा रहा हूं, समझ लो वरना तुम्हारा ही नुक़सान होगा।

यहां बहुत कुछ होता है, शायद बहुत कुछ ग़लत भी होता है, बहुत इख़्तिलाफ़ भी हैं आपस में। मैंने ख़ुद तलबा सियासत में हिस्सा लिया, मुझसे बहुत लोगों को शदीद इख़्तिलाफ़ भी रहा, मुख़ालिफ़त रही, मुझे भी बहुत चीज़ों से रही, लेकिन इस इदारे का एहसान इतना बुलंद है कि सब बौना है इसके आगे। तुम्हें मालूम है इस दर्सगाह की ख़ूबी? आज जब हम अपने उस दौर के मुख़ालिफ़ीन से मिलते हैं तो क्या होता है – हम गले लग जाते हैं एक-दूसरे के। तुम क्या कभी लग पाओगे किसी ‘अलीग’ से गले? तुमने तो वही किया जैसे कोई अपने घर की बुराई करके, उससे बग़ावत करके, ख़ुद इज़्ज़त कमाना चाहे – ज़लील ही होता है बिल आख़िर वो!
मैं बहुत से दोस्तों को जानता हूं जिन्हें एएमयू की सियासत से सख़्त परेशानी थी, जो यहां के पॉलिटिकल डिस्कोर्स से नफ़रत करते थे, बहुत थे जो आरएसएस और बीजेपी से ताल्लुक़ रखते थे लेकिन उनमें से ज़्यादातर को मैंने देखा है कि कभी दुनिया के सामने एएमयू को बदनाम करने की कोशिश नहीं की, एहतराम ही किया, उस्ताद का, इल्म का, दर्सगाह का – आज वो लोग बहुत कामयाब हैं और इज़्ज़त की ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। तुम अलग खड़े हो गए हो, बहुत अलग। मुझे अफ़सोस है, शायद एएमयू को भी अफ़सोस होगा कि वो तुम्हें हुसूल ए इल्म का पहला ही सबक़ नहीं पढ़ा पाया, तुम नहीं पढ़ पाए। हम यादों की मदद से आगे बढ़ते हैं, तुम कैसे याद करोगे इस दौर ए तालिब ए इल्मी को? क्या तुम बाद में तराना सुनोगे या सुन‌ पाओगे? क्या अपनी याद को मिटाने की नाकाम कोशिश की तकलीफ़ उठाते रहोगे?

बस इतना कहूंगा कि तुम्हें सियासत करनी है? करो, जम के करो, जिस पार्टी के साथ, जिस फ़िक्र के साथ, जैसी करनी हो करो, हमें कोई ग़रज़ नहीं! लेकिन अपनी दर्सगाह को अपनी सियासत का खिलौना मत बनाओ, बहुत पछताओगे। फिर जो सियासत करो, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता, ज़रूरत पड़ी तो असल सियासत के मैदान में तुमसे टकरा लेंगे, लेकिन एक बात बताएं, वहां भी टकराने में अफ़सोस होगा क्योंकि तुम ‘अलीग’ होगे! तुम्हारा जुर्म बहुत बड़ा है, तुम्हारा जुर्म तारीख़ी है, तुमने पहला सबक़ ही नहीं पढ़ा, ऐसे में ज़िंदगी फिर बहुत सबक़ सिखाती है, प्रायश्चित कर लो, तौबा कर लो। तुम्हारी तौबा यही है कि एएमयू के स्टूडेंट्स पर जो घटिया सियासी चालबाज़ी से संगीन‌ दफ़ाएं लगवाई हैं, उन्हें ख़त्म कर दो, वरना तुम्हारी मर्ज़ी – ख़ुद को कोसते रहना। ये एमएलए, एमपी वगैरह पर हंसी आती है कि बेचारे सर्कस के जोकर मास्टर की तरह बात-बात पर पुलिस और स्टेट मशीनरी से नौटंकी करवाते रहते हैं और भाड़े की भीड़ से दाद लेते हैं। अरे कुछ काम कर‌ लो, नहीं कर सकते, सलाहियत नहीं है मान लिया, तो बिस्किट खाओ, जोकराई क्यों?”

:अब्दुल्लाह अज़्ज़ाम

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