काॅलेज शिक्षकों की प्रोन्नति के लिए शोध की अनिवार्यता समाप्त

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कॉलेज शिक्षकों के लिए सरकार की ओर से राहत की ख़बर है। सरकार काॅलेज में पढ़ाने वाले शिक्षकों को प्रोन्नति देने के लिए शोध की अनिवार्यता समाप्त करने पर विचार कर रही है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 29 जुलाई 2016 को दिल्ली विश्वविद्यालय के दीनदयाल उपाध्याय काॅलेज में आयोजित अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ की संगोष्ठी के दौरान यह घोषणा की। उन्होंने कहा कि इसके लिए आधार शैक्षणिक प्रदर्शन संकेतक (एपीआई) में शीघ्र ही परिवर्तन किया जाएगा व जल्द ही इस संबंध में आधिकारिक घोषणा की जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि शोध की जगह वह चाहते हैं कि शिक्षक छात्रों से जुड़ी गतिविधियों में शामिल हों। हम सामुदायिक गतिविधियों अथवा छात्रों से जुड़ी गतिविधियों को अनिवार्य बनाएंगे। शिक्षकों को इसी आधार पर अंक दिए जाएंगे। जावड़ेकर ने कहा कि मौजूदा समय में कॉलेज शिक्षकों के लिए विश्वविद्यालय प्रोफेसरों की तरह शोध कार्य प्रोन्नति के लिए ज़रूरी है। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि दोनों एकदम भिन्न श्रेणी के शिक्षक हैं।

2010 में, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) के साथ, उच्च शिक्षण संस्थानों में संकायों के मूल्यांकन के लिए शैक्षणिक प्रदर्शन संकेतक (एपीआई) की शुरुआत की थी। कैरियर एडवांसमेंट स्कीम (सीएएस) से लाभ पाने के लिए, सभी संकाय सदस्यों हेतु, एपीआई को केंद्रीय विश्वविद्यालयों और केंद्र सरकार के वित्तपोषित कॉलेजों में शिक्षण और प्रशासनिक कर्तव्यों के साथ-साथ शोध करने और शोध पत्र प्रकाशित करने के लिए आवश्यक बनाया गया था। देश के अधिकतर केंद्रीय एवं राजकीय विश्वविद्यालय व काॅलेज एपीआई का पालन करते हैं।

इस ठोस क़दम को उठाने के लिए प्रकाश जावड़ेकर की काफ़ी सराहना की जा रही है क्योंकि यह बहस अत्यंत पुरानी है कि शिक्षकों का मुख्य कार्य शिक्षण करना ही है और उन्हें वह करने दिया जाना चाहिए। इस संबंध में पहला तर्क यह दिया जाता है कि अतिरिक्त गतिविधियाँ जैसे शोध, प्रशासनिक कर्तव्यों का निर्वहन इत्यादि शिक्षण कार्य में बाधा उत्पन्न करती हैं। दूसरी बात यह कि वर्तमान समय में अधिकतर काॅलेज शिक्षकों (पीएचडी डिग्री धारियों सहित) के पास शोध प्रशिक्षण की कमी है और शोध हेतु शिक्षकों को उपयुक्त वातावरण व साधन भी उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं। इन्हीं कारणों के चलते शिक्षकों द्वारा प्रोन्नति पाने के लिए ‘फेक जर्नल्स’ अर्थात् नकली शोधपत्र प्रकाशित कराने के मामले सामने आते हैं। जावड़ेकर ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला और कहा, “शोध अनिवार्य बनाना (कॉलेज के शिक्षकों के लिए) शोध की गुणवत्ता को कम कर रहा था। एपीआई के शोध घटक के कुछ आलोचकों ने पहले भी यह तर्क दिया है। परन्तु एपीआई में शोध घटक विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षकों के लिए अनिवार्य रहेगा अर्थात जो शिक्षक स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षण कार्य करते हैं उन्हें प्रोन्नति के लिए शोध पत्र प्रकाशित कराने होंगे। कॉलेज शिक्षकों के लिए अब शोध आवश्यक नहीं होगा, हालांकि जो शिक्षक शोध में सक्षम हैं और स्वेच्छा से करना चाहते हैं , वे अभी भी शोध करने के लिए स्वतंत्र होंगे।”

शोध, शिक्षण का अभिन्न अंग माना जाता रहा है लेकिन उक्त कारणों के चलते भारत के अधिकांश कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में शुद्ध शोध सम्भव नहीं है। जो शिक्षक शोध हेतु प्रशिक्षित हैं अथवा जो संकाय शोध करने की दृष्टि से सम्पन्न हैं, उनका नैतिक कर्त्तव्य है कि वे देश और समाज के हित में शोध करें और अप्रशिक्षितों को चाहिए कि वे उपयुक्त प्रशिक्षण हासिल करें। सरकार को भी चाहिए कि वह अपना कर्तव्य समझते हुए प्रशिक्षण की व्यवस्था करे।

यहाँ बहस और बात करने मुद्दा यह है कि शोध करने एवं शोध पत्र प्रकाशित करने के स्थान पर सरकार द्वारा जिन ‘सामुदायिक गतिविधियों’ की बात कही गई है, वे क्या हैं? न ही सरकार और न ही मीडिया द्वारा अब तक इसका स्पष्टीकरण हो सका है। सरकार को यह भी सोचना होगा कि जिस प्रकार प्रोन्नति के लिए ‘फेक जर्नल्स’ प्रकाशित हुए थे, उसी प्रकार सामुदायिक गतिविधियों के नाम पर महज़ खानापूर्ति होकर न रह जाए। चिंता का विषय यह भी है कि कहीं सामुदायिक गतिविधियों के नाम पर सरकार द्वारा छात्रों पर एक विशेष विचारधारा थोपने का कार्य न किया जाए, क्योंकि देश की वर्तमान शैक्षिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और स्कूलों एवं कॉलेजों में एक विशेष विचारधारा को बढ़ावा देने की घटनाएँ भी सामने आई हैं।

देखना दिलचस्प होगा कि प्रकाश जावड़ेकर “शिक्षकों का मुख्य कार्य शिक्षण करना ही है” के सिद्धांत को कहां तक बिना विवादों में घिरे साध पाते हैं और सामुदायिक गतिविधियों के रूप में क्या कुछ प्रस्तुत करते हैं।

– तल्हा मन्नान ख़ान (छात्र, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय)

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