हर साल बाढ़ से क्यों परेशान है बिहार?

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अतिकुर रहमान

उत्तर बिहार से बाढ़ का नाता पुराना है। इस इलाके की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे बाढ़ से बचाया नहीं जा सकता। हिमालय से निकलने वाली कई नदियाँ नेपाल से होते हुए बिहार के इस इलाके में उतरती हैं। ताजा जल का यह स्रोत वरदान भी हो सकता है, लेकिन बरसात में ये नदियाँ परेशानी का सबब भी बनती रही हैं। कोशी एक ऐसी नदी है, जो अपनी चंचल धारा की वजह से कुछ ज्यादा ही कहर ढाती रही है।

जानकार कहते हैं कि बाढ़ एक कुदरती परिघटना है, जिसे रोका नहीं जा सकता। मनुष्य के हित में यह है कि वह बाढ़ के मुताबिक़ जीना सीख ले। लेकिन जब तकनीक से प्रकृति को जीत लेने का भरोसा इंसान में कुछ ज़्यादा ही भर गया तो नदियों को नाथ कर बाढ़ रोकने के तरीके अपनाए गए। बहरहाल, पिछले पाँच-छह दशकों के अनुभवों ने यह भरोसा तोड़ दिया है। बाँध और तटबंधों के जरिए बाढ़ रोकने की उम्मीद निराधार साबित हो गई है।

जब बिहार के संदर्भ में बाढ़ की बात होती है, तो यह ध्यान में रखना चाहिए कि इस गरीब राज्य में भुखमरी की यह एक बड़ी वजह जरूर है, लेकिन यह सिर्फ एक वजह है। सूखा और सामान्य स्थितियों में भी भुखमरी के हालात पैदा होते रहे हैं। इसका सबसे खास कारण भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार ने बाढ़ और सूखा राहत को नेताओं, ठेकेदारों और बिचौलियों के लिये फायदेमंद उद्योग बना रखा है। नदी की ख़ास बनावट, उसकी ऐतिहासिक स्थिति और अगस्त 2008 में आई भयानक बाढ़ पर है। यह बाढ़ नेपाल में कुसहा में तटबंध के टूटने से आई, लेकिन तटबंध क्यों टूटा और इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है, इन सवालों के जवाब अब तक नहीं मिले हैं। आम लोग और जन संगठन इसके लिये सीधे तौर पर सरकार और प्रशासन को दोषी मानते हैं। ज़ाहिर है, लाखों लोगों पर आफत आई, उसकी जिम्मेदारी भी उन पर ही है।

कोशी में अगस्त 2008 की बाढ़ ने तटबंधों और बाँधों की उपयोगिता पर सवाल को और गहरा कर दिया। कोशी की बाढ़ ने सरकारी लापरवाही को बेनका़ब कर दिया। पूरी स्थिति पर ध्यान दिया जाए तो यह साफ़ हो जाता है कि सरकार अतीत की गलतियों से सीखने को बिल्कुल तैयार नहीं है, साथ ही वह बाढ़ नियंत्रण के जिन उपायों में यकीन करती है उस पर अमल में चुस्ती नहीं बरतती। राजनीतिक दल और नेता जनता से ज्यादा अपने निहित स्वार्थों का ख़याल करते हैं। दरअस्ल, कई विशेषज्ञ तो यह मानते हैं कि अगस्त 2008 की बाढ़ इसलिये इतना बड़ा मुद्दा बन पाई, क्योंकि उससे नेपाल का पहलू जुड़ा था। इससे बाढ़ को एक अंतर्राष्ट्रीय आयाम मिल गया।

2017 बिहार में 19 से अधिक जिलों में बाढ़ ने आपनी कहर बरपाया, 1.76 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित किया, वहीं सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 700 से अधिक लोगों को बाढ़ के चपेट आने से मौत हुई। प्रभावित प्रमुख जिले में अररिया, किशनगंज, मधुबनी, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण, सीतामढी, शिवहर, सुपौल, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, सहरसा, कटिहार था, जहां बाढ़ ने लाखों को प्रभावित किया।

बिहार में बाढ़ का मामला पेचीदा है। इससे कई बुनियादी तकनीकी सवाल जुड़े हुए हैं, इसका एक अंतरराष्ट्रीय पहलू है, सरकारों की अनदेखी और भ्रष्टाचार के तंत्र ने हालात को और गंभीर बना रखा है। तो आखिर समाधान क्या है? बिहार के जन संगठनों और जनपक्षीय रूझान रखने वाले जानकारों ने इस पर काफी सोच-विचार किया है। अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने कई माँगें तैयार की हैं। ये माँगें राज्य की जनता को बाढ़ से राहत दिलाने के उपाय सुझाते हैं। इनमें कुछ फौरी कदम हैं, जिन्हें तुरंत उठाया जाना चाहिए, कुछ मध्यम अवधि के कदम हैं और कई दीर्घकालिक कदम। दीर्घकालिक कदमों का सम्बन्ध नजरिए से है। बाढ़ और कुदरत को लेकर कैसा नजरिया हो, यह गम्भीर बहस का विषय है। लेकिन इस बहस को अब जरूर चलाया जाना चाहिए।

बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है। जिसको रोका तो नहीं जा सकता परंतु उसके उपरांत होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है। बाढ़ का पहला कारण नहरों का अतिक्रमण और नहरों का जाम होना है। समयपूर्व बाँधों का निरीक्षण कर जिन जिन जगहों पर क्षतिग्रस्त बाँध है उनका तटबंध मजबूत करना होगा। नदियों से अनेकानेक नहरों को निकलना होगा जिससे पानी का फैलाव आसनी से हो।

हमारा पैतृक रिश्ता पूर्वी चम्पारण से है, जहां बाढ़ दस्तक देते ही जिला मुख्यालय से प्रभावित प्रखंडों की जनसम्पर्क टूट जाता है, यह हाल बिहार की सभी प्रभावित जिलों की है, ऐसे में बाढ़ ग्रसित होने से पूर्व गाँव में ऊँचे जगह का चयन कर वहाँ शेड की व्यवस्था होना चाहिए ताकि ग्रामीण वहाँ श्रण ले सकें, और आपातकालीन मेडिकल कैंप और NDRF या SDRF की टीम को रहने का व्यवस्था होना चाहिए।

बीते कुछ वर्षों में बिहार अधिक प्रभावित नहीं हुई है, क्योंकि हर साल आने वाली बाढ़ का सबसे बड़ा कारण है नेपाल, क्योंकि जब नेपाल में जलस्तर बढ़ता है और वहां से पानी छोड़ा जाता है तो वह उत्तरी बिहार के इलाकों में कोहराम मचा देता है, उसके पूरी बिहार बाढ़ में लबरेज़ हो जाती है।

लेकिन बात सिर्फ यह नहीं है कि कुछ उपायों की चर्चा कर ली जाए या कोई नया नजरिया पेश कर दिया जाये। जब पुरानी नीतियों और उपायों के पीछे बड़े-बड़े निहित स्वार्थ हों, तो सुझाव चाहे जितने अच्छे, यथार्थ और तार्किक हों, सरकारें उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं होंगी। इसके लिये सरकारों को मजबूर करना होगा। ऐसा तभी हो सकता है जब जनता जागरूक हो और अपनी माँगों को लेकर सत्ताधारी सरकारों पर दबाव बनाएं।

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