यह अभिव्यक्ति की आज़ादी को बचाने का चुनाव है

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मुहम्मद स्वालेह अंसारी

2024 का लोकसभा चुनाव भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व है। जहां एक तरफ़ यह पर्व लोकतंत्र को सुरक्षित बचाए रखने का पर्व है तो वहीं दूसरी तरफ़ यह आज के दमघोटू वातावरण में जीवित रह पाने के संघर्ष का पर्व भी है।

आज जब सत्ता के शीर्ष पर बैठी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में बने रहने के लिए साम, दाम, दण्ड भेद के जितने रास्ते हो सकते हैं, सब का प्रयोग कर भारतीय लोकतंत्र की छवि को दुनिया के सामने धूमिल कर रही है। ऐसे में देखने वाली बात यह है कि भारतीय संविधान में किसी भी नागरिक को किस हद तक जाकर लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग कर अपनी बात कहने, विचार प्रकट करने का अधिकार प्राप्त है।

क्या है अभिव्यक्ति की आज़ादी?

भारतीय संविधान के मूलभूत अधिकारों में सम्मिलित अनुच्छेद 19 से 21 स्वतंत्रता के अधिकारों को बात करता है। अनुच्छेद 19 में भारतीय नागरिकों को 6 प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गई है:


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
संगठित/एकत्रित होने की स्वतंत्रता
संगठन बनाने की स्वतंत्रता
भारत के किसी भाग में आने-जाने की स्वतंत्रता
निवास की स्वतंत्रता
पेशे की स्वतंत्रता

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण अंग है। अनुच्छेद 19(अ) इस बात का अधिकार देता है कि भारतीय नागरिक अपने विचार लोगों के सामने अभिव्यक्त कर सकें, अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकें, कार्यपालिका, न्यायपालिका और नौकरशाही की आलोचना उस सीमा तक जाकर कर सकें, जहां पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(अ) का उल्लंघन न हो। यहां एक बात ध्यान रखने वाली है कि प्रेस और पत्रकारिता विचारों के प्रकट करने का ही एक माध्यम है। अतः प्रेस और पत्रकारिता की स्वतंत्रता भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में शामिल है। अर्थात् कोई भी पत्रकार या लेखक 19(अ) के तहत अपने विचार लिख सकता है और मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचा सकता है जब तक कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(अ) का उल्लंघन न हो।

क्या है भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(अ) या राजद्रोह?

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124(अ) में देश की एकता और अखंडता को व्यापक हानि पहुंचाने के प्रयास को राजद्रोह के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके अंतर्गत सरकार विरोधी गतिविधियां और उनका समर्थन, देश के संविधान को नीचा दिखाने का प्रयास, कोई ऐसा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, लिखित या मौखिक कृत्य जिससे सामाजिक स्तर पर देश की व्यवस्था के प्रति असंतोष उत्पन्न हो, इसमें शामिल है।

वर्तमान परिदृश्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

हाल ही में भारत सरकार के आदेश के बाद कई बड़े यूट्यूब चैनलों, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम हैंडल्स को सोशल मीडिया से हटाने की बात सामने आई है, जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी दमन के रूप में देखा जा रहा है। ‘बोलता हिंदुस्तान’ नामक चैनल सोशल मीडिया के बड़े यूट्यूब चैनलों में से एक है। हाल ही में ‘बोलता हिंदुस्तान’ के इंस्टाग्राम हैंडल के बाद अब यूट्यूब चैनल को सरकार के आदेश पर बंद करने का नोटिस ई-मेल के माध्यम से प्राप्त हुआ। आपको बता दे कि ‘बोलता हिंदुस्तान’ पत्रकारिता की भाषा और मर्यादा को ध्यान में रखते हुए रिपोर्टिंग कर रहा था और सत्ता से सवाल भी कर रहा था। ऐसे में वर्तमान सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को यह पसंद नहीं आया और बिना कोई वजह बताए उसको बंद करने का आदेश यूट्यूब को भेज दिया गया।

रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ भारतीय पत्रकार रवीश कुमार सोशल मीडिया साइट् एक्स पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं कि, “वजह भी नहीं बताई गई और चैनल भी बंद कर दिया गया। इसके साथ कई लोगों की आजीविका भी ख़त्म कर दी गई। इतने सारे गोदी चैनल आराम से चल रहे हैं, फ़ाइन देने के बाद भी वही सब दोहरा रहे हैं लेकिन अब यूट्यूब से दिक़्क़त होने लगी है ताकि सारे रास्ते बंद हो जाएं। विपक्ष को जेल में डालो और बोलने वालों का चैनल बंद करो। फिर चार सौ क्या आठ सौ आ ही जाएगा। यह सरकार निंदा के असर से ऊपर उठ चुकी है। क्रूरता बरतने में इसे गर्व होता है।”

इसके अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकार अजित अंजुम और यूट्यूब क्रिएटर श्याम मीरा सिंह ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी। अजित अंजुम ने लिखा कि, “धीरे-धीरे आज़ाद आवाज़ों पर ऐसे ही शिकंजा कसा जाएगा। @BoltaHindustan को यूट्यूब से हटाया जाना इसी बात का सबूत है। आज इन्हें बंद किया गया है, कल किसी और को बंद किया जाएगा। मोदी की सत्ता को सबसे बदहज़मी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म से ही है। बाक़ी तो ज़्यादातर चरण वंदना कर ही रहे हैं। मेरे फ़ेसबुक पेज को भी तीन महीने पहले रेस्ट्रिक्ट कर दिया गया है। अभी तो बहुत कुछ होना बाक़ी है।”

यूट्यूब क्रिएटर श्याम मीरा सिंह लिखते है कि, “जिन्हें लग रहा है कि 2024 चुनाव ऐसे ही हैं, वे इसे पढ़ें। विपक्ष की आवाज़ उठाने वाले @BoltaHindustan मीडिया के पहले इन्स्टाग्राम को उड़ाया गया। आज यूट्यूब चैनल उड़ा दिया। यूट्यूब ने ये कार्रवाई सरकार के नोटिस के बाद की है और कुछ नहीं बता रहे कि क्यों हटाया गया। बोल रहे हैं सीक्रेट है। चैनल उड़ाया कोई बात नहीं, ख़तरनाक बात यह है कि सरकार यह भी नहीं बता रही कि कारण क्या है? ऐसा कौन सा वीडियो डाल दिया कि उसकी सज़ा पूरा चैनल उड़ाने की है। कम-से-कम वो वीडियो दिखा दो। लिंक दे दो। ये क्या सरकार ने कह दिया तो कह दिया। कोई स्पष्टीकरण नहीं। बस कह दिया कि सीक्रेट है।”

‘बोलता हिंदुस्तान’ के अलावा ‘आर्टिकल 19’ न्यूज़ वेबसाइट और खोजी पत्रकारिता की दुनिया में मुख्यधारा मीडिया से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। नागरिकता संशोधन क़ानून, दिल्ली दंगे, किसान आंदोलन और कई ऐसी घटनाओं की शानदार रिपोर्टिंग करने वाले ‘आर्टिकल 19’ के फ़ेसबुक पेज को कुछ दिन पहले रिस्ट्रिक्ट कर दिया गया था।

‘आर्टिकल 19’ के संस्थापक नवीन कुमार ने लिखा कि, “आर्टिकल 19 इंडिया का फेसबुक पेज @Meta ने बंद कर दिया है। इनका कहना है कि किसान, नौजवान, अल्पसंख्यक, महिलाओं के उत्पीड़न की बात करना हमारी कम्यूनिटी गाइडलाइन के ख़िलाफ़ है। हम इसका सामना करेंगे। इसके रास्ते तलाश रहे हैं। तबतोक आपसे अनुरोध है आप हमें यूट्यूब पर सब्सक्राइब कर लें। ज़िंदाबाद।”

कुछ दिन बाद जब ‘बोलता हिंदुस्तान’ के यूट्यूब चैनल को बंद किया गया तब उन्होंने फिर से प्रतिक्रिया देते हुए लिखा कि, “27 फ़रवरी को @Article19_India का फ़ेसबुक पेज रेस्ट्रिक्ट कर दिया गया। किसी ने इस पर कोई आवाज़ नहीं उठाई। हम ये लड़ाई अकेले लड़ रहे है। फिर भी हम कहते हैं कि @BoltaHindustan के यूट्यूब चैनल को बंद करना सीधे-सीधे अभिव्यक्ति का गला घोंटना है। इसका हर क़ीमत पर मुक़ाबला करना होगा। साथ आना होगा।”

‘बोलता हिंदुस्तान’, ‘आर्टिकल 19’ के अलावा ‘गांव सवेरा’ नाम के स्वतंत्रत मीडिया पेज को कई बार बंद किया जा चुका है। हाल ही में ‘गांव सवेरा’ के संस्थापक मनदीप पुनिया ने जानकारी दी कि उनके ट्विटर अकाउंट तो खोल दिये गये हैं, लेकिन इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर वे अभी भी सेन्सरशिप झेल रहे हैं। वे इस सेन्सरशिप के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में लड़ाई भी लड़ रहे हैं। कल माननीय कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस पर जवाब भी मांगा था। कई पत्रकारों के खाते अभी भी बंद हैं। वे इस नयी तरह की सेन्सरशिप की निंदा करते हैं और इसके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए तैयार हैं।

मनदीप पुनिया आगे बताते है कि किस प्रकार से स्वतंत्र आवाज़ों को कुचला जा रहा है और उनको हर तरफ़ से कमज़ोर करने की कोशिश की जा रही है ताकि वह सत्ता से सवाल न कर सकें। वे कहते हैं कि, “किसी भी लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया की अहम भूमिका होती है। हम ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्टिंग कर रहे थे। हमारे काम में ख़लल डाला गया, इससे हमारी रोज़ी-रोटी भी प्रभावित हुई है।”

उन्होंने बताया कि किस प्रकार से एक लंबी क़ानूनी लड़ाई में फंसा कर पत्रकारों के ध्यान को भटकाया जा रहा है और अभिव्यक्ति की संवैधानिक आज़ादी के लिए बाधाएं उत्पन्न की जा रही हैं। उन्होंने कहा कि, “जो लोग हमारे खाते खुलने पर X या सरकार का धन्यवाद कर रहे हैं, वे ग़लत कर रहे हैं, क्योंकि ये खाते एक लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद खुले हैं जो अभी भी जारी है और अगली सुनवाई 20 अप्रैल की है। इस सेन्सरशिप में भी हमने अपना काम जारी रखा और कई अलग-अलग माध्यमों से आप तक ग्राउंड रिपोर्ट्स पहुंचाते रहे। अभी हम यूट्यूब पर एक वैकल्पिक चैनल से आप तक खबरें पहुंचा रहे हैं।”

उपर के तमाम घटनाक्रमों को सामने रखिए और सोचिए ज़रा कि किस प्रकार से सरकारी मशीनरी का प्रयोग कर सरकार लोगों के मूलभूत अधिकारों को छीनने का भरसक प्रयास कर रही है। इन घटनाक्रमों को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इन तमाम चैनलों को प्रतिबंधित करने का तरीक़ा समान है। बिना किसी पूर्व नोटिस के सीधा-सीधा प्रतिबंधित करना और उसके बाद क़ानूनी लड़ाई के एक लंबे जाल में फंसाए रखना और अदालतों के चक्कर लगवाना।

वहीं इसके ठीक उलट अगर हम मुख्यधारा की मीडिया की हालत देखें तो अभिव्यक्ति की आज़ादी और मेनस्ट्रीम होने के नाम पर कितना लाभ कमाया जा रहा है। मेनस्ट्रीम मीडिया के की टीवी चैनलों को बार-बार नोटिस और जुर्माना लगाने के बाद भी उनके काम में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता है। नफ़रत और सांप्रदायिक विद्वेष से भरपूर सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने वाली ख़बरों की भरमार दिखाई पड़ती है और अंततः कार्रवाई के नाम पर सिर्फ़ खानापूर्ति ही होती है।

प्रेस और प्रेस स्वतंत्रता से जुड़ी ये घटनाएं सिर्फ़ चंद उदाहरण हैं। हज़ारों ऐसी घटनाएं हैं जो रिपोर्ट ही नहीं की जाती हैं या जिनका पता लोगों को नहीं चल पाता है। जैसे उत्तर प्रदेश में मिड-डे मील भोजन पर रिपोर्ट करने पर एक पत्रकार की नौकरी चली जाती है। माननीय मंत्री और अमेठी से सांसद से सवाल करने पर पत्रकार की रोज़ी-रोटी छीन ली जाती है। कश्मीर में पत्रकारों को रिपोर्ट करने पर जेल में डाल दिया जाता है तो पत्रकारिता के क्षेत्र में अवार्ड पाने वाले पत्रकार को पुरस्कार वितरण समारोह में प्रतिभाग करने से पहले हवाई अड्डे पर रोक दिया जाना, सालों से जेल में बंद कश्मीरी पत्रकार आसिफ़ सुल्तान के ज़मानत पर बाहर आने के कुछ दिन बाद ही फिर से किसी अन्य मामले में जेल भेज दिया जाना या ‘ऑल्ट न्यूज़’ के संस्थापक सदस्य ज़ुबैर को स्कूल टीचर द्वारा सांप्रदायिक भेदभाव के कारण मुस्लिम बच्चे को अन्य बच्चों से पिटवाने की घटना रिपोर्ट करने भर से कई एफ़आईआर कर जेल भेज देना, पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन जो उत्तर प्रदेश में एक घटना को रिपोर्ट करने के लिए जा रहे थे, उनको रास्ते में ही गिरफ़्तार कर एक अन्य मामले से जोड़ कर सालों जेल में रखना यह दर्शाता है कि भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी कितनी ख़तरे में है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी के मामले में राजद्रोह का सामना करना सिर्फ पत्रकारों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी पहुंच आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विश्विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों तक है। नागरिकता संशोधन क़ानून और किसान क़ानून के ख़िलाफ़ खड़े हुए बड़े और ऐतिहासिक आंदोलनों में विभिन्न मंचों से दिए गए भाषणों को आधार बनाकर जेल में डाले गए युवा आज तक जेल से बाहर नहीं आ सके हैं। जो बाहर हैं भी तो सरकारी तंत्र के दबाव और मशीनरी के जंजाल अर्थात् क़ानूनी लड़ाई का सामना कर रहे है। गुलफ़िशा फ़ातिमा, उमर ख़ालिद, ख़ालिद सैफ़ी, मीरान हैदर, शरजील इमाम और न जाने कितने नाम हैं जो आज भी तीन–तीन चार–चार साल से अधिक दिनों से जेल की सलाखों के पीछे है। इनका अपराध क्या है, आज तक सरकार कोर्ट में यह भी नहीं सिद्ध कर सकी है। यह दर्शाता है कि किस प्रकार सरकारी मशीनरी अपनी सत्ता शक्ति के धौंस के बल पर जनता को अत्याचार और नाइंसाफ़ी के जाल में फंसा कर ज़िंदगियां बर्बाद करती है।

नागरिकता संशोधन क़ानून विरोधी आंदोलन में इलाहाबाद निवासी और जेएनयू छात्र राजनीति का हिस्सा रहीं आफ़रीन फ़ातिमा के पिता जावेद मुहम्मद को उत्तर प्रदेश सरकार सरकारी तंत्र का निशाना बनाकर जेल भेज देती है। तमाम क़ानूनी कार्रवाई को ताक पर रखते हुए नगर निगम बुल्डोज़र कार्रवाई कर जावेद मुहम्मद के घर को ध्वस्त कर देती है, परिणामस्वरूप उस पूरे परिवार और क्षेत्र के लोगों को मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है।

विपक्षी आवाज़ों के दमन की ये घटनाएं एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जानलेवा हैं। 2014 के बाद से लगातार प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स और डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत की निचली स्थिति इस बात का सूचक है कि वर्तमान सरकार लोगों के मूलभूत अधिकारों को छीन कर और सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कर सत्ता अपने पास रखना चाहती है ताकि लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर भारत की साझी विरासत को मिटा कर मनमाने तरीक़े से तानाशाही शासन का निर्वहन कर सके और सत्ता की मलाई कुछ बड़े और धनाढ्य लोगों को ही मिलती रहे।

स्वतंत्र और विपक्षी आवाज़ें हमेशा से ही एक निरंकुश सरकार के लिए ख़तरे की घंटी होती हैं। लोहिया जी ने कभी कहा था कि जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। आज सरकार सड़कों को सूनी करने, विरोधी स्वरों को ख़ामोश करने और देश को पतन की ओर धकेलने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है ताकि 400 पार का नारा सच साबित हो सके और तब आवारा सरकार भारतीय लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को कमज़ोर कर अपनी मनमानी कर सके जैसा कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बयान लगातार सामने आ रहे हैं।

समझने वाली बात यह है कि लोकतंत्र को कमज़ोर करना और तानाशाही के दौर में धकेलना इतना भी आसान नहीं है। अभी भी स्वतंत्र आवाज़ें मेनस्ट्रीम मीडिया की नाक के नीचे सरकारी मशीनरी के तमाम दुरुपयोगों के बाद भी अपनी सांसों को ज़िंदा रखे हुए सरकारी तंत्र से सवाल करके और कई बड़े घोटालों को उजागर करके ये बता रही हैं है कि सरकार या देश सिर्फ़ चंद लोगों से नहीं चलता बल्कि एक लोकतांत्रिक देश उसमें बसने वाले उन हज़ारों नागरिकों से चलता है जो अपने नागरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं।

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