यह हम अक्सर दोहराते रहते हैं कि आज का युवा कल का भविष्य है। लेकिन आज के युवा की दशा और दिशा देखने के लिए स्कूल-कॉलेजों के प्रांगण में झांक लेना जरूरी है कि शिक्षा के ये मंदिर कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं! बहुत सारी जगहों पर विद्यार्थी बिना किताबों के परीक्षा दे रहे हैं, डिग्रियां ले रहे हैं और कई बार नौकरियां भी पा रहे हैं। कोई दो दशक से कॉलेज में देख रहा हूं, क्लास रूम में विद्यार्थियों की उपस्थिति महज बीस-पच्चीस फीसद ठहरती है। गौर करने पर पता चलता है कि उनके हाथ में किताबें नहीं होती हैं। एक मोटा रजिस्टर और गर्व के साथ ‘पास बुक्स’ यानी प्रश्न और उत्तर वाली सहायक किताबें होती हैं। क्या हमें इस गंभीर बीमारी पर विचार नहीं करना चाहिए? अब सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट आने वाली है। ‘पे बैंड फोर’ का उपभोग करने वाला प्राध्यापक इसके लिए कभी नहीं सोचता कि आखिर विद्यार्थी बिना किताब के कैसे पढ़ेंगे। इस बात को नजदीक से देखने का अवसर तब मिला, जब मैंने एक किताब प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों को ध्यान में रख कर निकाली। महज पांच सौ प्रतियां भी निकलनी मुश्किल हो गर्इं। दो-चार व्याख्याताओं ने इस संदर्भ में बताया कि जब विद्यार्थी पाठ्यक्रम में लगी बीस-पच्चीस रुपए की पुस्तक नहीं ले पा रहा है, तब मूल्यांकनपरक पुस्तक के साठ रुपए कौन देगा भला! मैं निराश नहीं हुआ, क्योंकि मेरे लिए यह एक प्रयोग था। एक दिन किसी प्राध्यापक-सह-लेखक का फोन आया कि आपने अपनी किताब के जरिए ‘पास बुक्स’ का विकल्प दिया है। यह अच्छा काम है। इसे आगे बढ़ाने के लिए ऐसी पहल आगे भी जारी रखनी होगी। ये दो राय दो तरह के सच बताती है। तीन-चार कॉलेजों में दस-पंद्रह प्रतियां भिजवाने के बावजूद दस दिन में एक भी प्रति की बिक्री नहीं होना मेरे लिए चिंता का सबब था कि इस प्रयोग को आगे कैसे बढ़ाया जाए! विद्यार्थी अगर पुस्तकें नहीं पढ़ते, तो इसके लिए प्राध्यापकों की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है। हिंदी को कमजोर स्थिति में लाने, अरुचिकर बनाने और अपठनीय कहलाने में उसे पढ़ाने वाले अधिक जिम्मेदार हैं। किसी भी चीज को अपनाने में थोड़ा वक्त लगता है। जब पढ़ने की आदत ही नहीं है, तब भला उसके हाथ में किताबें क्यों होंगी? ऐसा लगता है जैसे परंपरागत विषयों को विद्यार्थी मजबूरी में पढ़ता
है। वह शिक्षा को नौकरी पाने का एक माध्यम भर मान कर चलता है। किसी तरह बीए पास कर जाने के लिए वह कॉलेज में दाखिला लेता है। उसके लिए प्राध्यापकों की बड़ी फौज केवल औपचारिकता निभाने का माध्यम बन कर रह गई है। ठीक वैसे ही जैसे राजकीय चिकित्सालय के डॉक्टर मरीज को इस तरह से देखते हैं जैसे वह उन पर मेहरबानी कर रहा हो। सरकारी डॉक्टर को मरीज देखने की पूरी तनख्वाह मिलती है। फिर भी वह तनख्वाह से अधिक निजी प्रैक्टिस कर कमा लेता है। जबकि जो व्याख्याता और डॉक्टर सरकार की नौकरी करते हैं, वे जनता के सेवक हैं। सवाल है कि आखिर किताबें क्यों नहीं पढ़ते विद्यार्थी? इस सवाल का जवाब कौन देगा सिवाय प्राध्यापकों के। आए दिन होने वाले धरना-प्रदर्शन में कभी भी इस बात को नहीं उठाया जाता है कि हमारे विद्यार्थी क्योें किताबों से विमुख है। किताबें उनकी दुश्मन नहीं हैं। फिर उनके हाथ में किताबें क्यों नहीं हैं? गांधीजी आदमी के लिए पुस्तक को सर्वश्रेष्ठ मित्र बता चुके हैं। एक ओर छोटे और कोमल मन-मस्तिष्क वाले बच्चों को किताबों का भारी बस्ता लादे देखा जा सकता है, दूसरी ओर कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों के हाथ में केवल ‘पास-बुक्स’! यह किस तरह की व्यवस्था निर्मित हो रही है! किताबें न केवल परीक्षा पास करने के लिए होती हैं, बल्कि ज्ञान के निरंतर विस्तार में भी भूमिका निभाती हैं। उन्हें ताजिंदगी हमारे साथ रहनी चाहिए। आदमी की जब तक सांस चलती है, तब तक पुस्तकें साथ निभाती हैं। एक दोस्त दंभ में आकर साथ छोड़ सकता है, लेकिन अच्छी पुस्तकें भटकने पर राह दिखा सकती हैं। सच यह है कि संघर्ष के दौर में जब आदमी हारने लगता है, तब पुस्तक-आत्मकथा, जीवनी, उपन्यास हमें राह दिखाने वाले साबित होते हैं। विद्यार्थी और पुस्तक का संबंध वैसा ही है जैसे योद्धा का तलवार से, लेखक का कलम से। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो इसके लिए गुरुजनों को अपने गिरेबान में झांकना होगा कि उनके पुस्तकालय में कितनी किताबें हैं! अगर नहीं है तो क्यों? इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि रोग कितना गहरा है! कोई व्यक्ति बिना किताब के विद्यार्थी रहे, यह किसी गंभीर बीमारी से कम नहीं है। समाज से इस रोग को दूर करना होगा।.. (रमेश चंद मीणा)