अरब-ईसराईल संबंधों का नया दौर

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गुरुवार को संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मामलों के मंत्री अनवर गुरईश ने घोषणा करते हुए कहा कि युएई ने ईसराईल के साथ संबंधों मे समान्यकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की है, और ये एक बड़ी राजनीयिक कामयाबी है। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप ने भी इस समझौते को महान सफलता बताते हुए इसे मध्यपूर्व की स्थिरता और शांति के लिये आवश्यक बताया। साथ ही समझौते के विभिन्न पहलुओं के स्पष्ट करने हेतु अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप, ईसराईली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू व युएई के प्रिंस मुहम्मद बिन ज़ायेद ने संयुक्त बयान जारी कर इसपर मुहर लगाई है। दशकों से अरब-ईसराईल संघर्ष की खबरें तो आती रही हैं , मगर किसी खाड़ी देश के द्वारा ईसराईल के प्रति ऐसी असमान्य उदारता ने सबको चौंका दिया है। हालांकि, आमतौर पर कुटनीतिक गलियारों मे ये विषय कई सालों से चर्चा का केंद्र भी बना हुआ था।
मुस्लिम जगत मे ईसराईल को लेकर उसके अस्तित्व से ही एक नकारात्मक छवि रही है।बल्कि कई बार तो इस विवाद ने युद्ध का रुप भी धारण कर लिया। ऐसे मे सवाल उठता है कि आखिर अरब दुनिया की ईसराईल के लिये आरक्षित अक्रामक नीति मे अचानक परिवर्तन के कारण क्या है ? और क्या काग़ज़ी शांति समझौते ज़मीनी स्तर पर किसी बदलाव के माध्यम भी बन सकते हैं ? इन सबमे आश्चर्यजनक बात ये है कि ५० वर्ष पहले जिस युएई के शासक ने ईसराईल को ‘शत्रु देश’ कहा, वो आज ईसराईल से द्विपक्षीय संबंधों को बढाने के लिये इतना आतुर क्यों है ?
अरब-ईसराईल के बीच मे जितना गहरा विवाद है ,उतना ही समझौतों और शांति वार्ताओं का भी लंबा कालखंड रहा है। लगभग हर युद्ध के बाद दोनों पक्षों ने आपसी सहमति से विवाद को विराम देने का प्रयास किया। लेकिन ये विवाद भौगोलिक व सीमाई अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के दायरे से निकलकर धर्म व अरब राष्ट्रवाद की अस्मिता की पहचान बन गया। जिसने भी इस ओर सकारात्मक पहल की उसकी राजनीति व शासन का अंत हो गया, इसी कारण से अरब व ईसराईल के शासकों ने इस मुद्दे को सत्ता के हितोनुसार ही प्रयोग किया
पूर्व मे हुए हर शांति समझौते कि एक विशिष्ठ पृष्ठभूमि रही है। सन 1967 मे तो छ: दिन के युद्ध के बाद दोनों पक्षों को बातचीत करनी पड़ी थी जबकि 1973 मे भी संयुक्त राज्य अमेरिका की पहल पर अरब देशों को ईसराईल से शांति वार्ता करने के लिये मजबूर होना पड़ा था। इसके बाद सन 1979 मे मिस्र के शासक अनवर सादात ने ना सिर्फ ईसराईल के साथ शांति समझौता किया, बल्कि पहले अरब शासक के तौर पर ईसराईल को स्वतंत्र राष्ट्र के रुप मे मान्यता भी दी। इसी प्रकार 1994 ईस्वी मे जॉर्डन ने और 1999 ईस्वी मे मोरिटेनिया ने भी शांति समझौता पर हस्ताक्षर कर एक नये अध्याय की आगाज़ किया। ऐसे मे ये अरब दुनिया की ओर से तीसरा शांति समझौता हुआ है।
संयुक्त अरब अमीरात और ईसराईल के बीच हुए इस शांति समझौते को ‘अब्राहम एकोड’ नाम दिया गया है। इसके अनुसार ईसराईल सरकार द्वारा वेस्टबैंक के क्षेत्रों को अधिकृत करने की योजना का स्थगन करना होगा। इसके अलावा दोनों देशों ने इस बात पर सहमति जताई कि निकट भविष्य मे द्विपक्षीय स्तर पर संबंधों को नये आयाम दिये जायेंगे। जिसके तहत दोनों देशों का एक-दूसरे के यहां दूतावास खोलना, राजनीयिक गतिविधियों को सक्रिय करना, शिक्षा व स्वास्थय के क्षेत्र मे विचारों व कार्यक्रमों को साझा करना तथा तकनीक , ऊर्जा , विज्ञान , पर्यावरण मे एक दूसरे का व्यापक सहयोग करना है। संयुक्त अरब अमीरात ने ये भी कहा है कि वो फलस्तीन के नागरिकों का सम्मान करता है और उनके हितों की रक्षा करने के लिये सदैव तत्पर है।
शांति समझौते के बाद दुनिया भर से प्रतिक्रिया आई है। फलस्तीन सरकार ने इसे स्वंय के साथ विश्वासघात बताते हुए , इसे पूरी तरह से निरस्त कर दिया साथ ही विरोधस्वरुप अपने राजदूत को युएई से बुला लिया है। जबकि मिस्र, बहरैन , सऊदी अरब ने इसका स्वागत करते हुए शांति की प्रक्रिया मे महत्वपूर्ण कदम बताया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस शांति समझौते से पूर्व दोनों देशों की सरकार ने करीब आने के कई संकेत दिये थे। उदाहरण के तौर पर युएई के द्वारा कोविड-१९ की सहायता के नाम पर ईसराईल मे पहली बार सीधी फ्लाईट का जाना, हमास और उनके नेताओं के युएई द्वारा कड़ा प्रतिबंध व इसराईल द्वारा 2015 मे ही दूतावास खोलने की बात कह दी गयी थी। इसके अलावा युएई के मुख्य सहयोगी सऊदी अरब के प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान द्वारा 2018 मे ये कहा गया कि इसराईल को एक राष्ट्र के तौर पर अपनी सुरक्षा करने का पूरा अधिकार है व उनके देश को किसी यहूदी से कोई खतरा नहीं है। ये सब बातें दर्शाते हैं कि अरब देशों के द्वारा ईसराईल से सम्बन्धों मे सुधार की पहल बहुत पहले ही हो चुकी थी। अरब देशों के इसराईल से दोस्ती का बड़े कारण वैश्विक स्तर पर चल रही द्विध्रुवीय राजनीति है। अरब देश विशेषकर सऊदी गुट का मानना है कि अमेरिका व चीन के बीच चल रहे ट्रेड/कॉल्ड वॉर मे उनका अमेरिका का साथ जाना उचित है। उसके अलावा सऊदी गुट को ये लगता है कि अरब क्रांति से जो अस्थिरता मध्यपूर्व मे उत्पन्न हुई है उसका समाधान अमेरिका व ईसराईल के पास है। साथ ही तुर्की द्वारा लगातार चीन व रुस के साथ दिखने से भी खाड़ी देशों की चिंता बढ़ी है। ऐसे मे अमेरिका नहीं चाहता कि उसके सहयोगी देशों मे ही किसी प्रकार का मतभेद रहे । शायद यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप ने इ समझौते को पूरा करने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भविष्य मे संभव है कि अन्य अरब देश भी ईसराईल के साथ ऐसे समझौते करे। यहां सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अरब दुनिया ऐसे समझौतो का समर्थन करती है? और क्या ईसराईल के साथ ऐसे समझौते करने से वो मुद्दे भुलाये जा सकते हैं,जिनके तहत ईसराईल पर मानवाधिकारों के हनन करने, अवैध कब्जा करने और लोकतांत्रिक आवाज़ों को दबाने के आरोप लगते रहे हैं ?

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