भारत में बाल अधिकार: एनसीपीसीआर और हाल के घटनाक्रम

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(अंग्रेजी)-सादत हुसैन

अनुवाद – जीशान अख्तर कासमी

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने मदरसों का सर्वे पूरा किया है। मीडिया अब गैर मान्यता प्राप्त मदरसों की संख्या पर, जिसमें प्रसिद्ध दारुल उलूम देवबंद भी शामिल है (असत्यापित और अनौपचारिक) डेटा की रिपोर्टिंग कर रहा है।

इस सर्वेक्षण में बारह प्रश्न शामिल हैं जैसे कि: मदरसे का नाम, उस ट्रस्ट का नाम जिसके तहत मदरसा काम कर रहा है, स्थापना का वर्ष, भवन के स्वामित्व की स्थिति, इन्फ्रा़स्ट्रक्चर (सुरक्षित/स्थिर भवन, पेयजल सुविधा, उचित फर्नीचर की उपलब्धता, बिजली की समुचित आपूर्ति, शौचालय की सुविधा,आदि), छात्रों की संख्या, शिक्षकों की संख्या, पाठ्यक्रम, धन के स्रोत,अन्य स्कूलों में नामांकित छात्र,किसी समूह या संस्थान से छात्रों का सम्बद्ध ,आदि।

पहला सवाल यह उठता है कि एक राज्य सरकार उन मदरसों का सर्वेक्षण कैसे कर रही है जिन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 का संरक्षण प्राप्त है। सरकार यह कहकर खुद को सही ठहरा रही है कि ,मार्च 2021 में प्रकाशित एनसीपीसीआर की एक रिपोर्ट,जिसका शीर्षक है ‘भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 ए को लेकर अनुच्छेद 15 (5) के तहत मिली छूट का अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चों की शिक्षा पर प्रभाव’ के मद्देनजर मदरसों में बाल अधिकारों के संरक्षण पर बढ़ती चिंताओं के कारण सर्वेक्षण किया जा रहा है।

सर्वेक्षण में बारह प्रश्न मोटे तौर पर शिक्षा के अधिकार (आरटीई) अधिनियम 2009 और एनसीपीसीआर द्वारा निर्धारित प्रमुख मापदंडों और दिशानिर्देशों को कवर कर रहे हैं।भारत में, वर्तमान में बच्चों के अधिकारों के संबंध में तीन महत्वपूर्ण अधिनियम कार्य कर रहे हैं:-शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के तहत 14 वर्ष की आयु तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा-अपराध में लिप्त बच्चों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया के लिए किशोर न्याय अधिनियम, 2015-बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों को रोकने के लिए पोस्को अधिनियम, 2012

वर्ष 2005 में, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को स्थापित करने के लिए एक अधिनियम लाया गया था। एनसीपीसीआर के सिटीजन चार्टर के अनुसार, आयोग का मिशन “यह सुनिश्चित करना है कि सभी कानून, नीतियां, कार्यक्रम और प्रशासनिक तंत्र भारत के संविधान के साथ-साथ बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में निहित बाल अधिकारों के नजरिए के अनुरूप हों, जिसे भारत ने 1992 में अनुमोदित किया था”। इसी जनादेश के तहत, आयोग सीपीसीआर अधिनियम 2005 के तहत निहित बच्चों के अधिकारों के संरक्षण की स्थिति का आकलन और मूल्यांकन करता है और उन अधिकारों का प्रचार करता है। इस आयोग ने बच्चों की रक्षा और हॉस्टल की चारदीवारी में बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से शिक्षण संस्थानों और हॉस्टल में बच्चों के लिए दिशा-निर्देश तैयार किए हैं।

एनसीपीसीआर ने हाल ही में मदरसों में बाल अधिकारों के संबंध में तीन दावे किए थे और ऊपर उसकी जिस रिपोर्ट का जिक्र आया उस रिपोर्ट में भी। ये दावे हैं:

दावा 1: फंडिंग बढ़ने के बावजूद इन मदरसों में बच्चों को खाना खिलाने की लागत में 50 फीसदी की गिरावट आई है।फैक्ट चेक: निजी तौर पर चलने वाले मदरसों में राज्य की घुसपैठ को सही ठहराने के लिए सर्वेक्षण के दौरान यह दावा किया गया था। इस दावे का हवाला एनसीपीसीआर मार्च 2021 की रिपोर्ट में भी दिया गया था। और ये विचार अरशद आलम की किताब से लिए गए हैं, जिसका शीर्षक है- एक मदरसे के अंदर: भारत में ज्ञान, शक्ति और इस्लामी पहचान (2011)। रिपोर्ट में कहा गया है, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में जकात के पैसे का संग्रह बढ़ा है, लेकिन मदरसों में बच्चों को खिलाने की लागत में गिरावट आई है और यह लागत लगभग 50 प्रतिशत तक कम हो गई है। बच्चों के लिए कुल वार्षिक खर्च के प्रतिशत के रूप में भोजन पर खर्च को कम करना न केवल उस उद्देश्य का उल्लंघन करता है जिसके लिए मुख्य रूप से जकात एकत्र की जाती है, बल्कि बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण संबंधी जरूरतों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। (एनसीपीसीआर रिपोर्ट, मार्च 2021, पृष्ठ 82)

मार्च 2021 की रिपोर्ट में जिस पुस्तक का हवाला दिया गया है वो प्रसिद्ध शिक्षाविद अरशद आलम द्वारा लिखी गई है। लेखक ने अपने अध्ययन के लिए मुश्किल से पांच से अधिक मदरसों को कवर किया है, जिसे उनकी पुस्तक में उनके फील्ड वर्क के आधार के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया था। लेखक ने कहीं भी इस डेटा को देश के बाकी हिस्सों में विस्तारित करने का दावा नहीं किया। एनसीपीसीआर ने देश में कार्यरत शेष हजारों निजी और सरकारी मदरसों के लिए इस डेटा को किस आधार पर सामान्यीकृत किया?

दावा 2: “हमारी रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि उनका सिलेबस औरंगजेब के समय का है”। यह दावा एनसीपीसीआर ने मीडिया में भी किया था।फैक्ट चेक: एनसीपीसीआर मार्च 2021 की रिपोर्ट में भी इस दावे का हवाला दिया गया था। और ये विचार “अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों की राजनीति: उपमहाद्वीप में कानून और वास्तविकता” (2002) नमाक एक पुस्तक में प्रकाशित योगेंद्र सिकंद के लेख,जिसका शीर्षक है “भारतीय मदरसों में सुधार: समकालीन मुस्लिम आवाज़ें” से लिए गए हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है, “भारतीय मदरसों में नियोजित पाठ्यक्रम भी धीरे-धीरे परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरा, खासकर मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान, जब दर्शन और तर्क और अन्य “तर्कसंगत विषयों” (माकुलत) का महत्व बढ़ गया था। औरंगजेब के समय में, 17 वीं शताब्दी में, इस्लामी कानून का संग्रह तैयार करने के लिए एक टीम बनाई गई थी। मुल्ला निजामुद्दीन को लखनऊ में एक हवेली दी गई जहां एक मदरसा स्थापित किया कर सभी मदरसों में शिक्षा का समान पाठ्यक्रम विकसित करने की जिम्मेदारी दि गई थी। इसे दर्स-ए-निजामी का नाम दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य निचले स्तर से लेकर बौद्धिक क्षेत्रों के उच्चतम स्तर तक धार्मिक विज्ञान के अध्ययन को शामिल करना था।

”विभिन्न मसलकों और फिरकों के मदरसों में किसी तरह का कोई स्टैन्डर्ड पाठ्यक्रम नहीं है। मदरसों के पाठ्यक्रम में बदलाव की आवृत्ति और समय का अध्ययन करने की आवश्यकता थी। हमारे पास पहले से ही दारुल उलूम नदवातुल उलेमा से संबद्ध मदरसों के उदाहरण हैं, जो नियमित रूप से पाठ्चर्या और पाठ्यक्रम पर हमेशा विचार कर जरूरी उन्नयन और संशोधन करता है। दरअसल, नदवातुल उलेमा का पूरा आंदोलन मदरसा शिक्षा में पुनर्जागरण के बारे में है। हमारे पास विभिन्न मसलकों मे ऐसे और उदाहरण उपर किया गया दावा अत्यधिक सामान्यीकृत है और विभिन्न मदरसा प्रणाली को एक सजातीय और अखंड प्रणाली के रूप में चित्रित करने का प्रयास है।

दावा 3: रिपोर्ट के मुताबिक, देश में मदरसों को हर साल करीब 10,000 करोड़ रुपये की फंडिंग मिलती है , हालांकि इस रकम का 50 फीसदी हिस्सा ‘गुप्त स्रोतों’ से आता है।.फैक्ट चेक: यह दावा एनसीपीसीआर ने मीडिया में किया था, लेकिन एनसीपीसीआर की वेबसाइट पर या किसी न्यूज पोर्टल पर यह दावा नहीं किया गया था। एक और रिपोर्ट बताती है कि एनसीपीसीआर ने पिछले चार वर्षों से मदरसों का अध्ययन किया, लेकिन उनकी वेबसाइट पर ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं मिली।

अंत मे : भारत में बाल अधिकार कहां हैं?

उपरोक्त तीन दावों के अलावा, रिपोर्ट में यह भी तर्क दिया गया है कि मदरसों में बच्चों की वर्तमान स्थिति बहुत गंभीर है और इसे संबोधित करने की आवश्यकता है। जीने की स्थिति, बुनियादी ढांचा, शिक्षक-छात्र अनुपात, वर्दी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षण, आधुनिक विषयों का शिक्षण, सफाई-सुथराई, मदरसों में बच्चों के भोजन और पोषण आदि सभी को लागू किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन सभी चिंताओं को संबोधित करने की आवश्यकता है, और ना ही इसमे जरूरत से ज्यादा चिंतित और परेशान होने की कोई आवश्यकता है। लेकिन जिस तरह से उपरोक्त रिपोर्ट को मीडिया में उछाला गया है और राज्य ने रिपोर्ट को जितना अधिक महत्व दिया है, मदरसा प्रणाली के बच्चों के लिए अचानक प्रकट हुई तथाकथित चिंता सवाल उठाता है कि क्या यह महज एक ढकोसला है या वास्तविक देखभाल है। इस तथ्य किसी भी सूरत में अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि पूरे देश में लगातार बाल अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है; लेकिन मीडिया केवल कुछ मामलों मे ही अपनी दिलचस्पी दिखाता है ।

कई अन्य मुद्दों पर एनसीपीसीआर की चिंताओं को दूर करने में राज्य और मीडिया की रुचि की कमी के कारण भी यह सवाल वैध है। भारत में बाल अधिकार संस्थानों की स्थिति, विशेष जरूरतों वाले बच्चे, सरकारी स्कूलों और प्री-मैट्रिक हॉस्टल के बच्चों की सुरक्षा, बच्चों के बीच ड्रग्स और मादक द्रव्यों का सेवन, अवैध तस्करी, भारत में महिला कैदियों के बच्चों की शिक्षा की स्थिति, ई-कचरा और बच्चों की भागीदारी, कोविड-19 महामारी के कारण लॉकडाउन के बाद बाल तस्करी जैसे कई विषय हैं, जिन पर एनसीपीसीआर ने व्यापक अध्ययन और रिपोर्ट प्रकाशित की है।

इनमे से ज्यादातर ऐसे मुद्दे हैं जिन पर राज्य जवाबदेह है। अगर मीडिया बाल अधिकारों के इन मुद्दों पर कोई सवाल उठाता, तो इसमें सत्तारूढ़ सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों से कठोर सवाल पूछना शामिल होता, जिन्होंने इस देश के बच्चों को बेरहमी से विफल कर दिया है। लेकिन शायद ही कभी हमने किसी मीडिया हाउस को इस देश के बच्चों के उपर्युक्त मुद्दों पर एक विशेष रिपोर्ट करते हुए देखा है और न ही हमने किसी राज्य को उपरोक्त मुद्दों को उत्साहपूर्वक उठाते हुए देखा है, जिस तरह से उन्होंने मदरसों के बच्चों के संबंध में एनसीपीसीआर की चिंताओं को उठाया है। इस देश के बच्चों के मुद्दों को गिनचुन कर भेदभावपूर्ण तरीके से उठाने से पता चलता है कि मदरसों के सर्वेक्षण की प्रक्रिया के पीछे की मंशा ठीक नहीं है, और इस सर्वे मे शामिल बच्चों के अधिकारों के देखभाल की इन्हें जरा भी चिंता नहीं है।

इसके बजाय, हमें केवल ‘गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों’ के बारे में सनसनीखेज सुर्खियां देखने को मिलती हैं (देवबंद जैसे मदरसों के बारे में, जिन्होंने कभी मान्यता प्राप्त होने का दावा नहीं किया है, न ही उन्होंने कभी राज्य से सहायता ली है) और मदरसों को रूढ़िवादि संस्था के तौर पर पेश किया जाता है जो दमनकारी है, और यहां तक कि बच्चों के लिए यह एक नरक है । यह ऐसे समय में हो रहा है जब मदरसे की दुनिया पर समृद्ध, खोजपूर्ण अध्ययन हुए हैं और इस बारे में भी की बच्चों और शिक्षकों के लिए इसके क्या मायने हैं। हमारे देश में शिक्षा के अन्य संस्थान की तरह ही, मदरसे भी संरचनात्मक और दार्शनिक दोनों खामियों से पीड़ित हैं, लेकिन हम ‘धर्मनिरपेक्ष’ स्कूलों को भी उतनी ही आसानी से ध्वस्त होते नहीं देखते जब ऐसे स्कूलों के स्नातक कथित तौर पर अपराध करते हैं, जैसा कि हम असम के मदरसों के साथ होते हुए पाते हैं, और न ही हम अन्य स्कूलों के छात्रों को अपमानित या स्टीरियोटाइप करते हुए पाते हैं जब वे मदरसा स्नातकों की तरह मुख्यधारा की उच्च शिक्षा में प्रवेश करने के लिए संघर्ष करते हैं। मीडिया सहित बाल अधिकारों के ध्वजवाहकों, जिनकी इस देश के बच्चों के प्रति गंभीर जिम्मेदारी है, को संदेह का माहौल बनाकर युवा शिक्षार्थियों को हो रहे गंभीर नुकसान पर चिंतन करने की आवश्यकता है जिसे अब सर्वेक्षण और विध्वंस के रूप में वैध बनाया जा रहा है।

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