*फिल्म समीक्षा – कुछ करने से पहले सोचने के लिए कहती ये ‘होली काऊ’*

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‘होली काऊ’ नाम बॉलीवुड के दर्शकों को फिल्म के प्रति आकर्षित करने में कामयाब नही होता दिखता पर यह नाम ‘डोंट जज ए बुक बाय इट्स कवर’ कहावत को इस फिल्म पर सही साबित कर जाता है.


निर्देशक Sai Kabir ने होली काऊ को कुछ इस तरह से बनाया है कि इसे देखते लगता है मानो आपकी आंखों के सामने कोई नाटक चल रहा हो और उसके एक से एक दृश्यों के बाद पर्दा गिरते-उठते जा रहा है.
फिल्म ‘रिवॉल्वर रानी’ के अपने निर्देशन से पहचाने जाने वाले साई कबीर ने इस फिल्म में संजय मिश्रा के साथ दर्शकों को भी सिर्फ दरवाजे की आवाज भर से ही डराने में कामयाबी पाई है.
फिल्म के एक दृश्य में हिन्दू जैसा दिखने के लिए Sanjay Mishra द्वारा निभाया गया किरदार सलीम मजबूरी में अपनी आंखों का सुरमा मिटाता है, इस दृश्य को दिखाकर साई कबीर अपने दौर के श्रेष्ठ निर्देशकों की सूची में शामिल हो गए हैं.


फिल्म मात्र डेढ़ घण्टे की है और मोबाइल के माध्यम से फैलाई जा रही नफरत पर लिखी यह कहानी बड़ी तेज गति से भागती है. अपनी खोई गाय को ढूंढने निकले सलीम के हर अगले कदम को दर्शक बड़े गौर से देखते जाते हैं.


बड़े भारी संवाद लिए हुए है फ़िल्म


फिल्म अपने संवादों के जरिए बार-बार हमें झकझोरती रहती है.
‘वो वक्त नही रहा अब’ संवाद देश के आज के हालात पर सटीक बैठता है.
‘ मामला पॉलिटिकल है ‘ संवाद फिल्म में दो-तीन बार बोला गया है और सच्चाई के करीब भी है.


‘विद्युत विभाग में हूं, एई हूं, चार घर में मीटर पर रेड मारूंगा न, दो हजार मिल जाएंगे’ संवाद हमारे देश की अफसरशाही पर करारा व्यंग्य है.


फिल्म के बीच में संजय मिश्रा का एक और संवाद है ‘मैं सफीना और शाहरुख, तीनों. अपना भोपाल, अपना जावेद, अपना सैयद. पर पता नही क्यों नही गए. ऐसा क्या था, मेरे शहर की मिट्टी में’.


इसके बाद फिल्म का अंत हमें सन्न कर देता है. आज के दौर में मीडिया और पुलिस की भूमिका पर सवाल छोड़ते हुए फिल्म का अंत हमें अपने द्वारा अपनाए गए रास्ते पर चलने से पहले एक बार रुककर सोचने के लिए कहता है.
फिल्म का पटकथा लेखन कसा हुआ लगता है.


छा गए संजय मिश्रा


होली काऊ में बहुत से कलाकार हैं और उनमें से चार कलाकार ऐसे हैं जो दर्शकों के दिलोदिमाग में छा जाते हैं.
संजय मिश्रा किसी फिल्म में मुख्य किरदार के रूप में कम ही दिखते हैं पर यहां उन्होंने ऐसा करते हुए अपने जीवन का सबसे बेहतरीन काम किया है. लगभग तीन दशक से टेलीविजन और फिल्मों की दुनिया में जमे हुए संजय इस फिल्म में अपनी अलग ही चाल-ढाल में रहते, सामाजिक व्यंग्य करते कमाल लगे हैं. मनोरंजन जगत में दो दशक पुराने ‘मिर्जापुर’ फेम मुकेश एस भट्ट ने भी इस फिल्म में संजय मिश्रा का बखूबी साथ दिया है. 
तिग्मांशु धूलिया और सादिया सिद्दीकी को संजय मिश्रा और मुकेश की तुलना स्क्रीन पर इतना वक्त नही मिला पर फिर भी उन्होंने अपने अभिनय से फिल्म में जान डाली है.
नवाजुद्दीन सिद्दीकी फिल्म में बस चेहरा दिखाने के लिए लाए गए हैं.


मोबाइल से देखकर बहुत कुछ गलत सीखते हैं लोग


आज के समय में मोबाइल का लोगों पर कितना गलत असर पड़ रहा है, यह शायद इस फिल्म से पहले किसी और फिल्म में इतनी अच्छी तरह से नही दिखाया गया है.
फिल्म के एक दृश्य में पण्डित बने मुकेश एस भट्ट , फोन चलाते मुस्लिम व्यक्ति बने संजय मिश्रा से कहते भी हैं ‘अबे क्या देख रहा है, बंद कर उसको. दिमाग खराब हो जाएगा.’


फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे कुछ भारतीयों की मजबूरी का फायदा उठाकर उनका ब्रेन वॉश किया जाता है और फिर उन्हें आतंकवादी बनने पाकिस्तान भेज दिया जाता है.


छायांकन से एक कदम पीछे गीत संगीत


फिल्म का छायांकन बढ़िया है. दर्शकों को मध्यप्रदेश की गलियां ज्यों की त्यों दिखाई गई हैं. नवाजुद्दीन सिद्दीकी की एंट्री वाला दृश्य दिखने में प्रभावित करता है. लाइट्स का प्रयोग अच्छा किया गया है. पेड़, मकान भी कहानी का हिस्सा लगते हैं.


गीत संगीत के मामले में ये फिल्म औसत कही जा सकती है. ‘चल चल बुलयां, मदारी और गैया कहां’ गानों को फिल्म की कहानी आगे बढ़ाने के लिए रखा गया है और उस पर ये फिट भी बैठते हैं.
 
by Himanshu Joshi

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