कॉमेडी की आड़ में कटाक्ष है ‘कटहल’
अब्दुल मुक़ीत
हमने अक्सर ख़बरों में पुलिस थानों में दर्ज होने वाले अजीबो-ग़रीब मामलों के क़िस्से पढ़े या सुने हैं। ज़रा सोचें कि अगर किसी के घर से कटहल चोरी हो जाए, और मामला थाने तक जा पहुंचे, तो क्या हो? सुनने में बड़ा अटपटा लगता है कि भला कोई कैसे फल की चोरी होने पर शिकायत दर्ज करवा सकता है। लेकिन कुछ ऐसे ही कटहल चोरी की वारदात यूपी के एक काल्पनिक शहर मोबा में हड़कंप मचा देती है और पूरी पुलिस फ़ोर्स कटहल चोरी की तहक़ीक़ात में लग जाती है। हाल ही में नेटफ़्लिक्स पर आई फ़िल्म ‘कटहल’ इसी तरह की घटनाओं पर बारीकी से किया गया व्यंग्य है।
फ़िल्म को अशोक मिश्रा और यशोवर्धन मिश्रा ने लिखा है। कहानी उत्तर प्रदेश के मथुरा में सेट की गई है। मोबा नाम की एक छोटी-सी जगह में तैनात युवा महिला इंस्पेक्टर महिमा बसोर (सान्या मल्होत्रा), विधायक मुन्नालाल पटेरिया (विजय राज) के बग़ीचे से कटहल के ग़ायब होने या चोरी होने के मामले की जांच कर रही हैं। बसोर जब अपने साथी कांस्टेबल सौरभ द्विवेदी (अनंत जोशी), कुंती परिहार (नेहा सर्राफ़) और मिश्रा (गोविंद पांडे) के साथ इस मामले को सुलझा रही होती है तो उसकी जांच में कई सारे मोड़ आते हैं। एक ग़रीब लाचार माली अपनी बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाने थाने आता है लेकिन लड़की की गुमशुदगी के मामले को दरकिनार कर पूरी पुलिस फ़ोर्स कटहल की जांच में ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने में जुटी हुई है। मीडिया भी इस मामले को तूल देने से पीछे नहीं हटता है। स्थानीय पत्रकार अनुज (राजपाल यादव) भी अपने चैनल की टीआरपी के लिए इस मामले को मुद्दा बनाने में लगे रहते हैं। कहानी यहां से मोड़ लेती है, जब बसोर चालाकी से कटहल चोरी के मामले को लड़की की गुमशुदगी से जोड़ देती है।
फ़िल्म उन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक मुद्दों की पड़ताल करती है जो मध्य भारत के अंदरूनी इलाक़ों में प्रचलित हैं, जहां कटहल की चोरी जैसे अपराध की जांच की जानी चाहिए, और इसे किसी भी हालत में नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ग़ायब हुआ कटहल किसी मामूली व्यक्ति का नहीं बल्कि एक राजनेता का है। यह फ़िल्म जातिगत और सत्ता के खेल के प्रासंगिक मुद्दों पर भी प्रकाश डालती है जो अक्सर पुलिस अधिकारियों द्वारा जांच की दिशा निर्धारित करते हैं। फ़िल्म में एक सीन है जहां एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एक इंस्पेक्टर से कहता है, “तुम्हें जो बोला गया है, वो करो, मैं भी वही कर रहा हूं, जो मुझे बोला गया है।” इसी तरह एक और पुलिस अफ़सर का डायलॉग है, कहता है, “कहने को तो हम इंडियन पीनल कोड फ़ॉलो करते हैं लेकिन काम करना पड़ता है इंडिया पॉलिटिकल कोड के अधीन।”
फ़िल्म में कई वन लाइनर पंच हैं जो गहरा कटाक्ष करते हैं। जैसे,
“-ये मीडिया वाले हम पुलिस वालों से पहले कैसे पहुंच जाते हैं?
-कई बार तो वारदात से भी पहले पहुंच जाते हैं।”
“-लोकतंत्र के चौथे खम्भे को गिरा दोगे क्या?
-खम्भे हो तो खम्भे जैसे ही खड़े रहो ना।”
“-चोरों का स्टैण्डर्ड कितना गिर गया है, कटहल चुरा रहे हैं, बताओ?
-हम पुलिस वालों का भी स्टैण्डर्ड कौन-सा आसमान छू रहा है, हम कटहल ढूंढ रहें हैं।”
“राजनीति में जो काम सदाचार और उच्च विचार से नहीं होते ना, कभी-कभी अचार से हो जाते हैं।”
फ़िल्म दो घंटे से भी कम के रनटाइम के साथ भरपूर कॉमेडी से सजी हुई है। कुछ बहुत ही उपयुक्त कॉमिक पंच हैं, जो पूरी तरह से फ़िल्म के विषय पर खरे उतरते हैं। खुले तौर पर मनोरंजन कराने वाले क्षण नहीं हैं, लेकिन अगर आपको गहरे हास्य की समझ है और सीधे चेहरे से कही गई अजीब पंक्तियों को समझने की आदत है, तो आप निश्चित रूप से कटहल का आनंद लेंगे। यह फ़िल्म इस छवि को तोड़ने की भी कोशिश करती है कि कैसे आमतौर पर पुलिस को कठोर, निर्मम और मर्दाना प्रवृत्ति का माना जाता है। फ़िल्म में इसके बजाय, उन्हें अधिक सहानुभूतिपूर्ण, समझदार और काम करने वाले पेशेवरों की तरह दिखाया गया है, जो काम की पाली के बीच में मस्ती करते हैं।
कटहल कमाल की सटायर फ़िल्म तो है लेकिन एक असाधारण कहानी नहीं है, फिर भी जिस तरह से कहानी सामने आती है और कहानी समझ में आती है, तो आपके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान ज़रूर देगी। फ़िल्म हल्के-फुल्के हास्य के लिए देखें तो शायद छोटे शहरों की वास्तविकता के क़रीब भी पहुंच सकें।