अन्याय से लड़ने के लिए ‘सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी है’

ऐसे लाखों केस आज भी न्यायालय की तिजोरियों में बंद होंगे जिन पर तारीख़ें तो आती हैं, लेकिन फ़ैसले नहीं आते। मुजरिम खुले आम घूम रहे हैं और पीड़ित अपना मुंह छुपाते फिर रहे हैं कि कोई उन पर लांछन न लगाए। यह फ़िल्म कहती है कि अब समय बदलना चाहिए। पीड़ित अगर हर हाल में अडिग रहे तो फ़ैसले भी उनके पक्ष में होंगे।

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अन्याय से लड़ने के लिए ‘सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी है’

अब्दुल मुक़ीत

हाल ही में ज़ी-5 पर आई फ़िल्म ‘सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी है’ कथित तौर पर स्वयंभू संत आसाराम पर आधारित है, जिन्हें एक नाबालिग़ लड़की के यौन शोषण के लिए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। यह फ़िल्म न्यायालय में लड़े जा रहे उन अनेक मुक़दमों में से एक मुक़दमे पर केंद्रित है जिन पर हज़ारों-लाखों भारतीयों की न्याय पर उम्मीदें टिकी हुई हैं।

कहानी में एक कथित धर्मगुरु है जिस पर एक नाबालिग़ लड़की के बलात्कार और शारीरिक शोषण का मुक़दमा दर्ज करवाया जाता है। एक ईमानदार पुलिसकर्मी है जो एफ़आईआर दर्ज करने की हिम्मत करता है। एक नाबालिग़ लड़की है जिसने अपनी गवाही पर डटे रहने की ठानी है और मां-बाप हैं जिन्होंने अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है।

फ़िल्म राजस्थान के एक विनम्र वकील, एडवोकेट पूनम चंद सोलंकी की बायोपिक है, जिन्होंने बहुप्रचारित स्वयंभू बाबा के यौन उत्पीड़न मामले में POCSO अधिनियम के तहत अकेले ही नाबालिग़ लड़की को न्याय दिलाया था। वकील पी सी सोलंकी (मनोज बाजपेयी) जोधपुर में अपनी मां और बेटे के साथ रहने वाला एक साधारण व्यक्ति है। वह अपने सामने खड़े हुए वकील (विपिन शर्मा) का सामना बड़े आत्मविश्वास के साथ करता है, लेकिन जब अदालती कार्रवाई के दौरान उसे क़ानूनी दुनिया के कई बड़े नामों का सामना करना पड़ता है, तो उसे व्यवहारिक रूप से थोड़ा आश्चर्यचकित और घबराया हुआ दिखाया गया है।

नू का किरदार भी बख़ूबी लिखा गया है। वह सदमे में डूबी हुई में एक बच्ची है क्योंकि उसे विश्वास नहीं हो रहा है कि उसके ‘भगवान’ ने उसके साथ ऐसा किया है। जब उसके मध्यमवर्गीय माता-पिता पुलिस स्टेशन पहुंचते हैं, तो चीज़ें ख़राब होने लगती हैं। एक कांस्टेबल नू से कहता है कि, “बेटा अपना मुंह चुन्नी से ढक लो”, क्योंकि उसे मेडिकल जांच के लिए बाहर जाने के लिए कहा जाता है। यह इस बात पर सीधा प्रहार था कि जब महिलाएं ऐसी स्थिति से गुज़रती हैं तो उन पर अक्सर आरोप लगाए जाते हैं या उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। उसे यौन उत्पीड़न पीड़िता होने के कारण शर्मिंदा महसूस कराया जाता है। पी सी सोलंकी  के आने तक परिवार को गुमराह किया जाता है और कहानी वहीं से गति पकड़ती है।

पहली बार जब इस केस को लड़ने के लिए मनोज बाजपेई यानि पी सी सोलंकी नाम के वकील से लड़की के माता-पिता मिलते हैं तो उन्हें वे एक कहानी सुनाते हैं। कहानी कुछ इस तरह थी कि एक लड़का बहुत तेज़ बाइक चला रहा था। सिग्नल से कुछ मीटर दूर था। सिग्नल ग्रीन से येलो हुआ, फिर भी उसने बाइक की गति धीमी नहीं की। एक पिता अपने बच्चे के साथ उसी समय रास्ता क्रॉस करता है। बाइक उस लड़के के पैर के ऊपर से गुज़र जाती है। बच्चा चिल्लाता है। उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं। डॉक्टर कहता है दर्द कुछ दिन में चला जाएगा। लड़के को कुछ दिन बाद फिर दर्द होता है। अब एक दूसरे डॉक्टर को दिखाया जाता है। यह डॉक्टर उस दर्द की वजह फ़्रैक्चर बताता है। ऑपरेशन करने की ज़रूरत पड़ती है और फिर उस बाइक वाले पर केस किया जाता है।

तब वकील साहब लड़की के पिता से पूछते हैं कि मैं किसके ख़िलाफ़ मुकदमा लड़ता? लड़की का पिता जो यह कहानी सुन रहा था उसने कहा कि बाइक वाले के ख़िलाफ़। वकील पी सी सोलंकी कहते हैं कि मैं तीन लोगों के ख़िलाफ़ लड़ा। एक बाइक वाला जिसने बाइक की गति धीमी नहीं की, पहला डॉक्टर जिसने कहा कुछ नहीं हुआ है ठीक हो जाएगा‌ और तीसरा लड़के का बाप, जिसे पता है की सिग्नल अभी रेड नहीं हुआ फिर भी बच्चे को रस्ता क्रॉस कराने निकल पड़ा। लड़की का बाप समझ गया कि ग़लती उसकी भी है। क्यों वह ढोंगी बाबाओं के पीछे अपने बच्चे भी समर्पित करते हैं?

आपको पूरे देश को हिला देने के लिए किसी असाधारण व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ़ एक साधारण बंदा काफ़ी है, और पूनम चंद सोलंकी ने यह साबित कर दिया जब उन्होंने आसाराम मामले में बलात्कार पीड़िता की ओर से वकालत की। पी सी सोलंकी वह व्यक्ति थे जिसने मौत को घूरकर देखा और जीत हासिल की। वह बिना किसी डर के लड़े।

अर्जुन कुकरेती की सिनेमैटोग्राफ़ी, चुस्त निर्देशन और लेखन का पूरक है। जोधपुर की गलियों में पीछा करने का दृश्य जब गुंडे सोलंकी पर हमला करते हैं, बहुत अच्छे से फ़िल्माया गया है। फ़िल्म में कोर्ट रूम ड्रामा बहुत ही सटीक और सच्चाई के क़रीब दिखाया गया है। फ़िल्म में ज़्यादा ड्रामेबाज़ी नहीं दिखाई गयी है। पूरी फ़िल्म में वकीलों की ही भूमिका अधिक है, अन्य लोग इस फ़िल्म की स्क्रीन टाइम का तीस प्रतिशत भी नहीं होंगे।

किस तरह बाबा को बचाने में राजनीति और कूटनीति का प्रयोग हुआ और सच को झूठ साबित करने के लिए डिफ़ेंस के सभी दांव-पेच जैसे निष्क्रिय होते गए, इस पर बारीकी से काम किया गया है। फ़िल्म में कोई अति-उत्साही नाटक नहीं है और पूरे समय मुख्य विषय पर ध्यान केंद्रित कराया गया है। यह फ़िल्म आपको न्यायपालिका में विश्वास दिलाती है। 

अंत में इतना कहना आवश्यक है कि आस्था और विश्वास आपको हिम्मत देता है। वकील सोलंकी की ईश्वर में आस्था और लड़की का क़ानून पे विश्वास इस केस को एक ऐसे निर्णय तक ले गया जिसकी कल्पना कर पाना नामुमकिन था। ऐसे लाखों केस आज भी न्यायालय की तिजोरियों में बंद होंगे जिन पर तारीख़ें तो आती हैं, लेकिन फ़ैसले नहीं आते। मुजरिम खुले आम घूम रहे हैं और पीड़ित अपना मुंह छुपाते फिर रहे हैं कि कोई उन पर लांछन न लगाए। यह फ़िल्म कहती है कि अब समय बदलना चाहिए। पीड़ित अगर हर हाल में अडिग रहे तो फ़ैसले भी उनके पक्ष में होंगे।

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