हिंदी के उपन्यासों के साथ बड़े होने का अपना अलग सुख तो है। हमको तो हिंदी से मुहब्बत यहीं से हुई थी, ख़ैर। और स्कूल में सब हैरत करते रहे कि कैसे मात्रा में त्रुटियाँ नहीं होतीं हमारी, हाहा। अब आज हिंदी दिवस पर सुबह से देख रहे हैं कि सब अपने-अपने मत रख रहे हैं। कोई अपनी भाषा की पंडिताई झाड़ रहा है तो कोई ग़लती करने वालों पर व्यंग्य कस रहा है, कोई खुले भाव से मुबारकबाद दे रहा है तो कोई इस बात मुँह सिकोड़ रहा है कि एक ही दिन क्यों भाषा तो आप रोज़ इस्तेमाल करते हैं तो आज के दिन में क्या ख़ास है, कोई हिंदी और उर्दू के मुहब्बत और हिंदुस्तान की साझा संस्कृति से जुड़े वाक़्यात साझा कर रहा है, कोई मुबारकबाद देने के लिए उर्दू के अश’आर का सहारा ले रहा है, कोई ज़बरदस्ती सारकास्टिक होने की कोशिश कर रहा है तो कुछ लोग असल में ख़ुद में सुधार लाने के दावे कर रहे हैं तो कुछ दूसरों की मदद का। यहाँ तक तो मामला फिर भी ठीक है।
इन सब बातों से गुज़रते हुए हमने देखा कि हिंदी में आये दूसरी भाषा के शब्दों पर एक अलग ही बहस छिड़ी हुई है कि फ़लाँ लफ़्ज़ तो अंग्रेज़ी से है तो फ़लाँ फ़्रेंच का, फ़लाँ लैटिन का तो फ़लाँ तुर्की का वगैरह वगैरह। अंत में इस बात पर पहुँचे ‘हिंदी’ लफ़्ज़ ही फ़ारसी से आया है और इसी से हिंदुस्तान और ऐसे दो तीन और अल्फ़ाज़ भी। बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँची कि शुद्ध हिंदी किसको कहें जब इतनी सारी भाषाएँ मिली हुई हैं। संस्कृतनिष्ठ हिंदी अगर शुद्ध है तो बोलचाल की हिंदी क्या हिंदी नहीं? अमां भाषा न हुआ ‘शिप ऑफ़ थीसियस’ हो गया कि दूसरी भाषा के अल्फ़ाज़ आ गए तो हिंदी हिंदी न रही। हर जगह एक ही कॉन्सेप्ट मत घुसा दीजिये, भाषा तो ख़ुद में ही इतना उदार कॉन्सेप्ट है कि इन सब चीज़ों से फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। वो ख़ुद में तमाम चीज़ें समेटकर भी अपना वजूद नहीं खो सकती। ज़रा गहरी साँस लीजिये।
मज़ाक तक तो ठीक है, संजीदा मत हो जाइए ऐसी बहसों में अब। कहीं कोई ग़लती कर रहा है तो सही कर दीजिए और अगर आपके संबंध में इतनी गुंजाइश है कि मज़ाक संभव हो तो उससे भी पीछे मत हटिये। कृपया किसी प्रकार का चरस मत कीजिये।
हिंदी दिवस मुबारक!
Uzma Sarwat
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रा हैं.