यह असंतोष हमें कहाँ लेकर जाएगा?

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मानव सभ्यता अपने अस्तित्व के हज़ारों साल के इतिहास में पहले भी आपदाओं के इस तरह के दौर से गुज़री है, जिस दौर से वह आज गुज़र रही है।

14 वीं सदी के यूरोप में जिस तरह ‘प्लेग’ ने क़हर बरपा किया था, उसमें वहां की लगभग एक तिहाई से लेकर आधी आबादी हलाक हो गई थी।

वहां प्लेग से होने वाली मौतों को ‘ब्लैक डेथ’ यानी ‘काली मौत’ कहा जाता था। सन् 1347 से 1351 ई. के बीच, चार साल तक यह महामारी यूरोप में चरम पर रही। इसने यूरोपीय व्यवस्था की नींव हिला कर रख दी और हर क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया। इस महामारी में करोड़ों लोगों के मरने के बाद वहां के श्रमिक वर्ग यानि मज़दूरों की संख्या में भारी कमी आई जिसने यूरोप में ‘औद्योगिक क्रांति’ के लिए सबसे पहला रास्ता हमवार किया।

उस वक़्त यह कहावत आम थी कि ‘प्लेग सिंधु नदी नहीं पार कर सकता’ लेकिन दुनिया ने देखा कि प्लेग ने भारत में भी तबाही मचाई और करोड़ों लोग यहां उसकी चपेट में आए। सौ साल पहले ही दुनिया ‘इन्फ़्लुएंज़ा’ को भी देख चुकी है जिसने उस वक़्त दुनिया की लगभग ढाई से पांच प्रतिशत आबादी को अपनी चपेट में लिया था और विश्व पटल पर कई बड़ी तब्दीलियों का कारण साबित हुई थी।

अभी कुछ ही दिन बीते हैं जब हम पूरे विश्व में और ख़ास तौर पर अपने देश भारत में लाखों लोगों की कोरोना वायरस से हुई मौतों के साक्षी बने हैं।‌ इस वायरस ने न‌ सिर्फ़ हमें हमारी खोखली व्यवस्थाओं से परिचित कराया है बल्कि हमें हमारी असहायता का एहसास भी दिलाया है। कोविड-19 का पहला मामला जब सामने आया था, तब शायद किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि यह इतने बड़े पैमाने पर तबाही मचाएगा और हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को पूरी तरह बदल कर रख देगा।

मानव जीवन के हर क्षेत्र में कोविड ने अपना प्रभाव छोड़ा है और अब यह चर्चा की जा रही है कि कोविड के बाद की दुनिया एक नई दुनिया होगी। ज़ाहिर है कि जिस तरह से इस वायरस ने हमारे जीवन को परिवर्तित किया है और अभी भी लगातार कर रहा है, शायद ही हम उस जीवन-शैली को दोबारा अपना सकें, जिसे हम कोविड से पहले तक जी रहे थे।

शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति, पर्यावरण और इसके अतिरिक्त भी तमाम क्षेत्रों में ज़बरदस्त परिवर्तन आए हैं।‌ अचानक, एक साथ सभी शैक्षणिक संस्थानों का बंद हो जाना और पूरी शिक्षा प्रणाली का ऑनलाइन माध्यमों पर आ जाना, भारत जैसे देश के लिए, जहां एक बड़ी आबादी अभी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जी रही है, वास्तव में बड़ी चुनौती साबित हुई है। ऑनलाइन शिक्षा से जहां एक तरफ़ हमें अनेक फ़ायदे और संभावनाएं नज़र आई हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इसकी ख़ामियां और नुक़सान भी सामने आए हैं। यह चिंता भी जताई जा रही है कि जिस तीव्र गति से हम ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं, आने वाले समय में यह कक्षा-शिक्षण और अध्यापक की महत्ता को क्षीण कर देगा और शिक्षा का पूरी तरह केन्द्रीकरण हो जाएगा।

कोविड ने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर भी बहुत बड़ा प्रभाव डाला है। पूंजीवादी व्यवस्थाएं संकट में घिरी हुई नज़र आ रही हैं। सहचर पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज़्म के नतीजे में घोर आर्थिक असमानता उत्पन्न हुई है। निजीकरण ने भी इस ख़राब दौर में खुल कर तांडव मचाया है। दुनिया भर की सरकारें और ख़ास तौर पर भारत सरकार लगातार अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटते हुए तमाम जन कल्याण कार्यों को निजी कंपनियों के हवाले कर रही है। स्वास्थ्य, परिवहन और शिक्षा इसका बड़ा उदाहरण हैं। कोविड ने यह साबित कर दिया कि सरकारें हमारी संकट की साथी नहीं हैं। स्वयं भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। लॉकडाउन की वजह से छोटे कारोबारों और असंगठित क्षेत्र को बहुत नुक़सान पहुंचा है।

पिउ रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिक बीते एक साल में भारत में मध्यम वर्गीय लोगों की संख्या 6.6 करोड़ तक सिमट गई है। कोरोना से पहले यह आंकड़ा 9.9 करोड़ तक था। रोज़ाना 725 से 1450 रूपये तक की कमाई करने वालों को हमारे देश में मध्यम वर्ग में गिना जाता है। ग़रीब की श्रेणी में उन्हें रखा जाता है जिनकी प्रतिदिन आय 145 रूपये से कम होती है। इस रिपोर्ट की मानें तो भारत में ग़रीबों की संख्या 13.4 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। कोरोना से पहले हमारे देश में ग़रीबों की संख्या 5.9 करोड़ थी। लगातार बढ़ रही भुखमरी और असंतोष साफ़ तौर पर यह दर्शाता है कि हम बहुत तेज़ी से किसी बड़े बदलाव की तरफ़ जा रहे हैं। यूं भी आर्थिक संकटों से, भूख से और जनता के बीच असंतोष से बड़ी क्रांतियों ने जन्म लिया है। यह बेचैनी हमें कहां लेकर जाएगी, कहना मुश्किल है।

पर्यावरण संकट को लेकर तो पूरे विश्व में पर्यावरण विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं की तरफ़ से लगातार चेताया जाता रहा है। पूंजीवाद से ग्रस्त व्यवस्थाओं ने संसाधनों के दोहन की‌ होड़ में पूरी दुनिया को ख़तरे में डाल दिया है। कोरोना वायरस को भी इस पर्यावरण संकट से अलग हटकर नहीं देखा जा सकता। जैव विविधता हॉटस्पॉट्स में मानवीय दख़ल और इसके नतीजे में होने वाला पारिस्थितिकीय असंतुलन नित नई बीमारियों को जन्म दे रहा है। चंद नैनो मीटर के इस वायरस के सामने विवश और असहाय 21 वीं सदी के आधुनिक युग में रहने वाले हम इंसानों को बीते कुछ वर्षों से बहुत कुछ सीखना है और ठहर कर अपनी कोताहियों के बारे में सोचना है। हर क्षेत्र में असमानता, अन्याय और शोषण पर खड़ी हुई इन व्यवस्थाओं पर पुनर्विचार करना है और हम जिस पतन की ओर अग्रसर हैं, वहां से वापसी की संभावनाओं को तलाश करना है।

– तल्हा मन्नान

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