इमाम हुसैन रजी0 । कुर्बानी का अजीम पैकर

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10 मुहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्तूबर 680 ईसवीं का सानेहा इतिहास के पन्नों में एक तरफ़ धोखा, असत्य, नाइंसाफ़ी, जब्र, और ज़ुल्म की इंतहा की मिसाल है तो दूसरी तरफ़ हक़, इंसाफ़, सदाक़त, सब्र और क़ुर्बानी की मिसाल है। यानी ये लड़ाई हक़ व बातिल के बीच की लड़ाई थी।

इस्लामी निज़ाम-ए-हुकूमत की बुनियाद वंशवाद पर नहीं बल्कि शूराईयत (मशविरा से) पर रखी गई है। हज़रत हसन-बिन-अली रज़ि. ने हज़रत अमीर मुवाईया-बिन-सुफ़ियान से सुलह कर लिया और मोआहिदा किया था कि मुवाईया अपने बाद अपना जांनशीन अपने बेटे यज़ीद को मुक़र्रर नहीं करेंगे। लेकिन अमीर मुवाईया ने अपने बेटे यज़ीद को अपना जांनशीन नामज़द करके आसूल-ए-दीन और शूराईयत की ख़िलाफ़ वर्ज़ी कर दी। इमाम हसन तो अमीर मुवाईया की बात मान गए थे लेकिन छोटे भाई इमाम हुसैन ने मुवाईया के बेटे यज़ीद की बात नहीं मानी और हक़ के लिए जान देने को तरजीह दिया।

यज़ीद का ज़ाती किरदार उन तमाम औसाफ़ से आरी था जो अमीर या ख़लीफ़ा के लिए शरीयत-ए-इस्लामीया ने मुक़र्रर किये हैं। शराब व शबाब यज़ीद के पसंदीदा मशाग़िल थे। अमीर मुवाईया ने अपने ख़ास मुशीर अहनफ़-बिन-क़ैस से जब यज़ीद को अपना जांनशीन मुक़र्रर करने के बारे में मशविरा किया तो उन्होंने कहा कि आप के सामने लोग सच्ची बात कहने से डरते हैं। लेकिन ख़ुदा ख़ौफ़ी का तकाज़ा है कि बात सच्ची की जाये। आप बख़ूबी जानते हैं कि यज़ीद की रातें कहाँ बसर होती हैं और दिन कैसे गुज़रते हैं। आपके सामने उसका ज़ाहिर व बातिन सब अयां है। फिर आप उसे किस बुनियाद पर अपना जांनशीन बना रहे हैं?

दिगर सहाबा ने भी यज़ीद की मुख़ालिफ़त की। उनके लिए अमीर मुवाईया की ग़लत रवायत क़बूल करना मुमकिन नहीं था। लेकिन हर मुख़ालिफ़त के बावजूद पुत्र मोह में अंधा होकर अमीर मुवाईया ने यज़ीद को अपना जांनशीन मुक़र्रर कर दिया और इमाम हसन से किये हुए मोआहिदे को तोड़ दिया। इस तरह दूसरे सहाबा के साथ हज़रत इमाम हुसैन ने यज़ीद को अपना ख़लीफ़ा मानने से इंकार कर दिया।

यज़ीद लगातार हज़रत इमाम हुसैन पर बैत लेने यानी उसकी हुकूमत क़बूल करने के लिए दबाव डालने लगा। जिससे तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन ने मदीना छोड़कर मक्का जाने का ईरादा कर लिया। जब इमाम हुसैन मक्का पहुंचे तो अहले कूफ़ा ने उन्हें सैकड़ों ख़तूत लिखकर कूफ़ा आने की दावत दी ताकि वो ख़िलाफ़त-ए-इस्लामीया के क़याम की जद्दोजहद का आग़ाज़ कर सकें। लेकिन ग़द्दार अह्ले कूफ़ा ने उनसे ग़द्दारी की और वादों से फिरकर यज़ीद के साथ जा मिले।

बीच रास्ते में नहर के किनारे उस ज़मीन पर इमाम हुसैन रज़ि. ने अपना कैंप लगाया जिसे वो पहले ही ख़रीद चुके थे। ज़मीन की ख़रीद से ये साबित होता है कि शहादत-ए-अज़ीम ख़ुदावंद करीम के यहाँ पहले से रक़म था। यज़ीद उस कैंप में भी अपने लोगों के ज़रिये इमाम हुसैन रज़ि. पर अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाता रहा। जब हुसैन रज़ि. ने यज़ीद की शरायत नहीं मानी तो यज़ीद ने नहर के पानी पर रोक लगा दिया।

तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब इमाम हुसैन के घर वाले और उनके बच्चे प्यास की शिद्दत से तड़पने लगे तब यज़ीद को लगा कि हुसैन झुक जाएंगे, लेकिन हुसैन बातिल के आगे कहां झुकने वाले थे। फिर यज़ीद ने कैंप पर हमले का हुक्म दे दिया। इमाम हुसैन ने यज़ीद के सिपहसालार से रात भर की मोहलत मांगी और कहा अगली सुबह हम आप का मुक़ाबला करेंगे। सिपहसालार ने मोहलत दे दी और इमाम हुसैन और उनके लोगों ने रात भर जाग कर ख़ुदा की ईबादत की।

अगली सुबह इमाम हुसैन के साथ सिर्फ़ 72 लोग थे जिनमें 6 माह से लेकर 13 साल तक के बच्चे शामिल थे। 6 माह के अली असग़र के गर्दन पर ज़ालिमों ने तीर मारा, 8 साल के अऊन मुहम्मद के सर पर तलवार मारा और 13 साल के क़ासिम को घोड़ों की टाप से पामाल किया।

इमाम हुसैन रज़ि. के सभी लोग एक के बाद एक लड़-लड़ कर शहीद होते चले गए। ख़ुद इमाम हुसैन रज़ि. को लड़ाई के दरमियान नमाज़ अदा करते हुए सजदे में शहीद कर दिया गया। उसके बाद इमाम हुसैन रज़ि. के ख़ेमों को लूटा गया और आग लगा दी गई। कर्बला के सेहरा में शहीदों की मैय्यत को लावारिस छोड़ दिया गया जिन्हें बनीअसद के लोगों ने तीन दिन बाद दफ़्न किया। ख़्वातीन और बच्चों को गिरफ़्तार करके बाज़ार और हुजूम वाले मक़ामात से गुज़ारकर उनकी तौहीन की गई और यज़ीद के दरबार में सिरीया भेज दिया गया।

दरअसल इस जंग की बुनियाद तो मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम के विसाल के बाद हज़रत अली को ख़लीफ़ा बनाने को लेकर ही पड़ गई थी। हज़रत अली के समर्थकों का मानना था कि ख़लीफ़ा बनने के असल हक़दार हज़रत अली हैं। पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबूबक्र, दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमरफ़ारूक़ और तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मानग़नी से वे लोग मुत्तफ़िक़ नहीं थे। 656 ई में बाग़ियों ने तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान ग़नी को शहीद कर दिया और हज़रत अली को अपना ख़लीफ़ा तस्लीम कर लिया। सहाबा के अंदर ही कुछ लोगों को ये बात पसंद नहीं आई और उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा मानने से इंकार कर दिया। जिनमें तल्हा-इब्न-ओबैदुल्लाह , ज़ुबैर-बिन-अल अवाम और मुवाईया-बिन-सुफ़ियान वग़ैरह शामिल थे।

इन लड़ाईयों में सैकड़ों सहाबा के अलावा मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम के दामाद और बीबी फ़ातिमा के शौहर हज़रत अली शहीद रज़ि. शहीद हुए, फिर उनके बड़े बेटे इमाम हसन रज़ि. शहीद किये गये और आख़िर में उनके छोटे बेटे इमाम हुसैन रज़ि. और उनके मासूम बेटों को शहीद कर दिया गया।

कर्बला की शहादतों में दुनिया के लिए ढेर सारी नसीहतें छुपी हैं। इस बात को दुनिया के बड़े बड़े मुफ़क्किर और दानिश्वर तस्लीम करते हैं।

रबिन्द्र नाथ टैगौर : इन्साफ़ और सच्चाई को ज़िंदा रखने के लिए, फौजों या हथियारों की ज़रुरत नहीं होती है! क़ुर्बानियां देकर भी फ़तह (जीत) हासिल की जा सकती है, जैसे की इमाम हुसैन ने कर्बला में किया!

पंडित जवाहरलाल नेहरु : इमाम हुसैन की क़ुर्बानी तमाम गिरोहों और सारे समाज के लिए है, और यह क़ुर्बानी इंसानियत की भलाई की एक अनमोल मिसाल है!

स्वामी शंकराचार्य : यह इमाम हुसैन की क़ुर्बानियों का नतीजा है की आज इस्लाम का नाम बक़ी है नहीं तो आज इस्लाम का नाम लेने वाला पुरी दुनिया में कोई भी नहीं होता

डॉ के शेल्ड्रेक : उन बहादुर और निडर लोगों में औरतें और बच्चे भी इस बात को अच्छी तरह से जानते और समझते थे की दुश्मन की फौजों ने उनका घेरा किया हुआ है, और दुश्मन सिर्फ लड़ने के लिए नहीं बल्कि उनको क़त्ल करने के लिए तैयार हैं! जलती रेत, तपता सूरज और बच्चों की प्यास ने भी उन्हें एक पल के लिए, किसी एक व्यक्ति को भी अपना क़दम डगमगाने नहीं दिया! हुसैन अपनी एक छोटी टुकड़ी के साथ आगे बढ़े, न किसी शान के लिए, न धन के लिए, न ही किसी अधिकार और सत्ता के लिए, बल्कि वो बढ़े असत्य के विरोध में एक बहुत बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए।

अंटोनी बारा : मानवता के वर्तमान और अतीत के इतिहास में कोई भी युद्ध ऐसा नहीं है जिसने इतनी बड़ी मात्रा में सहानूभूती और प्रशंसा हासिल की है और सारी मानवजाती को इतना अधिक उपदेश व उदाहरण दिया है जितनी इमाम हुसैन की शहादत ने कर्बला के युद्ध से दी है!

थॉमस कार्लाईल : कर्बला की दुखद घटना से जो हमें सब से बड़ी सीख मिलती है वो यह है की इमाम हुसैन और इनके साथियों का ख़ुदा पर अटूट विश्वास था और वो सब मोमिन (भगवान् से डरने वाले) थे! इमाम हुसैन ने यह दिखा दिया की सैन्य विशालता ताक़त नहीं बन सकती!

-Abdul Gaffar

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