‘भगवा लव ट्रैप’ की हक़ीक़त क्या है?

भगवा लव ट्रैप कई सालों से बार-बार चर्चा में रहा है और मुसलमानों में असंतोष पैदा करता रहा है, लेकिन इस बार इसका सहारा लेकर बड़े पैमाने पर असंतोषजनक स्थिति पैदा की गई‌। हिंदुस्तान के मिले-जुले समाज में पहले भी इस तरह की शादियां होती रही हैं, लेकिन इस बार ऐसा प्रतीत हुआ (या कराया गया) कि संघ परिवार साज़िश के तहत इस तरह की शादियां करवा रहा है।

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Image Courtesy: Aasim Suhail

‘भगवा लव ट्रैप’ की हक़ीक़त क्या है?

शबीउज़्ज़मां

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को अल्लामा इक़बाल ने जो पैग़ाम दिया था, उसमें एक शे’र ये है कि –

ताइर-ए-ज़ेर-ए-दाम के नाले तो सुन चुके हो तुम,

ये भी सुनो कि नाला-ए-ताइर-ए-बाम और है।

अर्थात्

(तुमने जाल में फंसे हुए पक्षी का विलाप तो सुना है,

लेकिन छत पर मौजूद पक्षी का विलाप भी सुनो, जो अलग है।)

इस शे’र में इशारा ये है कि तुम्हारे नेता, उपदेशक और सुधारक, सब ग़ुलामी से घिरे हुए हैं और उनका रोना ग़ुलामी का रोना है। आज़ाद आदमी की चीख़ और ग़ुलाम की चीख़ में अंतर होता है। मानसिक ग़ुलामी में क़ौमों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं है। उनके सोचने और समस्याओं से निपटने का तरीक़ा बदल जाता है। इस ग़ुलाम मानसिकता में एक स्थिति ख़ौफ़ की होती है जो हिंदुस्तानी मुसलमानों में बहुत गहराई से पाई जाती है। जब भी ऐसा कोई मुद्दा सामने आता है तो लोग उसका विश्लेषण कर उचित समाधान देने की बजाय, राई का पहाड़ बनाकर ख़ौफ़ फैलाना शुरू कर देते हैं।

पिछले दिनों मुसलमान लड़कियों की ग़ैर-मुस्लिम लड़कों से शादी के मामले में जिस तरह हंगामे हुए, वे मुसलमानों के इस मनोविज्ञान को समझने के लिए काफ़ी हैं। सोशल मीडिया पर हंगामा मचाती हुई पोस्ट्स, गली-मोहल्लों में ‘मॉरल पुलिसिंग’ के लिए उत्साही युवाओं की टोलियों की तैयारी, क़ौम में जागरूकता पैदा करने के लिए शहर भर में पोस्टर, बैनर और होर्डिंग, सिम्पोज़ियम और सेमिनार, ख़ास इज्तेमा, जुमे के ख़ुत्बे, मुस्लिम लड़कियों की नाकाम शादियों की तस्वीरें और ग़ैर-मुस्लिम लड़कों के साथ घूमती मुसलमान लड़कियों को बेनक़ाब करने वाले वीडियोज़, इन तमाम बातों ने मुस्लिम समाज में एक असंतोष पैदा कर दिया और ऐसा महसूस होने लगा कि हिंदुस्तानी मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी और गंभीर समस्या यही है।

यह एक भावनात्मक मुद्दा बन गया क्योंकि इसे मुसलमान लड़कियों के ‘इर्तिदाद’ (धर्म-त्याग) के रूप में पेश किया गया। पिछले कई सालों से यह मुद्दा बार-बार चर्चा में रहा है और मुसलमानों में असंतोष पैदा करता रहा है, लेकिन इस बार इसका सहारा लेकर बड़े पैमाने पर असंतोषजनक स्थिति पैदा की गई‌। हिंदुस्तान के मिले-जुले समाज में पहले भी इस तरह की शादियां होती रही हैं, लेकिन इस बार ऐसा प्रतीत हुआ (या कराया गया) कि संघ परिवार साज़िश के तहत इस तरह की शादियां करवा रहा है, क्योंकि संघ परिवार के उप-संगठन हिंदू युवाओं को ऐसा करने के लिए उकसाते और उभारते रहे हैं। हिंदू जागरण मंच ने तो ‘बहू लाओ, बेटी बचाओ’ नाम से एक अभियान भी चलाया।

लेकिन इन हंगामों में कई सवाल पैदा होते हैं। इस लेख में उन सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की गई है।

पहला सवाल यह है कि क्या इसे ‘इर्तिदाद’ (धर्म-त्याग) कहा जा सकता है? निःसंदेह, इस्लाम धर्म में किसी ग़ैर-मुस्लिम से शादी करना एक गुनाह का काम है, लेकिन सिर्फ़ इस बात से कोई इस्लाम से ख़ारिज नहीं हो जाता, जब तक कि वह ख़ुदा का इन्कार न कर दे या स्वयं ही इस्लाम धर्म को छोड़ने का ऐलान न कर दे। कितने ही ऐसे मामले होते रहे हैं कि ग़ैर-मुस्लिम लड़कों से शादी करने के बावजूद लड़कियां न सिर्फ़ ख़ुदा पर ईमान रखती हैं बल्कि इबादतों की पाबंदी भी करती हैं। मौलाना ख़ालिद सैफ़ुल्लाह रहमानी साहब अपने लेख “अंतर-धार्मिक विवाह की घटनाएं और उनका निवारण” में इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि –

“किसी मुसलमान लड़की का ग़ैर-मुस्लिम लड़के के साथ चले जाना अलग बात है और ‘मुर्तद’ हो जाना (धर्म-त्याग कर देना) अलग बात है। किसी ग़ैर-मुस्लिम लड़के के साथ चला जाना यक़ीनन एक बड़ा गुनाह है, लेकिन ‘इर्तिदाद’ (धर्म-त्याग) का मतलब मुसलमान हो जाने के बाद ‘कुफ़्र’ को अपना लेना है। ‘इर्तिदाद’ का मतलब है कि वह अल्लाह के एक होने का, पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद सल्ल० के अल्लाह के रसूल और आख़िरी नबी होने का, क़ुरआन मजीद के अल्लाह की किताब होने का और आख़िरत का इन्कार कर जाए और बुतों को ख़ुदा मानने लगे। इस पहलू से अगर देखें तो बहुत-सी लड़कियां ग़ैर-मुस्लिम लड़कों के साथ चली जाती हैं, वो अपनी तात्कालिक भावनाओं के कारण यह ग़लती कर बैठती हैं, लेकिन वो पूरी तरह से इस्लाम से बाहर निकलने का ऐलान नहीं करतीं। उनके दिल में ईमान की चिंगारी दबी होती है। ख़ुद मेरे पास व्यक्तिगत रूप से ऐसे मामले आए हैं कि जब अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले जोड़े को समझाया गया, तो उन्होंने कहा कि हमने अपना धर्म नहीं बदला है, हम दोनों ने फ़ैसला किया है कि हम अपने-अपने धर्म पर क़ायम रहेंगे, अपने-अपने परिवार से संबंध भी बाक़ी रखेंगे लेकिन वैवाहिक रिश्ते में रहेंगे। उनकी यह बात यक़ीनन बिल्कुल अस्वीकार्य है और शरीयत में निश्चित रूप से इसकी इजाज़त नहीं है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि ऐसे मुसलमान लड़के या लड़की को गुनाहगार, फ़ासिक़ और फ़ाजिर तो कह सकते हैं, लेकिन उन पर ‘मुर्तद’ होने का हुक्म नहीं लगा सकते।”

दूसरा सवाल डेटा से जुड़ा हुआ है। जो डेटा पेश किया जा रहा है, वह संदिग्ध है। लाखों की तादाद में डेटा दिया जा रहा है जबकि उसका कोई प्रामाणिक स्रोत नहीं है। इस डेटा से ऐसा लगता है कि मुस्लिम लड़कियां हिंदुत्ववादियों के लिए बिल्कुल नर्म चारा हैं, इधर उन्होंने एक मुहिम शुरू की और उधर धड़ाधड़ मुस्लिम लड़कियां ‘इर्तिदाद’ का शिकार हो गईं। ज़मीनी सतह पर भी देखें तो मुसलमान लड़कों के हिंदू लड़कियों से शादी करने के मामले तो सामने आते हैं, लेकिन मुसलमान लड़की के हिंदू लड़के से शादी करने के मामले कम ही देखने को मिलते हैं। शहरों में तो फिर भी इस तरह के कुछ मामले देखने को मिल जाते हैं, जिनकी संख्या कई सौ में हो सकती है, लेकिन गांवों और क़स्बों में ऐसे मामले कम देखने को मिलते हैं। इसीलिए लाखों की संख्या में इस तरह के मामले बताना अतिशयोक्ति के अलावा और कुछ नहीं है।

तीसरा और सबसे अहम सवाल ये है कि क्या ये हिंदुत्ववादियों की साज़िशों के तहत हो रहा है? यह सच है कि हिंदुत्ववादी लगातार अपने भाषणों में हिंदू युवाओं को मुस्लिम लड़कियों से शादी करने के लिए उकसाते रहते हैं और ऐसी भी संभावना है कि कुछ भावुक हिंदू युवाओं ने इन भाषणों से प्रभावित होकर मुस्लिम लड़कियों को लुभाकर शादी की होगी, लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं। सामान्य तौर पर, ऐसे मामले व्यावहारिक रूप से संभव नहीं हैं।

पहली बात यह कि जिस तरह के ख़र्चे बताए जा रहे हैं कि संघ के संगठन हिंदू लड़कों को रहने के लिए फ़्लैट, नौकरी और अन्य सुविधाएं दे रहे हैं, इस हिसाब से जितने मामले बताए जा रहे हैं, उसके लिए करोड़ों रुपये की ज़रूरत होगी और संघ को समझने वाले जानते हैं कि संघ इतना पैसा इस काम के लिए कभी ख़र्च नहीं करेगा।

दूसरी बात यह कि हिन्दू समाज बहुत कट्टर और ज़ात-पात में जकड़ा हुआ समाज है। वह ख़ुद अपने समाज की (अन्य जाति की) लड़कियों को नहीं अपनाता, तो क्या यह समाज सिर्फ़ कुछ भावुक भाषणों की वजह से इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़कियों को अपनाएगा, वह भी बिना दहेज के? नफ़रत में वोट देना अलग बात है, लेकिन किसी मुस्लिम लड़की को बहू बनाकर अपने परिवार का बलिदान देना कोई भी हिंदू कभी स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि हिंदू समाज अपने रीति-रिवाजों और संस्कृति से ही जीवित है और यही संस्कृति अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी हिंदू महिलाओं पर है। हिंदू समाज के बहुत-से लोग तो यह भी पसंद नहीं करते कि उनके लड़के-लड़कियां मुसलमानों से दोस्ती करें तो वे कैसे गवारा करेंगे कि कोई मुसलमान लड़की उनकी बहू बने?

Pew Research Center द्वारा अंतरधार्मिक विवाहों पर किया गया एक हालिया अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करता है कि हिंदू अंतरधार्मिक विवाह पसंद नहीं करते। बहुत कम भारतीय कहते हैं कि उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति से शादी की है जो उनके धर्म से अलग किसी दूसरे धर्म का पालन करता है। वास्तव में, लगभग सभी विवाहित लोग (99 प्रतिशत) रिपोर्ट करते हैं कि उनका जीवन-साथी उन्हीं के धर्म को मानता है। इस सर्वे में हिंदू (99%), मुसलमान (98%), ईसाई (95%), सिख और बौद्ध (97%) शामिल हैं। इसी सर्वे से यह भी पता चला कि अधिकांश भारतीय, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, अंतरधार्मिक विवाह पसंद नहीं करते और उन्हें रोकना चाहते हैं। रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि भारत में सभी धर्मों के अनुयायियों के बीच अंतरधार्मिक विवाह की कुल संख्या केवल 2% ही है। इसीलिए इस मामले में हिंदुत्ववादी कोशिशों का ज़्यादा हाथ नज़र नहीं आता।

हालांकि मौजूदा मामलों का ज़मीनी सतह पर जायज़ा लिया जाए तो उनमें हिंदुत्ववादियों की साज़िश के चलते कोई विशेष मामले सामने नहीं आते। एक बात यह ज़रुर देखी गई है कि शादियां तो सामाजिक कारकों के कारण ही हो रहीं थीं लेकिन हिंदुत्ववादी गुंडों ने माहौल का ध्रुवीकरण करने के लिए इन मामलों को हाईजैक कर लिया और उन्हें सांप्रदायिक बना दिया और हिंदू लड़कों के समर्थन में खड़े होकर यह संदेश दिया कि ये मामले हिंदुत्व के प्रयासों से हो रहे हैं।

आख़िरी सवाल यह है कि अंतरधार्मिक विवाह के क्या कारण हैं? किसी व्यक्ति का दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करने का कारण उसके प्रेम में होना होता है। ज़्यादातर लोग उन्हीं को पसंद करते हैं जो उनकी पहुंच में होते हैं, चाहे वे उनके स्कूल, कॉलेज या कार्यालय में हों। एक बार जब वे प्रेम में पड़ जाते हैं, तो उनका अगला स्वाभाविक काम शादी करना होता है। इसीलिए इन शादियों का कारण आमतौर पर सामाजिक कारक ही हैं। ग़ैर-मुस्लिम लड़कों से शादी करने वाली अधिकांश लड़कियां शहरों से हैं, जहां खुली संस्कृति के कारण मुसलमान लड़कियों की हिंदू लड़कों से मिलने की संभावना अधिक होती है। इनमें ज़्यादातर लड़कियां ऐसी हैं जो बस नाम के लिए इस्लाम से परिचित थीं। उनके आसपास का माहौल या तो आधुनिक उदारवादी माहौल था या फिर हिन्दू क्षेत्र में रहने के कारण उनके जीवन में हिन्दू रस्म-ओ-रिवाज मौजूद थे। ऐसे में उनसे इस तरह की हरकत हो जाना बहुत आश्चर्य की बात नहीं है।

इस पूरे मामले को समझने का सबसे महत्वपूर्ण और विश्वसनीय स्रोत विवाह पंजीकरण कार्यालय है। हमने केवल केस स्टडी के लिए महाराष्ट्र राज्य का पिछले एक महीने का डेटा लिया। चूंकि महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश इन मामलों में सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य बताए जा रहे हैं। इस डेटा के मुताबिक़, 40 मामलों में मुसलमान लड़कियों ने ग़ैर-मुस्लिम लड़कों से शादी की, जबकि 52 ग़ैर-मुस्लिम लड़कियों ने मुसलमान लड़कों से शादी की। इस तरह देखा जाए तो ग़ैर-मुस्लिम लड़कियों से प्रेम विवाह का चलन मुसलमान लड़कों में ज़्यादा पाया गया, लेकिन इन तमाम हंगामों में इसका कोई ज़िक्र नहीं है।

इन 40 मामलों में से 27 मामले सिर्फ़ मुंबई, पुणे और ठाणे में हैं। अन्य ज़िलों में इस तरह के मामले न के बराबर हैं। शोलापुर, अहमदनगर, अमरावती, औरंगाबाद, बीड़, सतारा और रायगढ़ ज़िलों में सिर्फ़ एक मामला सामने आया। धुले और अकोला में शून्य, पालघर और नागपुर में तीन-तीन मामले थे। इस डेटा से पता चलता है कि ऐसे मामले बड़े शहरों में ज़्यादा हैं जबकि छोटी जगहों पर कम हैं जो कि सामाजिक कारकों के कारण हैं, न कि हिंदुत्ववादी साज़िशों के कारण।

आख़िर में इस पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण किया जाए कि असल फ़ायदा किसे हासिल हुआ? संघ परिवार दो चीज़ें चाहता है – पहली, हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा करना और दूसरी, मुसलमानों में निरंतर भय और दहशत बनाए रखना। इस मुद्दे से उन्हें ये दोनों फ़ायदे मिले। एक तरफ़ जहां वे ‘लव जिहाद’ और ‘बहू लाओ, बेटी बचाओ’ जैसे नारों के ज़रिए हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा करने में सफल रहे, वहीं दूसरी तरफ़ अति भावुक मुसलमानों, वक्ताओं और सोशल मीडिया एक्टिविस्टों ने एक छोटे-से मुद्दे को एक बड़ी समस्या बना दिया और मुसलमानों के बीच ख़ौफ़ और दहशत की स्थिति पैदा कर दी। जाने-अनजाने में मुसलमानों ने वही काम कर दिया जो‌ संघ परिवार करना चाहता था। इस संबंध में मुसलमानों द्वारा किया गया सबसे बुरा काम अपनी ही बेटियों को बदनाम करना और उन्हें चर्चा का विषय बनाना था। केवल अफ़वाहों और बिना किसी ठोस सबूत के, कुछ मामलों के आधार पर, पूरे मुस्लिम समुदाय में मुस्लिम बेटियों के प्रति अविश्वास का माहौल बना दिया गया। हालांकि ये वही शेर दिल महिलाएं और बेटियां हैं, जो शाहीन बाग़ में मोदी, योगी और शाह जैसे तानाशाहों के ख़िलाफ़ खड़ी हो गईं थीं।

(ये लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं। छात्र विमर्श का इन विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं है।)

उर्दू से अनुवाद: तल्हा मन्नान

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