गीता प्रेस को ‘शांति’ पुरस्कार और ‘आल्ट-राईख’ की याद

2018 में कारवाँ पत्रिका ने यह लेख प्रकाशित किया था। कैरोल शैफ़र ने लिखा था और इसके प्रकाशन तथा लिखे जाने की तैयारी में दसियों वर्ष की मेहनत है। यह आलेख मूलतः ‘आर्कटोस’ नामक प्रकाशन गृह पर है। इस प्रकाशन के संस्थापक ‘डेनियल फ़्रायबर्ग’ और अन्य सदस्यों की विचारधारा ने दक़ियानूसी और नफ़रत फैलाने वाली किताबों का जो कारोबार खड़ा किया है उसे पढ़ते हुए आप सकते में आ जाएँगे।

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गीता प्रेस को ‘शांति’ पुरस्कार और ‘आल्ट-राईख’ की याद

चंदन पांडेय

वर्णाश्रम व्यवस्था में यक़ीन पुख़्ता करने वाली अनेकानेक किताबें छापने वाले प्रेस को शांति पुरस्कार से पुरस्कृत किया जाना कोई असंतत (discrete) घटना नहीं है बल्कि एक निरंतरता (continuum) है। धुर-दक्षिणपंथी प्रकाशनों में भयावह उभार एक वैश्विक फ़िनोमिना है। ख़ासकर जब ओबामा राष्ट्रपति बने और जबकि सारे काम उन्होंने किसी गोरे राष्ट्रपति वाले ही किए जिनमें युद्ध थे, हथियारों की बिक्री थी लेकिन दुनिया के White Supremacist इस घटना से लगभग तबाह होने का अभिनय करने लगे और उसका नतीजा जो है, वह आगे के हिस्से में बताता हूँ।

सादगी का मुलम्मा चढ़ाये जन लिख रहे हैं कि लोग धार्मिक ग्रंथों को पुरोगामी कह रहे हैं तो उन्हें कुछ नहीं कहना! इन्हें इनके हाल पर छोड़ते हुए ‘आल्ट-राईख’ (Alt-Reich) की बात करते हैं। ‘फ़ार राइट’ या जिसे ये ‘ट्रू-राइट’ कहते हैं यानी ‘धुर-दक्षिणपंथ’ के अधुनातन उभार में धार्मिक प्रकाशनों की बात करते हैं।

‘आल्ट-राईख’। वर्ष 2018 में कारवाँ पत्रिका ने यह लेख प्रकाशित किया था। यह बाद में किंडल पर किताब की शक्ल में छपा। कैरोल शैफ़र (Carol Schaeffer) ने लिखा था और इसके प्रकाशन तथा लिखे जाने की तैयारी में दसियों वर्ष की मेहनत है।

यह आलेख मूलतः ‘आर्कटोस’ नामक प्रकाशन गृह पर है। इस प्रकाशन के संस्थापक ‘डेनियल फ़्रायबर्ग’ और अन्य सदस्यों की विचारधारा ने दक़ियानूसी और नफ़रत फैलाने वाली किताबों का जो कारोबार खड़ा किया है उसे पढ़ते हुए आप सकते में आ जाएँगे। इस प्रकाशन संस्थान के कर्ता धर्ता लगभग सात आठ साल तक भारत में रहे। उनसे पूछा गया कि आप भारत में क्यों थे तो जो उनका जवाब था, वह अपने लिए अपमानजनक तो था ही, उनके लिए ज़रुर ख़ुशियों भरा होगा जिन्हें लगता है कि वर्णाश्रम प्रेस की किताबों से जनता ने पढ़ना सीखा और जनमानस तैयार किया। उनका जवाब था: “… it was good to be in a place where daily life is still for the most part an expression of the traditional spirit rather than a liberal one.”

इस आलेख की लेखिका ने अथक परिश्रम से इन बदमाशों के इंटरव्यू लिए। एक दफ़ा जब फ़्रायबर्ग ने लेखिका से शराब पीने की बात पूछी और लेखिका ने इनकार करते हुए हँस दिया था तब उस तथाकथित दक्षिणपंथी ने लेखिका से कहा था, क्या तुम एक वैश्या हो? यहाँ कहना न होगा जो लोग वर्णाश्रम प्रेस के पक्ष में अभियान चलाए हुए हैं, समय-समय पर उनके खुद के विचार कैसे स्त्री विरोधी रहे हैं, जिन्हें वे सोशल मीडिया पर लिखते रहे हैं?

अचंभित करने वाला साम्य यह है कि स्त्री विरोध से भरी किताबों को प्रकाशित करने वालों को दुनिया भर की छूट देने वाले लोग भी अचंभित रह जाएँगे, अगर वे जान लें कि आर्कटोस प्रकाशन से जुड़े एक लेखक से जब एक स्त्री ने अपने क्रूर पति के बारे में पूछा तब उस लेखक-ढोंगी संत ने कहा, फ़ॉलो योर स्त्री धर्मा! यह सब इस लेख में आप भी पढ़ सकते हैं।

महत्वपूर्ण यह है कि इस प्रकाशन के लोग जब भारत आते हैं तो संघ और भाजपा के नेताओं से मिलते हैं। रवि शंकर प्रसाद। राम माधव। भाजपा का एक प्रतिनिधि, जिसका दावा है कि पिछले पैंतीस वर्षों से संघ से जुड़ा है, बंगलौर में इनका स्वागत करता है, इनके इंतज़ामात करता है।

महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय मिथकों से वह सब लेते हैं जो इनके एजेंडे को आगे बढ़ाता हो। कलियुग का अंत जैसी बोगस धारणाओं को स्थापित करते हैं। बाल गंगाधर तिलक की किताब ‘आर्कटिक होम इन वेदाज’ का पुनः प्रकाशन करते हैं। अर्कटोस नाम में भी आर्कटिक की गूँज आप सुन सकते हैं। और ये सब आर्यन सुप्रिमेसी में यकीन करने वाले लोग हैं।

जो आदमी या जो किताब वर्णाश्रम की पैरोकारी करता हो, स्त्री-ग़ुलामी का वकील हो, उसकी किसी भी बात को आप कैसे सही ठहरा सकते हैं अगर आप अन्यथा ख़ुद ही इन अमानवीय मूल्यों में यक़ीन करने वाले न हों! कैसे?

जिन्हें लगता है कि इस ख़ास प्रेस की किताबों से भारतीय और ख़ासकर उत्तर भारतीय जनमानस तैयार हुआ है, उनके लिए यह गर्व का विषय है या शर्मिंदगी का, यह इनसे पूछा जाना चाहिए? बात किताबों की हो रही है और आप शिव की बारात नामक पेंटिंग पर लहालोट हैं।

पिछले दिनों रामचरितमानस की अनेकानेक चौपाइयों की समयानुकूल व्याख्या से जब विश्वविद्यालय और ऐसी ही संस्थाएँ घबरा गई, जो संस्थाएँ पूरी तरह सामंती मूल्यों वाले लोगों के क़ब्ज़े में हैं तो हड़बोंग मची। मानस पर सेमिनार दर सेमिनार होने लगे। यह कहना कि सत्ता से डर कर लोगों ने ऐसा किया, ग़लत होगा। ये ख़ुद भी इसी मिज़ाज के लोग हैं। बस मौक़ा ढूँढ रहे थे। जब तक प्रगतिशील मूल्यों की गुंजाईश थी तब तक रँगा सियार बने रहे और अब अपने वास्तविक स्वरूप में आ रहे हैं। यहाँ रामचरितमानस के समसामयिक होने से अलग, बात उनकी हो रही है जो इसे ‘पॉवर टूल’ की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा कोई ग्रंथ जो सत्ता को प्रिय हो, जनपक्षधर हो जाए यह लगभग नहीं होता। और कहीं-न-कहीं यह भी लगता है, मानस की समसामयिक व्याख्याओं से घबराकर या उसकी प्रतिक्रिया में यह पुरस्कार प्रकाशन को दिया गया है।

मनोज कुमार ने अपने एक आलेख में हिंदुईज़्म और हिंदुत्व की जो व्याख्या की है, वह तथाकथित बुद्धिजीवियों की उस व्याख्या से बिल्कुल अलग है जिसमें वे आज की मुश्किलों का सारा ठीकरा हिंदुत्व पर फोड़ते हुए हिंदुईज़्म को बरी करा लेना चाहते हैं। कम-से-कम जाति के प्रश्न पर इन दोनों में जो तुलना होनी चाहिये वह अभी तक नहीं हुई है और उसी की आड़ लेकर लोग गीता प्रेस के पक्ष में लिखे जा रहे हैं।

मज़ेदार यह है कि बचाव में लगे लोग यह लिख रहे है कि मानस में दो चार पद ही वर्णाश्रम पक्षधर हैं, इसलिए उनकी पुनः व्याख्या बेमानी है। आँकड़ों के ग़लत इस्तेमाल का यह तरीक़ा दंगाइयों ने बाद में सीखा होगा, पहले तो ये बुद्धिजीवी ही हैं।

वे लोग हर तथ्य को नकार देना चाहते हैं। हिंदू नवजागरण, हिंदू-मुस्लिम बायस, वर्णाश्रम की मज़बूती, स्त्री पराधीनता जैसे हर तथ्य से गीता प्रेस के आविर्भाव को दूर रखना चाहते हैं। और फिर पोलेमिकल लेखन! हर शब्द के बाद मूर्ख, अभागा आदि लिखकर वज़न पैदा करना चाहते हैं। अक्षय मुकुल का शोध इनकी जातिवादी तैयारी के आगे इन्हें कुछ भी नहीं लगता! वाह!

मेरा आग्रह है कि आल्ट राइट के डरावने उभार पर कैरोल का यह किताबनुमा आलेख आप जरूर पढ़ें। आप उन प्रकाशकों की वित्तीय सहायता करने वाले पूँजीपतियों के बारे में पढ़ें। तब आप जान पाएँगे कि दुनिया किधर जा रही है।

पूँजीपतियों और धनाढ्य वर्ग को जिस एक चीज़ से नफ़रत है, वह है, समानता। बराबरी का पहला अक्षर भी उनसे बर्दाश्त नहीं होता। पिछली सदी ने सकारात्मक विचारों के मोर्चे पर प्रगति की थी। इस सदी में पूँजीपति ऐसा होने नहीं देना चाहते।

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