कविता-किताबें खोलता हूँ

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किताबें खोलता हूँ,
सैकड़ों पन्ने पलटता हूँ,
हज़ारों लफ्ज़ मिलते हैं,
सभी खामोश दिखते हैं,
यूंही बिखरे पड़े हैं सब,
क़लम ने क़ैद कर रख्खा है इनको,
किताबों के क़िले में,
हर इक लफ़्ज़ों के पैरों में पड़ी हैं बेड़ियाँ,
सज़ा पायी लफ़्ज़ों ने,
यूंही ख़मोश रहने की l

हज़ारों लफ़्ज़ हैं लेकिन,
सभी खामोश बैठे हैं,
अगर एक लफ़्ज़ भी कुछ बोलता,
खमोशी तोड़ सकता था,
जो पैरों में हैं ज़ंजीरें,
उन्हें वो तोड़ सकता था l

इसी उम्मीद में मैंने,
किताबें बंद कर दी हैं,
जब हर एक लफ़्ज़ बोलेंगे,
तो इन पन्नों को खोलेंगे….!

– मसीहुज़्ज़्मा अंसारी

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