- इस लेख में जिन महिलाओं और उनके आंदोलनों पर बहस की गयी है, उनकी विचारधाराएं, दृष्टिकोण एवं मान्यताएं को चर्चा का विषय नहीं बनाया गया हैं। उनके विचारों और उनके व्यावहारिक जीवन के कई पहलुओं से मतभेदों के बावजूद उद्देश्य, उनकी कार्यप्रणाली और कार्यक्षमता को उजागर करना है। यदि अन्य महिलाएं भी साहस, बुद्धि और गतिविधि के साथ काम करती हैं, तो समाज की बहुमूल्य सेवाएं कर सकती हैं।
यहां हम दो लोगों और दो आंदोलनों की बात करेंगे। जिनकी गतिविधियां जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित हैं। उनकी गतिविधियां उनसे मिलने के लिए प्रेरित करती हैं। इस्लामवादी महिलाओं के लिए भी ये गतिविधियां, संघर्ष और प्रयास करने के सुअवसर हैं।
इसका आरम्भ हम एक मुस्लिम महिला के गौरान्वित कार्यों से करते हैं। महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षेत्रों में, अस्पृश्य लोगों और बच्चों की मदद के लिए एक बड़ा संगठन “Helpers Of The Handicapped” है। यह संगठन दिव्यांगों, खासतौर पर बच्चों के जीवन में नयी भावना एवं उमंग पैदा करता है। मुहम्मद दोनों हाथों से मजबूर एक बच्चा है। निजी स्कूलों के अलावा, सरकारी स्कूलों ने भी मुहम्मद को प्रवेश देने से इंकार कर दिया । क्यूंकि वह लिखने पढ़ने का काम स्वयं नहीं कर सकता था। आज इस संगठन की मदद से वह न केवल लिखने पढ़ने योग्य है बल्कि कोल्हापुर के एक विशेष स्टेडियम में क्रिकेट खेलते हुए, बगल में बल्ला दबाए चौका भी लगा सकता है। अब उसका जीवन आशाओं से भरा है। वह आगे बढ़ना चाहता है।
इस संगठन के पास ऐसे कई अनुभव हैं। संगठन की संस्थापिका नसीमा हरज़ोक हैं। नसीमा 16 वर्ष की उम्र तक एक सामान्य स्वास्थ्य लड़की थी। स्कूल पूरा करने के बाद, उन्होंने जूनियर कॉलेज में सफलतापूर्वक पहला वर्ष पूरा किया, फिर अचनाक कमर के नीचे उनका शरीर शिथिल हो गया। अब वह खड़ी भी नहीं हो सकती थी। मल -मूत्र पर भी पर कोई नियंत्रण नहीं था। करवट तक नहीं ले सकती थी। आज भी नसीमा की स्तिथि ऐसी ही है, लेकिन इस स्थिति में वह लाखों बीमारों की सेवा कर रही हैं। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। उनकी जीवनी “असीमा – द इनक्रेडिबल स्टोरी” जुडविका फाउंडेशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित की है। ये जीवनी न सिर्फ अस्वस्थ लोगों को बल्कि स्वस्थ लोगों को भी साहस देती है।
नसीमा के शब्दों में, “मैं 16 वर्ष की थी। मैं बिस्तर पर मौत के लिए प्रार्थना कर रही थी। मेरी मृत्यु कम से कम उन लोगों को परेशानियों से बचा सकती थी जो मुझसे प्यार करते थे। उस समय, बाबा की पसंदीदा कविता मेरे दिमाग में पुनर्जीवित हुई।
ख़ुदी को कर बुलंद इतना के हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ?
नसीमा ने भाग्य का मातम करने के बजाय अल्लाह की मर्ज़ी को स्वीकार करने और संघर्ष करने का रास्ता अपनाया। नसीमा कहती हैं “मुझे जीवन के इन कठिन वर्षों में अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ा। मेरा विश्वास है कि उन्हें चुनौतियों ने मेरे व्यक्तित्व और व्यवहार को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन चुनौतियों ने मुझे कठिन परिस्थितियों में भी मदद की है। आज मुझे लगता है कि यह प्रशिक्षण बहुत उपयोगी साबित हो रही है। ऐसी स्थितियों में जहां लोगों की बौद्धिक क्षमता गुम हो जाती है, मुझे न सिर्फ अपनी भावनाओं पर नियंत्रण है, बल्कि दूसरों को हौसला भी देती हूँ। प्रोत्साहित करती हूं। अब मेरा विश्वास है कि हर समस्या हमारे लिए सीखने और ख़ुद को प्रशिक्षित करने का अवसर है। समस्याओं को हल करने के प्रयास हमें जीवन में एक कदम आगे बढ़ाते हैं। मैं आसानी से समस्याओं के बारे में चिंतित नहीं हूं। क्योंकि मेरा मानना है कि भगवान की योजना सबसे अच्छी है। इस चिंता में भी मेरे लिए भलाई छुपी है।”
ऐसी बातें जिन्हें हम प्रवचन एवं धार्मिक संघोष्ठियों में अवश्य सुनते हैं, लेकिन एक ऐसी महिला जिसे अपने मल – मूत्र का आभास एवं उसपर नियंत्रण नहीं। उसके मुख से सुनकर बड़ा हौसला एवं उत्साह मिलता है। अब यह नसीमा का मिशन है। वह पश्चिम महाराष्ट्र के कस्बों में उद्देश्यों और उत्साह को वितरित करने के लिए काम कर रही हैं। ऐसे बच्चे और युवा पुरुष, जो अपनी शारीरिक अक्षमता के कारण जीवन से निराश हैं और मृत्यु की आशा में समय काट रहे हैं। उनके साथ नसीमा की एक मुलाक़ात उनकी आँखों में जीवन जीने की उमंग पैदा करती है।
एक विकलांग महिला, लाखों विकलांग लोगों से सहानुभूति रखती है। इस्लाम पसंद महिलाओं में कितनी बहनें ऐसी हैं जो इस स्तर की सामाजिक सेवा करती हैं? नसीमा की जीवनी अंग्रेजी और मराठी में उपलब्ध है, इसे हमारी बहनों को अवश्य पढ़ना चाहिए।
गुजरात के दंगे हमारे देश में क्रूरता एवं अत्याचार के बुरे उदाहरण हैं। इन दंगों में लाखों परिवारों पर जो अत्याचार हुए हैं, वही दंगे का परिणाम निर्धारित कर सकते हैं जिन्हे इन परिवारों से मिलने के अवसर प्राप्त हुए हैं। विकलांग लोग भी हमारी मदद और सहानुभूति के हकदार हैं, जो दुर्घटना से पीड़ित हैं। हम सभी ने इस क्रूरता पर ख़ून के आँसू बहाए हैं। लेकिन पीड़ितों को न्याय दिलाने एवं अपराधियों को दंडित करने के लिए कितने लोगों ने प्रयत्न किये हैं ? मोदी की सांप्रदायिक सरकार के खिलाफ तीस्ता सीतलवाड़ को महिला की सेना कहा जाता है। पिछले तीन सालों से तीस्ता चौमुखी लड़ाई लड़ रही हैं । उनके विरोधियों की संख्या बहुत अधिक है। उनके पास शक्ति और प्रभाव भी है। उनके उत्साह एवं शक्ति को तोड़ने के लिए सभी प्रयास किए गए। शारीरिक घात पहुंचाए गए। आरोप लगाए गए । मुक़दमे दायर किये गए। यदि कोई आम महिला होती तो इस चौमुखी हमले से हिम्मत हार जाती, तीस्ता का संघर्ष परस्पर जारी है। तीस्ता के प्रयास को देख कर जावेद अख्तर कहते हैं, “गुजरात उच्च न्यायलय का फैसला किसी भी इंसान को परास्त करने के लिए पर्याप्त था। उसने न केवल दंगियों को बरी कर दिया था, बल्कि तीस्ता पर घिनौने आरोप भी लगाए थे। लेकिन तीस्ता के हौसलों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इनकी क्षमता एवं जुनून एक अद्वित्य विशेषता है।”
तीस्ता मार्कसवादी विचारधारा की हैं। उनके दृष्टिकोण कई मामलों में विवादास्पद हैं। हम उनकी सभी गतिविधियों का समर्थन नहीं करते हैं, लेकिन गुजरात के पीड़ितों के लिए उनका प्रयास एवं संघर्ष निस्संदेह प्रशंसनीय एवं अनुसरणीय है। उनकी पत्रिका “कम्युनिज्म कमेटीज” भारत में सांप्रदायिकों का पर्दाफाश करने का सबसे प्रभावी साधन है। गुजरात के दंगों के बाद, तीस्ता ने गुजरात के दंगियों के प्रमाण जमा किए थे। मार्च 2002 में, उनकी पत्रिका (लगभग 150 पृष्ठों) का एक विशेष अंक प्रकाशित किया गया था। यह पत्रिका गुजरात दंगों पर हमलों का पहला नियमित दस्तावेज था। पत्रिका ने लोगों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुजरात नरसंहार के बारे में जागृत किया। मानवाधिकार आयोग और विभिन्न शोध एजेंसियों ने इसकी गवाही को बहुत महत्व दिया। यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में गुजरात उत्पीड़न के मामले को प्रस्तुत करने में विशेष रूप से सहायक था। इस मुद्दे पर तीस्ता की पत्रकारिता और शैक्षणिक कोशिशें जारी हैं। वे गुजरात के दंगों और सांप्रदायिकों को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इसमें अनगिनत रिपोर्ट, डेटा, लेख, आंख खोलने का विश्लेषण, दिल को तड़पा देने वाली घटना, रिकॉर्ड, फोटो, वीडियो आदि शामिल हैं। वैश्विक दंगों पर लिखने एवं शोध करनेवाले इस वेबसाइट (www.sabrang.org) का उपयोग अवश्य करते हैं। उन्होंने पत्रकारों को व्यवस्थित करने के लिए Journalists Against Communalism नामक एक संगठन स्थापित किया। मुंबई के दंगों के बाद, उन्होंने नागरिकों के लिए “शांति और न्याय” (Peace and Justice) नामक एक बहुत ही प्रभावी मंच स्थापित किया। इस मंच ने न्यायमूर्ति श्री कृष्ण आयोग की जांच में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तीस्ता ने उस समय मुख्य मुंबई पुलिस वायरलेस फ़्रीकवानसीज़ हस्तक्षेप करके नियंत्रण कक्ष की बातचीत रिकॉर्ड किए। इसके द्वारा मुंबई पुलिस के मुस्लिमों के खिलाफ साज़िश का खुलासा किया। इस घटना का विरोध पूरे देश में बड़े पैमाने पर किया गया था।
गुजरात दंगों के बाद सबसे पहले तीस्ता ने केवल सबूत इकट्ठा करने का काम किया। लेकिन जब उन्होंने देखा कि पीड़ितों की ओर से बेखौफ मुकदमे लड़ने में परेशानियां आ रही है तो वह सीधे न्यायिक गतिविधियों में भाग लेने लगीं। बेस्ट बेकरी मुक़दमे को गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित करने में उनकी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। यह निर्णय मोदी सरकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने गुजरात के उत्पीड़ित नरसंहार के मामले में काफी स्थिरता दी। गुजरात दंगों के उत्पीड़ित लोगों को साहस देना और उन्हें प्रोत्साहित करना तीस्ता की मुख्य प्राथमिकता थी। उनकी गतिविधियां भी मुख्य मोर्चे पर थीं। वह अक्सर मुंबई से अहमदाबाद आतीं। पीड़ितों से मिलतीं, उनके साथ बैठकें करतीं। यदि कोई तीस्ता के साथ 15 मिनट बैठे तो प्रत्येक दो मिनट में उनके मोबाइल बजेंगे। कॉल गुजरात पीड़ितों का या इस केस से सम्बंधित सहायकों का होगा। स्कूल के बच्चों, रंगमंच, नाटक, सांप्रदायिकता के खिलाफ प्रदर्शन, जनता को जागरूक करने का अभियान, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने, सांप्रदायिक मामलों और उनके सच्चे चित्र को उजागर करने का प्रयास करने के लिए सांप्रदायिक रूप से स्पष्ट सबक के बारे में अनुसरण करना, पुस्तक प्रकाशन, पत्रिका संपादकीय, वेबसाइट डिजाइन, पत्रकारों का आयोजन और हिंसा के खिलाफ उन्हें लिखना। अविश्वसनीय है कि 42 वर्षीय महिला अकेले इतने सारे काम कर सकती है ?
नसीमा और तीस्ता दोनों शहरी महिलाएं हैं। अब कुछ ग्रामीण महिलाओं का भी उल्लेख करें। आंध्र प्रदेश के नेलोर जिले में डुबाघंटा एक छोटा सा गांव है। 15 साल पहले ये गांव राष्ट्रीय मीडिया में एक बड़ा मुद्दा बन गया था। जिसका कारण, महिलाओं का एक अनूठा आंदोलन है। महिलाओं की साक्षरता कक्षा में सीतम्मा की कहानी पढ़ी गई, जो अपने पति की शराब की आदत से तंग आकर आत्महत्या कर लेती है। इस कहानी का असर महिलाओं पर ये पड़ा कि शराब के ख़िलाफ़ खड़ी हो गईं। जिनमें से अधिकतर के पति नशेड़ी थे। शराब के विरुद्ध कमिटयां बनीं। शराबी पतियों को पत्नियों ने मंदिर लेजाकर शराब न पीने की क़समें लीं। उसके बाद आंदोलन ने अधिक जोर पकड़ा, इसके बाद महिलाओं ने शराब बंद करने के लिए केरोसिन तेल, मिर्च पाउडर, लाठियां और छोटे छोटे हथियार के बल पर स्थानीय बैंकों, कंटेनरो, गोदामों एवं शराब के अड्डों को बंद कराया। महिलाओं ने शराब के बचे हुए रुपयों से हार्लिक्स एवं बार्नवीटा जैसे स्वादिष्ट और स्वास्थदायी पेय पदार्थ पतियों को दिलाएं। यह आंदोलन गांवों से शहरों तक फैला । लगभग तीन महीने के भीतर 800 गांव में आंदोलन फैल गया। हाल ही में, यह आंदोलन पुलिस अधिकारियों और उच्च अधिकारियों का लक्ष्य बन गया। महिलाओं ने शराब लाइसेंस की नीलामी करने से रोका। फलस्वरूप लाठियाँ चलाई गयीं। मुक़दमे दायर किये गए। कई महिलाओं को जेलों में बंद कर दिया गया। लेकिन शराब के खिलाफ आंदोलन फैलता गया। 1 अक्टूबर 1993 को मुख्यमंत्री विजय भास्कर रेड्डी को देसी शराब पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। तेलगु देशम के प्रमुख एनटी राम राव ने शराब पर प्रतिबंध लगाने का वादा किया। इस वादे ने उन्हें तेलुगू देशम का मुख्यमंत्री बना दिया। एनटी राम राव मुख्यमंत्री बने और शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। दुर्भाग्यवश, बाद में मुख्यमंत्री, चंद्र बाबू नायडू, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने रिन्यू (नवीकरण) के लालच में प्रतिबंध समाप्त कर दिया। इस तरह यहां महिलाओं की इस शानदार ऐतिहासिक आंदोलन के परिणाम कारगर नहीं हुए। वहीं इस पद से बेवफाई की, जो तेलुगू देशम सत्ता में आने की वजह बनी थी। लेकिन इस आंदोलन ने जो कोशिश की थी वह फैलती गई। शराब समर्थक मामूली लोग नहीं थे, ठेकेदार महान प्रभाव के नेता थे और अक्सर राजनीतिक दलों के प्रभावशाली नेताओं में से थे। राज्य सरकारों के पास इसका बड़ा राजस्व था। विशेषज्ञों के मुताबिक, विश्व बैंक ने यह भी सिफारिश की, आंध्र प्रदेश में शराब पर प्रतिबंध रोक दिया जाना चाहिए। इन विशेषज्ञों को यह नहीं पता था कि राज्य सरकार गरीब और उपयोगी परिवारों को 900 करोड़ प्रदान करने के लिए 4500 करोड़ ग़रीबों को नुकसान सहन करना पड़ा। इसके बावजूद, राज्य सरकार को शराब पर प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह ग्रामीण महिलाओं की सफलता है, जिसकी मिसाल मुश्किल से मिलती है।
धीरे धीरे यह आंदोलन अन्य राज्यों में भी फैलता गया। हरियाणा में महिलाओं ने शराबियों की पिटाई कर दी और शराब के अड्डे को सार्वजनिक शौचालयों में बदल दिया। यहां तक कि राज्य सरकार को शराब को प्रतिबंध घोषित करना पड़ा। 1996 में मुजफ्फरनगर (सजदोजूंगी) में महिलाओं ने शराब की दुकानों को आग लगाना शुरू कर दिया। 19 महिलाएं गिरफ्तार की गईं। उत्तर प्रदेश में विरोध प्रदर्शन की श्रृंखला शुरू हुई।
हुसैन बी नाम की एक बूढ़ी महिला ने कर्नाटक के रीनल गांव में इस आंदोलन की शुरुआत की। वह प्रतिदिन शराब की लारियों पर पत्थर बरसाती और गालियां देती। हुसैन बी धूप और वर्षा में भी अपना काम किये जा रही थीं। धीरे धीरे शराब की लारियों पर पत्थर बरसाने वाली वह अकेली नहीं रहीं। एक से दो, दो से चार हुईं, लारी गांव में आई और सभी महिलाएं पत्थर बरसाने लगीं। पुलिस आकर महिलाओं को रोकना चाहती है, अब पुजारी, इमाम और कुछ प्रभावशाली लोग महिलाओं के समर्थन में खड़े थे। तब यह हुआ कि गांव के ग्रामीणों ने दूसरा रोजगार प्रदान किया। अब रीनल में शराब की दुकान नहीं है, न ही कोई शराब पीता है। इस समय जब आप इस लेख का अध्ययन कर रहे हैं, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आदि के कुछ गांव में शराब की दुकान और लारी पर पत्थर बरस रहे होंगे। आंध्र प्रदेश आंदोलन की दबी हुई चिंगारी समय-समय पर जगह जगह भड़क उठती है।
महिलाओं की इन आंदोलन को किसी संगठन की सहायता नहीं मिलती है। भारत के किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में शराब पर प्रतिबंध शामिल नहीं है। न किसी बड़े आंदोलन ने इस मुद्दे को उठाया है। इसके बावजूद अनपढ़ और पिछड़ी महिलाएं देश में कई जगह के पढ़े लिखे वर्ग की इच्छा ‘विशेषज्ञों’ की ‘विशेषज्ञ’ राय और राजनीतिक दलों के संयुक्त ‘स्टैंड’ के खिलाफ अपनी बात मनवाने में सफल हो जाती हैं। ‘स्वयं नियोजित महिला संघ’ (Self employed women association) गुजरात के गांवों में एक गरीब श्रम उन्मुख और लघु-स्तरीय व्यापार संगठन है। सुश्री ऐला भट्ट ने 1972 में महिला मजदूर वर्ग का समर्थन करने के लिए इस संगठन की स्थापना की। आज यह एक व्यवस्थित आंदोलन बन गया है। उन्होंने गरीब महिलाओं के जीवन में एक खुशहाल क्रांति लाई है। पूरा राज्य सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक बन गया है।
आज स्थिति यह है कि ‘सेवा’ के सदस्यों की संख्या लाखों तक पहुंच गई है। संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों और सरकारों के प्रमुख इस अनुभव को देखने के लिए सेवा के कार्यालयों का दौरा करते हैं। (हाल ही में नीदरलैंड के प्रधान मंत्री ने दौरा किया) यह आंदोलन यमन और तुर्की जैसे देशों में फैल गया है, और बहुत सारे प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते हैं। सेवा के काम करने का तरीक़ा बहुत सरल है। वह मजदूरों, गरीब व्यापारी महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती है। सहकारी संस्थाओं द्वारा इसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को मजबूत करती हैं। उनके विश्वास को बढाती है। आज सेवा की लगभग 53 डेयरी ऑपरेटिव हैं। गरीब ग्रामीण महिलाएं बड़े व्यापारियों और डेयरी मालिकों को प्रत्यक्ष व्यापार के बिना दूध और सामान बेचती हैं। और आय में वृद्धि करती हैं। इसी तरह, 15 पृष्ठों में ऑपरेटिव हैं। 15 सेवाएं और कर्मचारी सहकारी समितियां हैं। 7 कृषि और 5 वाणिज्यिक सहकारी समितियां हैं। सेवा बैंक भी उन सदस्यों में से एक है जिनकी सदस्यता दस लाख से अधिक है। इन सदस्यों को बैंक से भी लाभ होता है, सामाजिक संरक्षण संगठन सेवा आंदोलन का मुख्य हिस्सा भी हैं। स्वास्थ्य सहकारी समितियां गरीब महिलाओं के स्वास्थ्य पर विचार करती हैं। उनके पास अपने डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मचारी हैं। वे महिलाओं में स्वास्थ्य और फिटनेस आंदोलन भी करते हैं और अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखते हैं। इसी तरह, देखभाल केंद्र भी हैं, जहां बच्चे के स्वास्थ्य के देखभाल करते हैं। उन्हें टीका लगाया जाता है। सभी महिलाओं को बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में जागरूक किया जाता है। इसके लाभार्थियों की संख्या भी लाखों हैं। गुजरात बड़े पूंजीपतियों और महाजनों का राज्य है। जहां व्यापार पर विशेष पूंजीपतियों का हाथ है। इस तरह की स्थिति में भी अहमदाबाद के मुख्य बाजार में सेवा की पहचान है। जहाँ ग्रामीण महिलाएं सीधे अपने उत्पादों की बिक्री कर सकती हैं। आज, डॉक्टरों को ‘सेवा’ संस्थानों में नियोजित किया जाता है। इसके वित्तीय संस्थानों में वित्तीय अधिकारियों और विशेषज्ञों को वेतन-भुगतान करती है। यह सब ग़रीब एवं अशिक्षित महिलाएं करती हैं। उनके प्रतिनिधियों को इस बोर्ड के लिए चुना जाता है। वे उस आंदोलन के सभी निर्णय लेती हैं।
एक विकलांग महिला जो अन्य विकलांगों की सेवा में लगी हुई है। एक शिक्षित महिला जो अत्याचार के विरुद्ध खड़ी है। गरीब ग्रामीण महिलाओं का आंदोलन सामाजिक बुराई को खत्म कर रहा है, और ग्रामीण महिलाओं का एक आंदोलन, जो गरीब महिलाओं के गरीबी और कल्याण के लिए कार्यरत है। इनमें प्रत्येक के पास अपने कार्यों के ठोस परिणाम हैं, सिर्फ खोखले दावे एवं वादे नहीं। ऐसी कोशिशों का एक रिकॉर्ड है जो समाज में गौरान्वित करता है। भारत में, इस तरह के विविध आंदोलन और कार्यकर्त्ता हैं। यहां हमने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से केवल एक नमूना के रूप में चार गतिविधियां प्रस्तुत की हैं। कल्पना कीजिए कि इनमें से किसी भी एक आंदोलन का आरम्भ करने वाली इस्लाम पसंद महिलाएं होतीं तो आज स्तिथि क्या होती ? क्या इस्लाम की ये अमली शहादत हज़ारों संघोष्ठिओं एवं भाषणों पर भारी नहीं होतीं___ ?
लेखक : सय्यद सआदतुल्लाह हुसैनी
अनुवाद : नाज़ आफरीन
Naaz Aafreen
Senior Research Scholar, Dept. of Urdu
Ranchi University, Ranchi
Email: [email protected]