यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, मुस्लिम आबादी और चार शादियों का प्रॉपगैंडा

‘नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे’ की रिपोर्ट यह बताती है कि एक से ज़्यादा शादियां करने का रिवाज सब से ज़्यादा ईसाईयों में (2.1%) है। मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं में 1.3% और अन्य कम्युनिटीज़ में 1.6% है। इसमें नोट करने की बात यह है कि मुसलमानों में यह प्रतिशत उस स्थिति में है जब उनके यहां एक से ज़्यादा शादियों की क़ानूनी रूप से अनुमति है, जबकि दूसरी कम्युनिटीज़ में क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित है।

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यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, मुस्लिम आबादी और चार शादियों का प्रॉपगैंडा

शबीउज़्ज़मां

यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड एक राजनीतिक मुद्दा है जिससे भाजपा कई तरह के फ़ायदे हासिल कर रही है। वह अपने हिंदू मतदाताओं को यह संदेश दे रही है कि हम इस तरह मुसलमानों को क़ाबू में रख रहे हैं।

भाजपा हमेशा अपने हिंदू मतदाताओं से कहती रही है कि एक तरफ़ तो हिंदू कोड बिल पास कर के हिंदुओं की एक से ज़्यादा शादियां करने पर पाबंदी लगा दी गई, दूसरी तरफ़ मुसलमान चार-चार शादियां कर के 25-25 बच्चे पैदा कर रहे हैं और बहुत ही योजनाबद्ध तरीक़े से अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, ताकि इस देश में फिर से वे अपनी हुकूमत स्थापित कर सकें। यदि इसी रफ़्तार से उनकी आबादी बढ़ती रही तो 2040 तक हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री कोई मुसलमान होगा और हिंदुस्तान में दोबारा मुग़ल राज आ जाएगा और हिंदू ग़ुलाम बन जाएंगे। इसीलिए मुसलमानों को क़ाबू में रखना ज़रूरी है। यह वह डर है जो भाजपा हमेशा अपने हिंदू मतदाताओं में पैदा करती रही है और आश्चर्य की बात है कि देश की एक बड़ी आबादी, जिसमें हिंदुओं का शिक्षित वर्ग भी शामिल है, ने इस कहानी को सच भी मान लिया है।

तथ्य बताते हैं कि चार शादियों की बात प्रॉपगैंडा से ज़्यादा कुछ नहीं है। वास्तविक जीवन में मुश्किल से ही कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई देता है जिसने कभी चार शादियां की हों और व्यवहारिक रूप से ऐसा करना संभव भी नहीं है। तमाम मुसलमान चार शादियां उसी वक़्त कर सकते हैं जब उनके यहां मर्दों के मुक़ाबले औरतों की संख्या चार गुना ज़्यादा हो। 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों में लिंगानुपात (1,000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या) 951 है, यानि यहां पहले ही मर्दों के मुक़ाबले 49 औरतों की कमी है तो ऐसे में एक आदमी चार महिलाओं से शादी कैसे कर सकता है? यदि कुछ पुरुष एक से अधिक विवाह करते हैं, तो कई पुरुषों को पत्नियां ही नहीं मिलेंगी और किसी भी समाज में अविवाहित पुरुषों की संख्या उस समाज की प्रजनन क्षमता को नहीं बढ़ा सकती। बहुत कॉमन सेंस की बात है कि चार व्यक्ति, चार पत्नियों के साथ ज़्यादा बच्चे पैदा करेंगे या फिर एक ही मर्द की चार बीवियां हों तो वे ऐसा कर सकेंगे?

‘नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे’ की रिपोर्ट यह बताती है कि एक से ज़्यादा शादियां करने का रिवाज सब से ज़्यादा ईसाईयों में (2.1%) है। मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं में 1.3% और अन्य कम्युनिटीज़ में 1.6% है। इसमें नोट करने की बात यह है कि मुसलमानों में यह प्रतिशत उस स्थिति में है जब उनके यहां एक से ज़्यादा शादियों की क़ानूनी रूप से अनुमति है, जबकि दूसरी कम्युनिटीज़ में क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित है। इसके बावजूद यहां इतने बड़े पैमाने पर एक से ज़्यादा शादियां हो रही हैं।

रहा सवाल मुसलमानों की बढ़ती हुई आबादी का, तो वह सबसे ज़्यादा तेज़ी से गिर रही है। अबू स्वालेह शरीफ़ इसका विवरण करते हुए लिखते हैं –

“मुस्लिम आबादी 13.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गई है, जो पहले से 0.8 प्रतिशत अधिक है। लेकिन उनकी वृद्धि दर पिछले दशकों की तुलना में काफ़ी कम है। कुछ और दशकों तक मुसलमानों की आबादी हिंदुओं की तुलना में तेज़ी से बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि भारत में प्रमुख धार्मिक समूहों के बीच उनकी औसत आयु सबसे कम है और अपेक्षाकृत प्रजनन क्षमता ज़्यादा है। 2010 में, भारतीय मुसलमानों की औसत आयु 22 वर्ष थी, जबकि हिंदुओं की औसत आयु 26 वर्ष और ईसाइयों की 28 वर्ष थी। मुस्लिम महिलाओं के, प्रति व्यक्ति, औसतन 3.1 बच्चे हैं, जबकि हिंदुओं के 2.7 और ईसाइयों के 2.3 हैं।” ¹

2001-11 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, हिंदू आबादी में 13.88 करोड़ की वृद्धि हुई और संयोग से 2001 में मुस्लिम आबादी 13.8 करोड़ थी। इन आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद ‘Denial and Deprivation’ पुस्तक के लेखक अब्दुर्रहमान साहब एक अद्भुत टिप्पणी लिखते हैं –

“What Hindus have added in 10 years took Muslims 1400 years of living in India.”

यह एक वाक्य बढ़ती हुई मुस्लिम आबादी के ग़ुब्बारे की हवा निकालने के लिए काफ़ी है। इन सभी तर्कों की रोशनी में यह स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम आबादी का शोशा केवल एक राजनीतिक प्रचार है, लेकिन जब सभी निर्णय भावनात्मक उत्तेजना और मुस्लिम विरोध में किए जाने हैं, तो तथ्यों और तर्कों के प्रकाश में चीज़ों का विश्लेषण करने का समय किसके पास है!

(ये लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं। छात्र विमर्श का इन विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं है।)

संदर्भ:

  1. Myth of Muslim growth by Abusaleh Shariff. https://indianexpress.com/article/opinion/columns/myth-of-muslim-growth/ Retrieved on 26th July 2023 

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